इच्छाशक्ति प्रेरणा

By: Rajeev Kumar

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दिलासा देने वाली सारी बातें नतमस्तक थीं। आशा तो क्या, आशा की परछाई भी लूप्त थीं। मन-मस्तिष्क पे निराशा हाबी होने से कार्यक्षमता में सुचारूपन लोप का हो गया था। मन के हारे, मस्तिष्क के मारे वाली अवस्था हो गई थी।

बारहवीं की परीक्षा में असफलता के बाद मेघा  का मन विदीर्ण हो गया था। कोई चाहनेवाला अगली परीक्षा में एड़ी-चोटी एक कर देने वाली इच्छाशक्ति को मेघा के मन-मस्तिष्क में प्रविष्ट कराने का प्रयत्न कर रहा था तो कोई जलनेवाला पढ़ाई छोड़ देने की नसीहत, उसके फायदे गिनवा कर दे रहा था।
मेघा को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे आशावादी मकड़ा, निराशावादी जाल को बूनने के बाद कहीं बहूत दुर चला गया हो।

मेघा की दुविधा को बढ़ाने और इच्छाशक्ति को भरमाने में उसके आस-पास खड़े लोगों ने खुब योगदान दिया। मेघा शुन्य में देखती हुई बोली ’’ हमको अकेला छोड़ दीजिए, आपलोग जाइए यहाँ से, जाइए…………..। ’’ इस वाक्य को मन से बाहर निकालने के साथ मेघा थोड़ी सी झंुझला गई थी। जीवन में शायद वो पहली बार इतनी जोर से चीखी थी।

मेघा की ऐसी अवस्था पर उससे जलने वालों में खुशी की लहर दौड़ गई थी और चाहनेवालों में नाराजगी पनप गई थी।

अपने दैनिक क्रियाकलाप के बाद मेघा खुद को कमरे में बंद कर लेती थी और ज्यादा से ज्यादा समय वो सोचने में ही बिताती थी। चिन्तन से प्रारम्भ हुआ सफर चिन्ता में परिवर्तीत होकर निराशा को और भी जीवंत कर देती थी। चिन्तित अवस्था में कमरे में टहलते समय मेघा का ध्यान अचानक आईना पे गया। धुल भरे आईने को भलीभांति साफ कर मेघा ने खुद के बिना सजी- संवरी सुरत को निहारा तो उसे थोड़ी भी बुराई नज़र नहीं आई मगर, जब बाल्कनी में रखे गमले में मुरझाए फुलों सहित मरते पौधे को देखा तो मेघा के दिल पर कुठाराघात हुआ, मन विदीर्ण सा होने लगा। शर्मींदगी इतनी महसूस हुई कि उसका सारा दुःख दबे पाँव निकल गया।
उपरी मन से ही सही मगर गमले में पानी डालने के साथ ही तरोताजा हो चुके फुल अपनी रंगत, अपनी आभा मेघा के मन-मस्तिष्क में प्रविष्ट करा गए।

खिले हुए फूलों ने मेघा को जिन्दगी क्या है सीखा दिया, सीखा दिया कि हार जाना कोई गुनाह नहीं है, मगर जीतने की जीद्द छोड़ देना महापाप है। बेजान हो चुके फूलों ने जिन्दगी पाकर मेघा को एहसास करा दिया कि आशा जीवन का समुल है, निराशा तो धुल है।

मेघा के रोम-रोम में अंग-अंग में चेतनाशक्ति का ऐसा संचार हुआ कि इच्छाशक्ति जागृत होने से निराशा का सेनापति भी न रोक सका।

आज मेघा चहकी थी, आज उसका अन्तर्मन आत्मविश्वास के रूप में बाहर आया ’’ मेरा दुसरा जन्म है। मैं जीत सकती हूँ, मैं जीत के रहूंगी। ’’

मेघा ने अपने गुण के बजाए, खुद में कमी ढुंढी। कमी को पुरा कर वो आगे बढ़ती गई। कड़ी मेहनत के बाद बारहवीं में आशातीत सफलता से शुरू हुआ सफर कलक्टर के पद तक जा पहूँचा।

By: Rajeev Kumar

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