क़र्ज़ का फर्ज़

By Upendra Prasad

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सेठ दीनानाथ की हवेली में काम करते हुए रामू की पूरी जिंदगी बीत गई किंतु कर्ज का बोझ कभी कम न हुआ। मृत्यु सन्निकट आई तो उस बोझ को ढोने के लिए अपने पुत्र घनश्याम को सेठ जी के खूंटे पर बांध दिया | बेचारा घनश्याम बंधुआ मजदूर बनकर सेठ जी की हवेली में काम करने लगा।
पिता की भाँति घनश्याम भी सेठ जी का खूब ख्याल रखता था | सुबह होते ही बगीचे से फूल तोड़ कर लाता और पूजा की थाली सजा देता | सेठ जी नहा- धोकर पूजा पर बैठते तो घनश्याम घंटी लेकर आरती होने का इंतजार करता | सेठ जी जलपान करते तब तक घनश्याम उनकी गद्दी लगा देता |
सेठ जी का सूद व्यापार खूब चलता था। इसमें उनका मृदुल और उदार व्यवहार काफी मददगार था। पर एक कौड़ी की कमी भी उन्हें नागवार थी | उनका यह विचार परिवार पर असर डालने लगा। इकलौते पुत्र गोपाल के भविष्य को चकाचौंध करने के लिए कभी यज्ञ करते तो कभी ज्योतिषी से हाथ दिखाते,पर उसकी पढ़ाई -लिखाई और सेहत पर फूटी कौड़ी भी खर्च न करते|
गोपाल, पिता के विपरीत हठ्ठी,जिद्दी और कटु स्वभाव का लड़का था | पढ़ने में उसका मन नहीं लगता और अक्सर दोस्तों के साथ मस्ती करने में मशगूल रहता। इसके लिए वह कभी-कभी अपने पिता की गद्दी से पैसे भी चुरा लेता जिसका खामियाजा नौकर घनश्याम को भुगतना पड़ता। पुत्र के मोह से सेठ जी को घनश्याम के प्रति आशंकाएं पैदा होने लगी | किंतु सेठ जी मजबूर थे। बिना क़र्ज़ चुकाये घनश्याम की छुट्टी भी तो नहीं कर सकते थे।
दिन बीतता गया। गोपाल की जवानी झांकने लगी। नौकरी न भली पर पिता की गद्दी तो पक्की थी ही | एक -से-एक सम्भ्रात परिवार अपनी पुत्री के विवाह के लिए सेठ जी की हवेली पहुंचने लगे। घनश्याम उनकी खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ता | आवभगत के साथ गोपाल का मोल-भाव शुरू होता | अंतिम बोली लगाकर लड़की वाले अपने घर वापस जाते। एक दिन गोपाल के विवाह का टेंडर खुला। सबसे अधिक बोली लगाने वाले की लॉटरी लगी। विवाह काफी धूमधाम से संपन्न हुआ |
कहते हैं कि माथे का टीका मिट सकता है पर तकदीर का लिखा कभी मिट नहीं सकता। बहू के आते ही घर में खटपट शुरू हो गई। न यज्ञ से शांति मिल रही थी न ज्योतिषी की भविष्यवाणी से। “रोपा पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय।” सेठ जी की सूद कमाई से सिंचित गोपाल का स्वभाव- पहले ही बिगड़ैल हो चुका था, उस पर दौलत की अभिमानी दुल्हन पाकर घर की सुख, शांति और समृद्धि तिरोहित होने लगी।
इन सभी बदलावों से बेखबर घनश्याम सब की सेवा में तल्लीन रहता। उसको इससे क्या लेना- देना? उसे तो अपने पिता के कर्ज का फर्ज निभाने से मतलब था। पर गोपाल के विवाह को देखकर उसके मन में भी विवाह के लड्डू फूटने लगे। एक दिन साहस करके सेठ जी से कह बैठा– “बाबूजी लाल जूता खरीद दो ना |” यह सुनते ही सेठ जी की भौँवे तन गई –” तू विवाह करने की सोच रहा है? अभी तेरे पिता द्वारा लिया गया पच्चीस सौ रूपये का सूद भी न सधा है कि तू विवाह कर अपने कर्ज का बोझ और बढ़ाना चाह रहा है? अब मैं समझ गया कि मेरी गद्दी से पैसों की चोरी क्यों हो रही है? ” घनश्याम सुनकर निरुत्तर हो गया। उसकी आंखें डबडबा गई। जिस शिद्दत से कर्ज उतारने के लिए वह हवेली में काम कर रहा था, उस पर आज प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था | लेकिन वह मजबूर था | बेचारा कर्ज़ का मारा कर भी क्या सकता था?
इधर गोपाल अपनी पत्नी की ख्वाहिश पूरी करने के लिए पिता की गद्दी में सेंध मारना शुरू कर दिया। इकलौता पुत्र होने के कारण पिता को उस पर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता था। बहु तो कुबेर की पुत्री थी, भला तुच्छ पैसों की चोरी क्यों करेगी? कुल मिलाकर चोरी होने की सुई घनश्याम पर ही जा टिकती । पहले कम होती थी तो सहनीय थी पर अब काफी बढ़ जाने से सेठ जी के लिए असहनीय हो गई | अब घनश्याम को हवेली से बाहर करने के सिवा कोई अन्य चारा न था |
सेठ जी का रवैया घनश्याम के प्रति सख्त होता गया | बातों-बात में एक दिन सेठ जी ने झल्ला कर घनश्याम से कह ही दिया– “तुम्हारा बाप सूद तक न चुका सका था, तू क्या मूल चुकायेगा ? तुम तो आजकल चोरी भी करने लगा है। तुझे क्यों रखूं अपनी हवेली में,जा निकल जा,यहां से। यह सुनते ही घनश्याम के पैरों से धरती खिसकने लगी। दबी जुबान से सेठ जी से विनती की –” बाबू जी, मैं कर्ज़खोर जरूर हूं पर चोर नहीं हूँ । मैंने आपकी एक कौड़ी भी नहीं छूई है | जहां तक हवेली छोड़ने की बात है तो बिना कर्ज़ चुकाये मैं कैसे जा सकता हूं? रामू की जुबान दबी जरूर थी पर निष्प्रभावी नहीं थी| इसने सेठ जी को असलियत जानने को विवश कर दिया।
एक दिन सेठ जी रात्रि में भोजन करने के बाद जल्दी सोने चले गए। मध्य रात्रि में उठकर तिजोरी की ओर अपनी दृष्टि गड़ा दी। यद्यपि अंधेरे में साफ-साफ दिखना मुश्किल था पर किसी भी गड़बड़ी की आहट आसानी से मिल सकती थी। थोड़ी ही देर में गद्दी के पास खड़खड़ाहट की आवाज सुनाई दी। सेठ जी चौकस हो गए। गौर से देखने पर उन्हें आभास हुआ कि कोई हट्टा- कठ्ठा शख्स तिजोरी खोलने का प्रयास कर रहा है। सेठ जी अब तेजी से सीढ़ी से उतरने लगे तभी उनका पैर फिसल गया और लुढ़कते – लुढ़कते जमीन पर आ गिरे। सेठ जी जोर से चीख पड़े– “बचाओ…,बचाओ…।” भागता हुआ शख्स आवाज सुनते ही वापस आकर सेठ जी को संभालने लगा। उधर गिरने की आवाज सुनकर बहू और घनश्याम भी दौड़ पड़े। सेठ जी लहूलुहान होकर फर्श पर पड़े हुए थे। वह शख्स कोई और नहीं, उनका इकलौता पुत्र गोपाल ही था। गोपाल प्रायश्चित भरे लहजे में बोला –“पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए| मैं ही चोरी का गुनहगार हूं। ” नहीं बेटा, गुनाहगार तो मैं हूं कि तुम जैसे नालायक पुत्र को जन्म दिया।” यह कहते हुए सेठ जी बेहोश हो गए।
सभी मिलकर सेठ जी को अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने तत्काल खून चढ़ाने की सलाह दी, पर खून देने वाला कोई न था। पिता की नाजुक स्थिति को देखते हुए गोपाल तैयार भी हुआ तो पत्नी यह कहते हुए रोक लिया कि तुम्हारी जिंदगी तो अभी काफी बाकी है, पिताजी ने तो अपनी जिंदगी जी ही ली है। यह सुनकर घनश्याम आवाक रह गया। तभी जांच रिपोर्ट आई। सेठ जी की आंखें और किडनी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए थे और उनका बचना काफी मुश्किल था। डॉक्टर इसके लिए गोपाल से कुछ कहते, इससे पहले ही पत्नी ने गोपाल को खींचते हुए घर की राह चल दी | रास्ते में गोपाल को समझाने लगी –” पिताजी ने तुम्हारे लिए क्या किया? पूरी जिंदगी सूद की वसूली में बीता दी। एक कौड़ी भी तुम पर खर्च की है क्या? भला हो कि इसी बहाने चले जाएं | कम-से-कम घर चलाने के लिए तुम्हें चोरी तो नहीं करनी पड़ेगी | अब इंतजार करने से भी क्या लाभ, जब डॉक्टर ने जवाब ही दे दिया। चलो,अब हम उनके दाह-संस्कार की जुगाड़ करें।”
इधर घनश्याम अस्पताल की चौखट पर टकटकी लगाकर खड़ा था कि कहीं बाबूजी के लिए कोई अच्छी खबर लेकर आए। पर काफी देर तक कोई खबर न पाकर दबे पांव बाबूजी के वार्ड में दाखिल हुआ। वहां डाक्टरों को कानाफूसी करते सुना कि कैसा बेटा है जो मरणासन्न बाप को छोड़कर भाग गया। उसने पास जाकर धीरे से बोला -” नहीं, डॉक्टर साहब, गोपाल भैया घर पर पैसों की व्यवस्था करने गए हैं, मैं हूं न! मैं खून, किडनी, आंख सब कुछ देने को तैयार हूं।’ डॉक्टर ने राहत की सांस ली। तुरंत डॉक्टरों की एक टीम तैयार होकर सेठ जी का अंग प्रत्यारोपण किया। सेठ जी को जब होश आया तो सामने बेड पर घनश्याम को पड़ा देखा। डॉक्टर ने सेठ जी को सारी बातें बताते हुए घनश्याम की ओर इशारा किया -” धन्य है आपका छोटा पुत्र, घनश्याम | ऐसी पितृ-भक्ति इस दुनिया में दुर्लभ है| सेठ जी अचंभित थे | जिस घनश्याम को कर चुकाने के लिए सेठजी ने बंधक बनाकर हवेली में रखा था, आज वह सूद सहित मूलधन चुका कर उन्हें सदा के लिए ऋणी बना दिया।
अब सेठजी समय के साथ स्वस्थ होने लगे | घनश्याम का घाव भी भरने लगा |वह अंगदान करने के बावजूद दिन- रात बाबूजी की सेवा में लगा रहा, पर गोपाल और बहू झांकने तक भी नहीं आए। अस्तु, सेठ जी को अस्पताल से छुट्टी मिली और वे घनश्याम के साथ घर पहुंचे। पिता को स्वस्थ देखकर गोपाल और बहु के आश्चर्य का ठिकाना न रहा | जब सारी बातें मालूम हुई तो दोनों प्रायश्चित करते हुए घनश्याम से माफी मांगने लगे। घनश्याम भावुक होकर बोला –“माफी तो बाबूजी से मांगनी चाहिए। मैं तो बस अपना फर्ज अदा किया है।” मन- ही- मन सेठ जी ने गोपाल और बहू की गलती को माफ करने का संकेत दिया। अब सब का मैल मिट चुका था | सभी बड़े आदर से बाबूजी का सत्कार करने लगे | घर में सर्वत्र खुशी छा गई। पर अब सचमुच घनश्याम के हवेली से विदा होने का वक्त आ गया था। मन की मायूसी छिपाए बाबू जी से बोला –“बाबूजी, अब हमें हवेली छोड़ने की अनुमति दें |” बाबूजी रूँधे स्वर से बोल पड़े–” तू अपने बाबूजी को छोड़कर जाना चाहता है? तुमने तो मेरा पुत्र बन कर अंगदान किया है | अब तो मेरे दो पुत्र हैं- एक गोपाल और दूसरा घनश्याम | पगले, देख तेरे लिए लाल जूता खरीद कर मंगवाए हैं और तेरा विवाह भी पक्का कर दिया है |” सभी ठहाके मारकर हंस पड़े |

By Upendra Prasad

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