5/5 - (1 vote)

अभी-अभी मोबाइल पर कॉल आया है, प्रतिष्ठित प्रत्रिका के संपादक का, उन्‍हें हमारी भेजी कहानी पसंद आई है। वो उसे अपनी पत्रिका में छापना भी चाहते हैं, पर भेजी कहानी ढाई हजार शब्‍दों की है और उनके कालम में लगभग दो हजार शब्‍दों तक की कहानियां प्रकाशित हो सकती हैं। अत: उन्‍होंने बहुत विनम्रता से आग्रह किया है वो कहानी वापस मेल कर रहे हैं ताकि हम उसे निर्धारित शब्‍द सीमा तक सीमित कर सकें। उन्‍होंने यह सुझाव भी दिया है कि कहानी में हमने एक महिला पात्र “तिवारिन” के जो रूप सौंदर्य का वर्णन किया है उसे और एक दूसरे पात्र “सिपाही” के रौबदार व्‍यक्तित्‍व का जो चित्रण किया है, उसे हटाया जा सकता है। इन दोनों के चित्रण को हटाने से कहानी निर्धारित शब्‍द सीमा में आ जाएगी। संशोधित कहानी दो दिनों में भेजनी है ताकि पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित हो सके। बड़ पत्रिका में प्रकाशित हो सकने की खुशी में तत्‍काल कम्‍प्‍यूटर आन कर कहानी का प्रिंट संशोधन के लिए निकाल लिया है। 

अब कहानी टेबल पर सामने है, “तिवारिन” कहानी का प्रमुख किरदार है और नायिका की मां है। तिवारिन की कजरारी आंखें, मांसल शरीर और कमर तक लंबे बालों के वर्णन वाले पैराग्राफ को हटाने के लिए जैसे ही पैन उठाया, आप यकीन नहीं मानेंगे, तिवारिन नामक पात्र रूठ कर हाशिये में बैठ गया है। 

बिना “तिवारिन” कहानी का आगे बढ़ना मुश्किल है। कुछ देर कोशिश के बाद ये सोचकर “सिपाही” के परिचय वाले पैराग्राफ पर आ गये कि पहले सिपाही को निपटाते हैं ।तिवारिन को बाद में मना लेंगे।

पर सिपाही के लंबे कद, घनी मूंछों और रौबीले व्‍यक्तित्‍व के वर्णन वाले पैराग्राफ को हटाने के लिए जैसे ही  कलम चलानी चाही सिपाही अकड़ कर खड़ा हो गया है। सिपाही को तो कहानी का नायक ही माने अब तो उसके बिना कहानी का खड़े रहना ही मुश्‍किल होगा, आगे बढ़ना तो दूर। अन्‍य कहानीकारों का तो नहीं मालूम पर हमे तो पहले शब्‍दों को बहलाना फुसलाना पड़ता है और फिर उनमें सांस ले रहे पात्रों को बहुत मान मनौब्‍बल से कहानी के फ्रेम में बैठाना पड़ता है। शब्‍द ही बिखर गये और पात्र ही रूठ गये तब तो फिर हमने लिख ली कहानी। यानि कि “तिवारिन” और “सिपाही” को छेड़ना ठीक नहीं। पर “छपास” भी सिर पर हावी है। अरे! अच्‍छी पत्रिकाओं में कौन प्रकाशित होना नहीं चाहता है? यही “छपास” ही तो है जिससे कवि, कथाकार, साहित्‍यकार आदि जिंदा है और पत्र पत्रिकाएं भी। इसलिए पूरी कहानी पर फिर नजर दौड़ाई। एक चरित्र “घासी” का नजर आ रहा है। 14-15 साल का लड़का है, निरीह और मासूम सा। कहानी मै कुछ बोलता नहीं है, हाफ पैंट और फटी बनियान पहने सिपाही के संदेश और कभी-कभी प्रेम पत्र नायिका यानि तिवारिन की बड़ी लड़की को पहुंचाता है। तिवारिन की छोटी लड़की यानि नायिका की छोटी बहन के साथ पढ़ता है। दोनों एक दूसरे को मासूमियत से देख भर लेते हैं। प्‍यार व्‍यार जैसा कुछ भी नहीं है। “घासी” के किरदार को अलग कर देने से कहानी के मूल भाव में परिवर्तन नहीं हो रहा और इसके साथ ही तिवारिन की छोटी लड़की के वर्णन को भी हटाया जा सकेगा क्‍योंकि घासी के बिना इसके भी कहानी में रहने की कोई प्रासंगिकता नही नजर आती। इन दोनो किरदारों को हटा देने पर लगभग चार सौ से सबा चार सौ शब्‍द कम हो जाएंगे। इसलिए इन दोनों को हटा कर संशोधित कहानी फटाफट कम्‍प्‍यूटर पर टाइप कर दी। कम्‍प्‍यूटर स्‍क्रीन पर एक क्षण के लिए घासी का उदास चेहरा उभरा पर कुछ बोल न सका, और इधर दिल मे भी एक टीस सी उठी जैसे कोई मासूम चाहत पनपने के पहले ही दफन हो गई। संशोधित कहानी फिर संपादक को मेल कर दी है। आज रविवार है कार्यालयीन कार्यों से फुर्सत है। चैन से बैठे थे कि मोबाइल घनघना उठा। उसी पत्रिका के संपादकीय विभाग से फोन है।

 “ सर आपकी कहानी आयी नही अभी तक”

 “ अरे, पर हमने तो दो दिन पहले ही मेल की है। फिर देखते हैं।”

 “ ठीक है शाम तक भिजवा दें।”

 “ जी जी बिल्‍कुल।”

मोबाइल रख झट से कम्‍प्‍यूटर खोल दिया है। मेल चैक कर रहे हैं। यह क्‍या मेल सेन्‍ड हुई पर वापस फेलियर नोटिस दिख रहा है। री सेन्‍ड करने की जगह नयी मेल कंपोज करना ठीक रहेगा ये सोचकर संशोधित कहानी की फाइल खोल ली है कि भेजने से पहले एक बार फिर पढ़ लें । कहानी पढ़ रहे हैं, पर मार्जिन में हाफ पैंट और फटी बनियान पहने टूटी साइकिल लिए “घासी” खड़ा मुस्‍कुरा रहा है। मुस्‍कुरा कम, चिढ़ा ज्‍यादा रहा है। कहानी दो तीन बार पढ़ ली है। पर अटैच कर सैंड करने का मन नहीं हो रहा है। अंतत: संशोधित कहानी सिलेक्‍ट कर डिलीट कर दी है। लगता है कहानिया लिखे जाने के बाद स्‍वतंत्र हो जाती हैं और किरदार जीवित। वर्ना क्‍यों तिवारिन रूठती, सिपाही क्‍यों अकड़ता और क्‍यों घासी उदास होता। अब कहानी नहीं भेजने का निर्णय लिया है। कहानी आज भी अप्रकाशित है पर कम्‍प्‍यूटर में सेव है व डायरी में सुरक्षित। जब भी पढ़ते है घासी मुस्‍कुराने लगता है।

   मधुर मोहन मिश्र       

ज्ञानोदय विद्यालय परिसरकेन्‍द्रीय विद्यालय के पास रीवा (म0प्र0)        

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here