कम समय, कम परिश्रम और कम खर्च में उत्तम गुणवत्ता वाली अच्छी से अच्छी चीज़ें उपलब्ध हों. इसके लिए भारतीय संस्कृति में एक से बढ़कर एक ग्रन्थ रचे गये हैं जिनमें श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म का दिया गया उपदेश “गीता” बेमिसाल ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ में ७०० श्लोक और १८ अध्याय मात्र हैं, जो जीवन की हर समस्या का समाधान भी देते हैं साथ ही साथ मानव व्यक्तित्व को निखार कर उच्च कोटि का मानव बना देते हैं. यह संकलन अद्वितीय , अनुपम व अपूर्व है, जिसकी सीखें अमल में लाने से वह मानव का निर्मित होता है जो अभूतपूर्व होता है. गीता में सिर्फ और सिर्फ कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है, न कि घर संसार छोड़कर जंगल पहाड़ों में धूनी रमाने की बात कही है. कर्म करना ही श्रेष्ठ है जो आपके हाथ में है, शेष उसका फल श्री कृष्ण के हाथ में छोड़ देना चाहिए. गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक ३८ में लिखा है कि :
सुख दु:खे समें कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ / ततः युद्धाय युजय्स्व न एवम पापं अवाप्स्यसि // २—३८//
कृष्ण भावनामृत कार्यों में सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि प्रत्येक काम कृष्ण के लिए किया जा रहा है. लेकिन जो कार्य इन्द्रिय तृप्ति के लिए किया जाये उसमें अच्छे या बुरे फल प्राप्त हो सकते हैं.
जब हम पैदा होते हैं तब हमारे स्वभाव में अच्छे- बुरे , स्याह-सफ़ेद, सभी प्रभाव होते हैं, जो क्रमशः पल्लवित पुष्पित होते हैं तथा शेष जीवन में हमारे पीछे पीछे चलते रहते हैं. यह भी उतना बड़ा सत्य है कि हमारा जीवन दो परम सत्यों जन्म तथा मृत्यु के मध्य स्थित होता है. जीवन में व्यक्तित्व की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारे भीतर कौन सी और कैसी महत्वाकांक्षाएं हैं. पुराने लोग कहा करते थे कि बच्चों के लालन पालन में नींद, पलक और साँस का बड़ा महत्व है. आज की पीढ़ी के मां बाप ये शब्द सुने तो शायद चौंक जाएँ कि ऐसा कैसे हो सकता है? आजकल मां बाप को माता-पिता होने के इतने तरीके सिखाये जाते हैं कि संतान से रिश्ता जिस भावना और संवेदना से जुड़ा है , उनको मालूम ही नहीं पड़ता . ये सिखाने के प्रयास एक सीमा तक ही काम आते हैं. शरीर का एक हिस्सा पलक अपने आप खुलता- झुकता है, यही बात साँस के साथ भी है. ये दोनों काम अपने आप होते हैं, जो मन की शांति अर्थात भारतीय संस्कृति एवं भारतीय संस्कार के अंश से सम्बन्ध रखते हैं. अतः मन की शांति के साथ बच्चों का लालन-पालन करें तो उनके व्यक्तित्व में भारतीय मनीषा द्वारा प्रतिपादित भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ गुण अवश्य प्रवेश करेंगे.
दुनिया में विरला ही होगा जो श्रेष्ठ व्यक्तित्व की कामना न करता हो. इसके लिए वो ताउम्र प्रयासरत भी रहता है. इन प्रयासों में उसे सफलता मिलती है तो असफलता भी मिलती हैं. किन्तु ध्यान रहे – ‘गिरते हैं शह सवार ही मैदान-ए-जंग में.’ श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण न तो बच्चों का खेल है और ना ही सीधी सपाट सड़क पर दौड़ है. झाड़-झंखाड़, बीहड़-मैदान, तेज़-मंद, सभी उसके अंग हैं. कभी-कभी उसके लिए रास्ता बदलना पड़ता है तो कभी पीछे लौटना भी पड़ता है, कभी थक कर रुक जाना होता है. एक बात सदा याद रहना चाहिए कि ईश्वर की कृपा, दया, प्रेम और शक्ति का कोई अंत नहीं है. श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण ने कहा भी है:
सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् वृज / अहं त्वात सर्व पापेभ्यो मोक्षिश्यामि मा शुचः // अध्या १८, ६६//
समस्त प्रकार के धर्म का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ. मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा, डरो मत. अतः उसकी शरणागति हो जाने पर सारी चिंता और भय से मुक्ति मिल जाती है. उसे अपने भीतर मथकर, झांककर देखें क्योंकि मन की अनुभूति ही उस ब्रम्ह की स्वीकारोक्ति है.
मानव मात्र के व्यक्तित्व में उसकी मानसिक उत्कृष्टता के संग-संग शारीरिक बनावट और सामाजिक सरोकार, आचरण , व्यवहार, चरित्र आदि समाहित हैं. अतः व्यक्तित्व के निर्माण के अनेक पहलू हैं, जो उसके पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ इस जन्म की देश, काल, परिस्थितियों से भी प्रभावित होते हैं. इतना अवश्य है कि मानव की शारीरिक बनावट, रंग-रूप, आदि में कुछ भी परिवर्तन कर पाना लगभग असंभव है किन्तु वर्तमान जन्म के देश, काल और परिस्थितियों को व्यक्तित्व के उच्चतम शिखर तक पहुँचाने हेतु तदनुरूप मोड़ा जा सकता है. एक बात और भी ध्यान में रहना चाहिए कि सामाजिक मान्यताओं को ठुकराने वाले, कानून का उल्लंघन करने वालों के व्यक्तित्व को अच्छी गुणवत्ता के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता. यदि कोई कायर , डरपोंक है, स्पष्टवादी नहीं है, समय का पाबंद नहीं है तो अन्य सदगुणों के रहने के बावजूद इस व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं हो सकता. यदि मनुष्य संकल्पी, सत्यव्रती, व्यक्तिगत सदाचारी , सद्व्यवहार युक्त , कार्य कुशल, प्रबल इच्छा शक्ति युक्त है; तब उसके व्यक्तित्व की महानता में कोई संदेह नहीं.
जीवन में अपने व्यक्तित्व को सर्वश्रेष्ठ बनाने में ऊपर दिए गये तत्वों के अतिरिक्त एक और कारक भी अहम् होता- वो है- जीवन के प्रति मनुष्य का अपना नजरिया. तत्समय जीवन के प्रति सकारात्मकता सर्वाधिक प्रेरणा का काम करता है. मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार कुछ भी रहे हों या उक्त संस्कारों का चाहे जो प्रभाव रहा हो लेकिन वर्तमान जीवन के व्यक्तित्व को निखारने में कोई कसर नहीं रखता और यही व्यक्तित्व में निरंतर निखार लाता है.
यह सर्वमान्य तथ्य है कि हम सबके भीतर चेतन और अवचेतन दोनों प्रकार के मन होते हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं. अवचेतन मन की शक्ति / उर्जा/ ताकत ; चेतन मन की अपेक्षा इतनी अधिक होती है कि वह कल्पना से भी परे है. यह अन्यान्य मसलों पर अपना निर्णय देता रहता है जो हमारी धारणाओं पर अवलंबित होती है. हमें यह याद रखना चाहिए कि धारणाएं पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ साथ इस जन्म के स्थान, समय और स्थितियों यानि वातावरण पर भी अवलंबित होती हैं. यदि मनुष्य को प्रभावोत्पादक, सकारात्मक व्यक्तित्व का विकास करना है तो अवचेतन मन की आंतरिक ऊर्जा (अंतर्मन की आवाज़) को जागृत कर, उसमे स्थापित नकारात्मक विचारों, विश्वासों को मिटा कर एक नया सकारात्मक प्रभाव और विश्वास वाला कंप्यूटर प्रोग्राम स्थापित करना होगा.
अवचेतन मन की गुप्त शक्ति का प्रयोग करके मानव आत्म व्यक्तित्व में तरक्की हासिल कर अपने जीवन में अधिक सकारात्मक ऊर्जा, धन, ख़ुशी और आनंद प्राप्त कर सकते हैं. तदनुसार रचनात्मक सफल जीवन व्यतीत कर सकते हैं क्योंकि इस ऊर्जा को अलग से प्राप्त करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि यह मनुष्य के भीतर पहले से ही मौजूद है जो सपनों को साकार कर जीवन को सुगम बनाकर एक प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक हो सकेगी. मानवीय अवचेतन मन की शक्ति अतुलनीय और असीमित है, जो न सोती है, न थकती है और चौबीसों घंटे कार्यरत रहकर स्थान, समय और स्थितियों , वातावरण को अनुकूल बनाकर सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व का न सिर्फ निर्माण कर सकती है बल्कि बनाये रख सकती है.
उत्कृष्टता के साथ व्यक्तित्व में निखार लाने हेतु एक और संस्कार को नहीं भूलना चाहिए जिसे हम आत्मिक और आध्यात्मिक विकास के नाम से जानते हैं. इस हेतु मानवीय चेतना, मनीषा ने संस्कार के साथ – साथ ज्ञान एवं कर्म का ऐसा समन्वय स्थापित कर हमारे धर्म शास्त्रों, ग्रंथों का एक भंडार दे रखा है. इसी भंडार में एक अधिकृत ग्रन्थ “श्रीमद्भगवत गीता” मानी गयी है. सत्य और आदर्श के पथ पर सदैव चलने के पक्षधर महात्मा गाँधी का कथन है- “जब कभी संदेह मुझे घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है, मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूँ. इसमें मुझे अवश्य एक छंद मिल जाता है जो मुझे सांत्वना देता है और तब मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ.”
गीता हमारे आभिजात आदर्शों, ज्ञान तथा संस्कारों की रुपरेखा प्रस्तुत करती है जिसके सोलहवें अध्याय के श्लोक क्रमांक १,२ और ३ में वर्णित किया है:
अभयं, सत्व,संशुद्धि:, ज्ञान योग व्यवस्थितिः / दानं,दमश्च,यज्ञश्च, स्वाध्यायसतप आर्जवं // १ //
अहिंसा,सत्यम,अक्रोधः, त्यागः,शांतिः, अपैशुनं / दया, भूतेषु अलोलुप्त्वं, मार्दवं, ह्रीं:, अचापलं // २ //
तेजः,क्षमा,धृति:,शौचं,अद्रोहो, नातिमानिता / भवन्ति संपदं देवीम अभिजातस्य भारत // ३ //
श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे भरत पुत्र ! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म- संयम, यज्ञ परायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध विहीनता, त्याग, शांति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुणा, लोभ विहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या, तथा मान की अभिलाषा से मुक्ति—ये सारे दिव्य गुण हैं जो दैवी प्रकृति से संपन्न देवतुल्य व्यक्तित्व में पाये जाते हैं.
व्यक्तित्व के निखार हेतु संस्कारों के साथ साथ शरीर का स्वस्थ रहना भी एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि मनुष्य का शरीर परमात्मा की बनाई गई ऐसी मशीन है, जिसमें गुण उत्तराधिकार अर्थात पूर्व जन्म के संस्कार से आते हैं लेकिन शेष रचना व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए उपलब्ध रहती है. उल्लेखनीय है कि शारीरिक गठन, चाल-ढाल, रूप-रंग, पूर्व जन्म के संस्कारों में परिवर्तन लगभग असंभव है, लेकिन व्यक्तित्व के अन्य कारकों में माता-पिता, गुरुजनों की सीख, मानव-मस्तिष्क की सोच इत्यादि में बदलाव अत्यंत सुगम है. अपने विचारों को नियमित, व्यवस्थित और अनुशासित करना संभव है. तदनुसार जीवन के प्रति दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन करके व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को हासिल कर सकें.
सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व को पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ- साथ, इस जन्म में प्राप्त वातावरण में रहकर भी निखारा जा सकता है जिसकी प्राप्ति की सफलता, ख़ुशी और मंजिल, उम्मीद और जोश के रथ पर सवार होकर आती है. आशावादिता,सकारात्मकता न्यूनाधिक भी हों तो उसे कम नहीं आंकना चाहिए क्योंकि इसके अन्यान्य घटक हैं— सकारात्मक दृष्टिकोण, आशावादिता, आत्म विश्वास, आध्यात्मिक चेतना, मानसिक उन्नति के साथ साथ भौतिक समृद्धि, स्वास्थ्य रक्षा, सुखी जीवन और सामाजिक जीवन में जीवन्तता आदि. ये सभी भारतीय संस्कार से युक्त भारतीय संस्कृति के अंश कहे जाते हैं.
तीन आधारभूत स्तंभों सदाचार, दृढ संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास की आवश्यकता प्रतिपादित करने के लिए एक छोटा सा विचार 4E ( चार ई ) के आधार पर सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व में समाहित कारकों की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का प्रयास किया जा रहा है. वे ‘चार ई’ हैं—पहला, पोजिटिव एनर्जी यानि सकारात्मक ऊर्जा. दूसरा, एनेरजाइस अदर्स यानि दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत. तीसरा,एज (EDGE)—यानि लक्ष्य की धार से अपनी धार को मिलाना एवं चौथा, एफिशिंसी अर्थात कठोर निर्णय लेने की क्षमता, दक्षता.
सभी प्रयासों, तरीकों में गुण-दोष हो सकते हैं जिनको कवि कालिदास जी ने बड़ी मार्मिकता से प्रतिपादित किया है: श्रुतिरैव भिन्ना, मतिरैव भिन्ना, नैको मुनिः यस्य स्वः प्रमाणं – अर्थात श्रुतियां, वेद, पुराण, उपनिषद आदि भिन्न- भिन्न हैं, प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि भी भिन्न- भिन्न है, एक भी ऋषि, मुनि, ज्ञानी ऐसा नहीं हुआ जिसका वचन प्रामाणिक माना जाये. अतः जोश के साथ होश, आध्यात्मिक नसीहतें, सकारात्मकता के साथ व्यक्ति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आदर्श और सर्वोत्कृष्ट व्यक्तित्व में परिवर्तित कर निखारते रहने का सदा प्रयास जारी रखे तो हमारी भारतीय संस्कृति भी इस जगत में एक विशेष दर्ज़ा हासिल कर भारतियों के मन में परमानन्द का प्रवेश करा सकेगी. जब ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हरेक भारतीय का लक्ष्य होगा, पूरे मन से होगा तो हरेक हिन्दुस्तानी सत-चित-आनंद यानि सच्चिदानंद हो जायेगा. निश्चित रूप से उस भारतीय का व्यक्तित्व भारतीय वैदिक संस्कृति से ओत प्रोत कमाल का होगा.
[…] नकारात्मक व्यक्तियों के व्यवहार का प्रभाव उनकी साख पर भी पड़ता है, जिसे उनके आस-पास वाले समझ जाते तथा धीरे-धीरे किनारा कर लेते हैं. […]