एक बार फिर – पुरी

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ओडिशा- एक अनूठा प्रदेश, जो   अपने  में  इतनी  विविधताएं   और  आकर्षण  समेटे  है कि यहाँ  आने  का  मन बराबर  बना  रहता  है .  यहीं  पर   है भुबनेश्वर  से  7-8 किलोमीटर बाहर पुरी   मार्ग  पर  वह  क्षेत्र  जहाँ  २२७८  वर्ष  पूर्व  हुआ  था कलिंग का  भीषण युद्ध,जहाँ   युद्ध  के  बाद   चारों  ओर  घायल  और  मृत  योद्धाओं  के  शरीर  देखकर  हुआ  था  सम्राट अशोक का  हृदय परिवर्तन. यहीं  पास  में  आज भी  खड़ा  है , मानों  उस  ह्रदय  परिवर्तन  का  प्रतीक , धौली का भव्य  शांति  स्तूप. इसी  मार्ग  पर पुरी  से  10 किलोमीटर  पहले  है   पटचित्र कला में संलग्न पूरा का पूरा गांव रघुराजपुर, जहाँ  हर घर की बाहरी और अंदरूनी दीवारें भी कलात्मक रूप से सुसज्जित हैं. 

एक  ओर  पुरी  में   है  भगवान  जगन्नाथ   का  २१४ फुट ऊंचा विशाल  मंदिर, पूरे  जनमानस  के पालन और कल्याण का सिंहावलोकन करते हुए, तो समुद्र  तट  पर  ही  35किलोमीटर  पर  कोणार्क  मंदिर  के  भव्य  अवशेष, भुवनेश्वर में  जग  प्रसिद्ध  लिंगराज  मंदिर   और उदयगिरि -खंडगिरि की बौद्ध गुफाएं. इसी  क्षेत्र  में  है   विशाल    जल  की विस्तृतचिलिका झील जहाँ  आप  नौकाविहार   के  साथ  आनंदमग्न डॉल्फिंस  का  नज़ारा  भी  देख  सकते  हैं. और, अगर जनजातीय जीवन मेंरूचि हो तो ओडिशा ट्राइबल ज़िलों में वहां के दैनिक जीवन , त्योहारों, नृत्य, संगीत कला, सादगी में इतना कुछ है, इतनी विभिन्नता है कि आप महीनों वहां बिता सकते हैं.

इस  बार  फिर  मन  में   आया  कि चलें  ओडिशा  की  और. यह  मेरी  इस  क्षेत्र  की  पांचवी  यात्रा  रही . मैंने  सोचा अबकी  बार  कुछ  नया  भी ढूंढ़ने  का  प्रयत्न किया  जाये , तो  थोड़ी  सी  प्लानिंग  की. 8 जनवरी  की  दिल्ली से प्रातः    सात  बजे  की  एयर  इंडिया  की  फ्लाइट  बुक  की  और  निकल  पड़े . फ्लाइट  बिलकुल  समय  पर  चली , बहुत  आरामदायक  तथा  स्मूथ. ठीक  9 बज  कर  15 मिनट    पर भुबनेश्वर  के  बीजू  पटनायक अंतराष्ट्रीय    हवाई  अड्डे  पर  लैंड  किया. तुरत पुरी  के  लिए  टैक्सी  ली  जिसने  भुबनेश्वर  के  ऑफिस टाइम के ट्रैफिक  को  कुशलता से पार  कर  कुल  दो  घंटे    में  70 किलोमीटर  दूरी  पर   पुरी  में  हमारे  होटल  हॉलिडे रिसॉर्ट पहुंचा  दिया.

सुन्दर होटल, आरामदायक कमरे,स्वादिष्ट व्यंजन, चुस्त दुरुस्त सर्विस,होटल के पीछे लॉन्स और चुनिंदा फूलों से लदे पौदे. कुछ देर में ही थोड़ा सुस्ता कर निकल पड़े सर्व प्रथम भगवान जगन्नाथ के दर्शन और आशीर्वाद के लिए. मंदिर जाने के प्रशस्त मुख्य मार्ग पर देश के विभिन्न भागो से आये समूह और विदेशी यात्रिओं की रेलम पेल. सभी समूह अपनी अपनी स्थानीय वेशभूषा औरभाषा में पूरे देश की अद्भुत तस्वीर पेश  करते हुए.लेकिन सबकी ऑंखें  जगन्नाथ मंदिर पर   लगी हुईं.

दर्शन किये, प्रसाद लिया और बाहर आ कर विशाल जनसमूह के साथ साथ घुमक्कड़ी का मज़ा लिया. और जब पाओं पूरी तरह थक  गए तो होटल का रुख किया.

शाम  होने से पूर्व हम होटल से पीछे केवल १००-१५० कदम रेत पर चलकर आ गए बीच पर. अरब सागर का सुरम्य बीच जहाँ नौका विहार, ऊँट की सवारी,  स्थानीय स्नैक्स,   मम्मी पापा को लहरों की ओर खींचते या ऊँट की सवारी को मचलते बच्चे,  चुहलबाज़ी में मस्त कपल्स, एक जगह राजस्थान से आयी ग्रामीण महिलाओं का समूह आसपास से बेखबर बिंदास स्नानमग्न.

कहीं कहीं विदेशी इस्कॉन भक्तहरे कृष्ण मंत्र पर माला फेरते हुए. इतना कुछ, लेकिन कोई अधिक भीड़ भाड़ नहीं, धक्का मुक्की तो बिलकुल नहीं. और शाम  होते होते अस्ताचल में जा रहे सूर्य की पल पल बदल रही आभा का एकपलक देखने वाला नज़ारा, जिससे नज़रें हट ही नहीं रही थीं.

दूसरे दिन तैयार होकर हम निकल पड़े गोवेर्धन मठ के लिए जो भारत के पूर्वी छोर की शंकराचार्य पीठ है. होटल से लगभग दो किलोमीटर स्वर्गद्वार मार्ग पर यात्रिओं से पटी  बिज़ी मार्किट से होते हुए मार्ग  के बायीं ऒर मुड़े और दो मिनट चलते ही मठ का विशाल प्रांगण हमारे सामने था.पुराना लेकिन  साफ, सुन्दर.

अंदर जाते ही एक सूचना पट्ट  पर मठ का संक्षिप्त इतिहास दिया गया है, जिसके अनुसार ईसा से 486 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने इसकी स्थापना की थी. यह वर्ष युधिष्टर सम्वत का 2652 वां वर्ष था. इस  प्रकार  भारत  का युधिष्टर सम्वत ईसा से भी 3138वर्ष पुराना है. सीढ़ियों से कुछ नीचे उतरे तो आदि शंकराचार्य के प्राचीन शयन स्थल के दर्शन होते हैं और पास ही एक मंदिर शिव का और ठीक सामने अति सुन्दर शालिग्राम शिला से निर्मित भगवान कृष्ण की छवि, जो एक ही झलक में आपको मंत्रमुग्ध कर लेगी.

वहीँ बंगाल से आये एक कृष्ण भक्त नेत्र बंद, पूरी तन्मयता से मधुर स्वर में गा रहे थे ” हरि !  मुरली बजे, प्रेम बृन्दाबने ….”. हम वहीँ रुक गए, उनके भावपूर्ण भजन का पूरा आनंद लेने के लिए. भजन समाप्त होने पर उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे. भाव विभोर हम धीरे धीरे वहां से चले और ऊपर की ओर आकर माँ बिमला को प्रणाम किया.

इसके पश्चात वापिस हो चले पास की  मार्किट की ओर तथा वहां से पुरी यात्रा की स्मृति चिन्ह रूप कुछ संभलपुरी साड़ी आदि खरीदी.  लेकिन मन में शंकराचार्य पीठ की विशिष्टता  और ऐतिहासिक   महत्ता छाई रही.

फिर हम चले वापिस चक्रतीर्थ मार्ग पर जहाँ हमारे होटल से कोई ८०० मीटर पर है सोनार गौरांग मंदिर. विशाल क्षेत्र में यहाँ मुख्य द्वार के पास ही है मंदिर.

सामने की  ओर  धरमशाला तथा एक ओर  जगन्नाथ मंदिर. मुख़्य आकर्षण है स्वर्ण से निर्मित   भगवान कृष्ण की  मधुर  छवि.  हाथ में लम्बी बांसुरी लिए,मानो स्वयं भगवान  कृष्ण वहां विराजमान हैं. वहीँ पर  हमें  मिले  श्वेत केश , प्रशस्त मस्तक,  शांत रूप और  मुख  पर  दैविक  मुस्कान  लिए,  सम्भवत,  वहां के मुख़्य पुजारी  जो केवल लिख कर हमारी जिज्ञासा शांत कर रहे थे.उनसे ज्ञात हुआ कि मंदिर लगभग पाँच सौ  वर्ष पुराना है और यहाँ स्वयंगौरांग प्रभु ही कृष्ण रूप में विद्यमान हैं.

जहाँ एक और सोनार गौरांग प्रभु के दर्शन से मन को आनंद मिला वहीँ पूरे भवनों और प्रांगण मेंदेख रेख और दर्शनार्थियों के लिए सुविधाओं की कमी कहीं मन को कटोच भी गयी.

अब दोपहर हो चली थी तो हमने पूर्व निश्चित विचार के अनुसार डालमिया अतिथि भवन की ओर  रूख किया जो सोनार गौरांग के सामने वाली गली के पास ही है.साफ सुन्दर यात्री निवास, चारों ओर फैली  हरियाली, मखमल जैसे लॉन्स और बीचों बीच डाइनिंग हॉल.शुद्ध भोजन जिसमे सलाद, अचार, पापड़ के साथ गरमा गर्म विभिन्न प्रकार की रोटी, सुस्वादु सब्ज़ियां , दाल और अंत में स्वादिष्ट गुलाबजामुन. आपकी इच्छा अनुसार फुर्ती और आग्रह के साथ परोस रहा वेटर; बस आप खाते रहिए जितना मन करे.थकान और भरपेट भोजन के बाद अब और कहीं जाने की क्षमता नहीं थी, वापिस  अपने होटल की और  चले. आप जबभीपुरी जाएँ तो कम से कम एक बार  डालमिया अतिथि भवन के भोजन का आनंद  अवश्य लें.

अगले दिन हम निकल पड़े 35 किलोमीटर दूर कोणार्क के सूर्य मंदिर की ओर. यह विश्वप्रसिद्ध स्थल आज ध्वस्त स्थिति में भी अपनी भव्यता के कारण वर्ष भर पूरी दुनियां से पर्यटकों को अपनी ओर खींचता रहता है.

यह स्थान इतना जाना माना है और मैं भी पहले चार बार यहाँ आ  चुका हूँ.इसलिए अधिक न  लिखते हुए बस इतना ही कहूंगा की जो मंदिर ध्वस्त रूप में भी इतना विशाल और सुन्दर है, तो जब यह मूल रूप  में था तब की इसकी गरिमा का माप कर पाना आज संभव नहीं है. आज भी सदियों पहले पत्थरों में उकेरी गयी यहाँ की हर मूर्ति इतनी जीवंत है मानों अभी ही बोल देंगी.

हर मूर्ति का अपना ही भाव है, अपना ही मूड और अपनी ही कहानी है.  हर बार सोच लेता हूँ कि कभी तसल्ली से यहाँ आकर इनसे बात करूंगा, लेकिन अभी तक हो नहीं पाया. ध्वस्तता में भी इतना भव्य! इस मंदिर के उत्कर्ष के युग में जब सूर्य की पहली किरण मंदिर के  एकदम केंद्र मेंअपने ही विग्रह को छूकर प्रथम वंदना  करती होगी, तो आज  वह  नज़ारा हमारे लिए तो बस एक कल्पना मात्र ही है.

वापिसी में  पुरी  से 26  किलोमीटर पहले   मार्ग  के  बायीं  और  एक  मंदिर  के  पास  हमारी  गाड़ी  अचानक  रुक  गयी . हमारे    ड्राइवर  ने  श्रद्धापूर्ण  आग्रह से कहा,”बाबू , यह  माँ  काजानामाना रामचंडी मंदिर  है. कुछ  भी  चाहें  मांग  लीजिये.” हम  कुछ  अनिच्छा  से  मंदिर  के  प्रवेश  द्वार  की ओर गए लेकिन  जैसे  ही  माँ  के  सामने  पहुंचे  तो  मन  में  एक  अद्भुत अनुभूति औरभावना  जाग  उठी . मंदिर  के  पुजारी  ने  हमें  प्रसाद  दिया. ज्ञात  हुआ  की  लोग  यहाँ  मन्नत  मांगते  हैं  और  पूरा  होने  पर   माँ  को  मछली  का  भोग  लगते  हैं, ऐसी  परम्परा  है.

मुख्य  मंदिर   से  जुड़े  खुले  स्थान  में  दुर्गा  की  दस महाविद्याओं के सुन्दर मनमोहक रूप विराजमान  थे. विशाल प्रांगण में साधारण सा दिखने   वाला मंदिर, लेकिन अपनी  सादगी की  छाप  छोड़  देने  में  सक्षम. बस,  इसके   बाद   हम   बढ़  चले  वापिस  अपने  होटल.

और,  अगले  दिन  सुबह  सुबह  निकल  पड़े  एक  नए   पड़ाव   की  ऒर.

लेखक: एस एस शर्मा

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