डाकिए का आना
चेहरों पर खुशी छाना
अपनी अपनी चिट्ठी पूछना
और चिट्ठी पढ़ कर
अपने प्यारों को बताना
15 पैसे का पोस्टकार्ड
था बड़ा लाजवाब
मन मस्तिष्क से अपनों
तक पहुंचाता था
पुरानी यादों के किस्से
खुलवाता था
कभी दादी अलमारी से
चिट्ठी निकाल सारे
रिश्ते गिनवाती थी
कभी खुशी कभी गम में नहाती थी
वो चिट्ठियाँ जाने कहाँ खो गई
जिसमें लिखने के सलीके छुपे होते थे
अक्सर,
प्रणाम…
हम ठीक हैं . . .
आपकी कुशलता की कामना
से शुरू होते थे और
बड़ों के चरणस्पर्श पर
खत्म होते थे
और बीच में लिखी होती थी
ज़िंदगी, विछोह, विवशताएं,
मौसम, सुख दुख,
नन्हे के आने की खबर
माँ की तबीयत का दर्द
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के खराब होने की वजह
कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में,
जिसे कोई भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आँखों से आँसू बहाती
माँ की आस थी ये चिट्ठियाँ
पिता का संबल थी ये चिट्ठियाँ
बच्चों का भविष्य थी ये चिट्ठियाँ
और गाँव का गौरव थी ये चिट्ठियाँ
अब सब बदल गया है
चिट्ठी का कोई नहीं मोल
सेकंड में पहुँच जाती है मेल
न दिल धड़कता है
न प्यार उमड़ता है
न भूली बिसरी यादें
ताज़ा होती हैं
अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता है
और अक्सर ही दिल तोड़ता है
मोबाईल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ पल में डिलीट होता है
सब कुछ सिमट गया
चंद इंचों की स्क्रीन में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में
जज़्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में
और इंसान सिमट गए पैसों में
By: Kamlesh Manchanda
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