आगमन

By: Vaishnavi Pandey

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आगमन

गत रात्रि से ही निरंतर वर्षा हो रही है। धीमे-धीमे गिर रही वर्षा की बूँदों से उठती गीली मिट्टी की सौंधी महक में घुलती-मिलती, काले आकाश में बिखरे चमकीले कणों जैसे सफेद मोगरे की सुगंध से ऐसा लगता है मानों अज्ञात अनंत से वैकुण्ठ सीधा यहीं इसी आँगन में विद्यमान हो गया हो। समय-समय पर चमकती बिजली में समय-समय पर अम्मा के बालों में बिखरी चाँदनी के मध्य से उसका मुख दिखाई दे रहा है। ब्रह्ममुहूर्त का आभास होते ही चावल का घोल, रोली-चंदन आदि लेकर, आँगन की चौखट पर बैठी अम्मा सामने की भूमि पर गोलाकार आकृतियाँ बनाते हुए शुभ-अल्पना बना रही है। 

कौंधती बिजली और बादलों की गर्जन से किसी दुबकी बिल्ली-सा भयभीत वासू आँगन के खंभों से लड़ता-भिड़ता, आँखे मलते अम्मा की ओढ़नी के एक सिरे को खींचकर कहता है- “सुबह हो गई क्या अम्मा…आज सूरज निकलना क्यूँ भूल गया ?”

“अरे! यह तो भोर है! अभी बहुत समय है… जाके सो जा।”

“क्या कोई अतिथि आ रहा है?.. पिछली बार तो ऐसी रंगोली तुमने…”

चावल के घोल में डूबी अपनी उँगलियों को वासू के ठंडे गालों पर रखकर अम्मा कहती हैं- “तो तुझे पता चल ही गया… हाँ! कल मेरे नारायण आ रहे हैं।”

“नारायण? पर तुमने तो कहा था कि वैकुण्ठ मेरी पतंग की डोर की पहुंच से भी बहुत दूर है और नारायण को तो वहाँ ढेरों काम होते हैं न।”

“अरे! नारायण को थोड़े वैकुण्ठ से चलकर आना है। वह तो नीले आकाश में तैरते काले-घने मेघों पर बैठकर कभी भी आते होंगे।”

“काले-घने बादलों पर..?” आँगन की चौखट के एक कोने में बनी खिड़की के छड़ों पर झूलता पाँच वर्षीय वासू अकस्मात ही चीख उठता है-” अम्मा, मैने बिजली की चमक में नारायण को देखा…वह सचमुच आ रहे हैं।”

धीरे-धीरे सूरज की किरणे आँगन की खिड़की से भीतर आकर चावल के घोल से बनी श्वेत अल्पना के मध्य में चंदन और रोली से बने लाल बिन्दुओं पर नाच रही हैं। वासू के डर से सूरज भी यथास्थान विद्यमान है। आज शुक्ल पक्ष के दिव्य कार्तिक माह का ग्यारहवाँ दिन है..अर्थात एकादश!..आज ‘देव प्रबोधनी एकादशी’ है जब चार माह के लंबे अंतराल के पश्चात नारायण अपनी योगिक निद्रा से बाहर आते हैं और संसार में पुनः नवजीवन का संचार होता है। 

आँगन की अल्पना के मध्य में रखी श्री नारायण की काली प्रतिमा के चारों ओर मोगरे के फूल अर्पित हैं। चौखट की अल्पना पर बिखरे चावल के महीन दानों पर गौरैया की एक टोली फुदक रही है। खंभों पर आम के पल्लव की माला बांधते हुए अम्मा कोई धुन गुनगुना रही है। अपने घुँघराले गीले बालों के नीचे माथे पर चंदन टीके, सफेद कुर्ता पहनकर वासू बड़े ही उत्साह के साथ जैसे ही आँगन की चौखट पर पैर रखता है, गौरैयों की टोली चावल के दानों को चोंच में दबाकर उड़ जाती है। फिर उसी उत्साह के साथ वह पूछता हैं- “अम्मा, नारायण कब आएँगे..?” 

अम्मा ने तो वासू को उलझाने के लिए ऐसे ही बोल दिया था..कि काले मेघों पर बैठकर नारायण आ रहे हैं, अब उसे क्या ज्ञात था कि उसे नारायण अभी भी याद होंगे। काली प्रतिमा का दूध-दही से अभिषेख कर, नारायण के श्रृंगार के पश्चात पूजन आरती से सारे आँगन को धूप दिखा कर अम्मा जब चरणामृत का प्रसाद लाकर वासू को देती है तो वह पुनः कहता है- “तुमने भोर में जगकर इतनी सुंदर अल्पना बनाई है..अम्मा, नारायण कब आएंगे?” वह बार-बार आँगन के द्वार की ओर बड़ी ही अधीरता से प्रतीक्षा करता है फिर हर आते-जाते व्यक्ति में नारायण को ढूंढने लगता है। पहले तो अम्मा ने सोचा था कि यह उसकी क्षण भर की ज़िद होगी परंतु जैसे-जैसे समय निकलता है वासू और भी अधीर होने लगता है। अम्मा से नारायण और उनके वैकुण्ठ के विषय में सुनी बातों से उस बालक में नारायण से मिलने की इतनी प्रबल इच्छा होगी.. यह अम्मा को न ज्ञात था। उसके लिए नारायण कोई इच्छा-पूर्ति कल्पवृक्ष नहीं, जैसा कि हर तथाकथित समझदार व्यक्ति के लिए होते हैं जिन्हे यदि नारायण मिल भी जाए तो वह संसार के हर संभव सुख को वरदान में माँग ले। उसके लिए तो नारायण उसका विश्वास हैं।

अम्मा के पास उसके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं। वह नारायण की काली प्रतिमा को देखकर मन ही मन सोचती है कि अब यदि नारायण न आए तो वासू का विश्वास हर उस व्यक्ति कि तरह ही टूट जाएगा जिसे कण-कण में सर्वव्यापी नारायण नहीं दिखाई देते। इतने में अधीर होता वासू पुनः पूछता है- “नारायण ने तुमसे झूठ बोला था क्या, अम्मा? अब तो संध्या हो जाएगी। अम्मा, नारायण कब आएँगे?” 

“मेरे नारायण कभी झूठ नहीं बोलते!” आँगन की खिड़की से दिखाई देते पीपल के जिस वृक्ष को धरती पर नारायण का प्रत्यक्ष रूप माना जाता है, उसे दिखाकर अम्मा कहती है- “देख  वासू! नारायण कब से यहाँ तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, तू उन्हे पहचान ही नहीं पाया!” 

तो काली प्रतिमा को दिखाते हुए वासू कुछ शांत होकर प्रश्न करता है- “नारायण? वह तो ऐसे दिखते हैं न..तो फिर…”

“तो क्या..तूने उन्हे पहचानने मे इतनी देर लगा दी कि वह तुझसे क्रोधित हैं। और अब वह तभी अपने वास्तविक रूप में आएंगे जब तू कोई अन्य प्रश्न नहीं पूछेगा।”

“क्या तुम्हे नारायण सच में दिख रहे, अम्मा?..उनसे कहो न कि मैं भी उन्हें देखना चाहता हूँ।”

फिर न जाने किस प्रफुल्लता से आँखों में सैकड़ों सूर्य की चमक लिए, आँगन के बाड़े को लांघकर पीपल के वृक्ष को कस कर वह कहता है- “सच में अम्मा, यही नारायण हैं?” और पुनः अपने प्रश्न चिह्न का आभास होते ही, कि कहीं नारायण और क्रोधित न हो जाएँ इस डर से जब वह अंतत: संतुष्ट हो जाता है कि वह पीपल ही नारायण हैं तो उस वृक्ष की पत्तियाँ उसे सहलाकर वास्तव में नारायण के स्पर्श का आभास कराती हैं। वास्तव में, किसे नारायण दृश्यमान थे- यह प्रश्न जटिल था। इतनी सरलता से उसके बात स्वीकार लेने कि अम्मा को ज़रा भी उम्मीद न थी परंतु अब हर रोज़ वासू सुबह-शाम नारायण से बातें करता, पीपल के वृक्ष को सींचकर नारायण को स्नान करवाता, स्वयं के भोजन से पहले उन्हे भोग लगाता। संभवतः उसे विश्वास था कि एक रोज़ नारायण पुनः उस काली प्रतिमा जैसे ही अपने वास्तविक रूप में आ जाएँगे। 

फिर एक दिन रात्रि के प्रकाश को आकाश में तैरते काले-घने मेघों ने घेर लिया। वायु कि गति ने आँगन के दीपक को फड़फड़ाने तक का भी मौका न दिया। कौंधती बिजली की चमक में वासू के चहरे पर उभरता नीलापन दिखाई देने लगा। उसका शरीर शिथिल हो गया और श्वास ने रेल की गति पकड़ ली। आँगन में रखी खाट पर लेटे वासू के माथे पर हाथ फेरती अम्मा नारायण की काली प्रतिमा से प्रार्थना करती। अकस्मात् ही आँधी की गति तीव्र हो गई और चौखट की खिड़की से किसी बहुप्रतीक्षित अतिथि कि भाँति पीपल के वृक्ष के पत्तों ने अम्मा के आँगन में अपना स्थान बना लिया। और तभी वासू चीख उठा… देखो अम्मा, आज सूरज निकल गया.. देखो! नारायण अपने साथ सैकड़ों सूर्य ला रहे। अम्मा अचंभित रह गई। वह अपने चारों ओर नारायण को ढूँढने लगी। किसे नारायण दृश्यमान थे- यह प्रश्न पुनः जटिल था।

“अरे! यह तो सच में तुम्हारी काली प्रतिमा जैसे ही हैं, मोगरे की वही माला.. वही तिलक!  अम्मा, नारायण मुझसे अब क्रोधित नहीं हैं।” मिट्टी की सौंधी महक में मोगरे की सुगंध पुनः घुलने लगी। आँगन में बिखरे पीपल के पत्ते वायु की गति पर थिरकने लगे। आँगन में गिरते आसमानी मोतियों से वातावरण संगीतमय हो गया। नारायण के सैकड़ो सूर्य की चमक में वासू का चहरा पुनः चमक गया और वह अंततः बोल उठा- “देखो अम्मा, नारायण आ ही गए।”

By: Vaishnavi Pandey

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