मैत्रेयायामी

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Photo : SU Walls
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                           हवाओं की गति आज कुछ मीठी मीठी सी लग रही है।और हां उनमे कुछ सुगंध सी  भी घुल गयी है। गुलाबी सी ठंड वातावरण मे तैर रही है। रोचन जी को यह माहौल कुछ जाना पहचाना लग रहा है।
    “अरे हां, ऐसा ही कुछ तब लगा था जब मुझे सर्वदायनी नदी के किनारे रहने के संकेत मिले थे।”
       सोचकर कुछ रोमांचित हो गये रोचन जी।
 क्या आज फिर कोई नया आदेश ……..!
रोचन जी पिछले लगभग पांच वर्षों से यहाँ इस सर्वदायनी नदी के किनारे रह रहे हैं। इस नदी को स्थानीय निवासी सर्वदा के नाम से पुकारते हैं। यह भी अन्य भारतीय नदियों की तरह पूजनीय मानी जाती है।
          इस नदी के साथ किवदंतियाँ हैं, जनश्रुतियां हैं और लोगों के अपने अपने अनुभव भी।
            ऐसी ही किसी एक शाम को किसी संकेत ने रोचन जी के सीधे – सीधे जीवन मार्ग को हल्का सा मोड़ दिया था।
        और वहाँ अतिचेतन वृत समूह किसी निर्धारण में लगा है, किसी महत्वपूर्ण निर्धारण में। चेतना उन नियमों से संचालित नही होती जिन से पदार्थ या पार्थिव चेतनायें संचालित होती हैं । चेतना ,समय और काल के आयामो में एक साथ और उनसे परे भी उपस्थित रहती हैं। अशरीरी और कुछ शरीरधारी उन्नत चेतनाओं का यह समूह बहुत समय से धरा मे कुछ सकारात्मक परिवर्तन के प्रयास में हैं,और इस कार्य के लिये उन्हें जरूरत है किसी ऐसे व्यक्ति की जिसमें इस सत्परिवर्तन को करने की इच्छा के साथ पात्रता भी हो।
         उस शाम सूर्यास्त का समय था 6:13 । इसलिये अग्निहोत्र का समय भी 6:13 हुआ। रोचन जी ने प्रतिदिन की भाँति अग्निहोत्र पात्र में गाय के गोबर के कंडे 6 बजे से सुलगा  लिये थे।
          अग्निहोत्र की इस प्रक्रिया मे पात्र तांबे का उपयोग मे लाया जाता है और इसका आकार पिरामिड की तरह का होता है।और माप एकदम निर्धारित – ऊपर 14.5×14.5  से मी
तला 5.25× 5.25 से मी तथा ऊंचाई 6.5 से मी न इससे छोटा न बड़ा । करने का समय सूर्योदय और सूर्यास्त।ठीक सूर्योदय और सूर्यास्त, न एक मिनट पहले न एक मिनट बाद। और आहूति के लिये गाय के घी मिले अक्षत ( बिना टूटे चांवल), केवल गाय का घी कुछ और नहीं। दो चुटकी चावल में कुछ बूँद गाय का घी मिला कर ठीक समय पर दो आहूतियाँ देनी होती हैं। मंत्र भी सरल से हैं।
पहला :  अग्नये स्वाहा ,अग्नये  इदं न मम् !
दूसरा :  प्रजापतये स्वाहा,प्रजापतये इदं न मम् !
         रोचन जी इस प्रक्रिया को नियमित करते हैं और कब से कर रहे हैं, उन्हें भी याद नहीं। कुल दस मिनट भी नही लगते आहूति देने में। हां ,इसके बाद जो वातावरण निर्मित होता है उसमे रोचन जी कभी घंटे, कभी आधे घंटे बैठे रहते हैं।
       उस शाम भी  अग्निहोत्र की प्रभावना को अनुभव करते रोचन जी की आंखे स्वतः ही मुँद गयी थीं,सांसे धीमी चलने लगीं और सम हो गयीं ,पात्र मे प्रज्वलित अग्नि ज्वाला भी “भृगु” “भृगु” के से स्वर उच्चारणों के साथ शांत हो गयी, चावल और घी के जलने की एक खुशबू तैरने लगी,और कुछ धुआं – धुआं सा कमरे मे फैल गया। रोचन जी चेतना के किसी और ही आयाम मे पहुंच गये,यहां कुछ अनजाने से पर स्पष्ट दृश्य दिख रहे थे। मुख्य सड़क से निकलती हुयी एक पतली सी सड़क और फिर इससे निकलती एक पगडंडी ,जो कुछ घूम कर खेतों के बीच सरकती है और पहुंचती है एक पक्के मकान मे जिसके सामने के हिस्से मे टीन की छत सरीखी है इस बरामदे सरीखे स्थान से आगे जाने पर बडे से हाल मे जाने के लिये कांच का दरवाजा है, हॉल मे एक तस्वीर लटक रही है। लम्बी दाड़ी और भेदती आंखो बाला एक अस्पष्ट सा चेहरा उसमे नजर आ रहा है। इस हॉल के पीछे ध्यान की मुद्रा मे एक मूर्ति रखी है, स्पष्ट नही हो रहा कि बुद्ध हैं कि महावीर या फिर शंकर। ये सारा कुछ किसी खेत के बीच मे लग रहा है।
           इसके साथ ही कुछ घुलमिल गया था, एक और पुराना सा कमरा जिसके नीचे एक तलघर सा था और उसमे ध्यान करता एक तेजस्वी, लम्बे बाल, ऊंचा माथा, मूंछे और हंसती सी आंखे।
           दोनो दृश्यावली घुलीमिली सी ,अनजानी असम्बद्ध पर स्पष्ट थीं। रोचन जी जब अग्निहोत्र से उठ भी गये तब भी यह सब उनके मानस पटल पर स्थिर सा हो गया।
         और वहां अतिचेतन वृत्त समूह के अध्यक्ष महावतार जी ने विशेष सभा बुलाई है, उसमे विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के प्रभारी सभी को अपने कार्यों की प्रगति से अवगत करायेंगे । सत्यानुकूल सूक्ष्म वातावरण निर्माण का कार्य वीतराग जी और उनका दल पिछले कई सौ वर्षों से कर रहा है।इस कार्य मे वांछित  सफलता भी मिली है। पर वास्तविक धरातल पर सत्य का अवतरण अभी भी असंभव बना हुआ है। समस्या वही है पात्र व्यक्ति की अनुपलब्धता। इस कार्य का उत्तरदायित्व समर्पण जी के पास है। उन्हे ही इस सूक्ष्म सत् वातावरण का लाभ निचले तल तक पहुंचा कर वास्तविक भावनाशील व्यक्तियों को तैयार करना है ,जो कालांतर में सत्य के संवाहक बनेंगे।धरती पर ऐसे व्यक्तियों को कई जन्मों की मेहनत के बाद ही तैयार किया जा पाता है। वो भी तब, जब वे इन सूक्ष्म संकेतों को समझ सकें।
       समर्पण जी ने  कुछ आशा दिखायी है।और भेजे जा रहे संदेशों के तरीको पर सभा की सहमति चाही है । महावतार जी कुछ ज्यादा आशान्वित तो नहीं हैं पर कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। अतःतय हुआ है कि सत्यावतरण की सूक्ष्म भाव भूमि तैयार करने के प्रयास यथावत चलते रहें और वास्तविक धरातल पर कार्य कर रहे संवेदनशील व्यक्तियों, व्यक्ति समूहों को अधिदैविक सहायता भेजी जाती रहे।

             

अग्निहोत्र बाली घटना को लगभग दस माह व्यतीत हो चुके हैं।

“अब आराम से खाली रह सकेंगे,कुछ मन का काम भी कर पायेंगे।”  अपने कार्यालय मे बैठे रोचन जी सोच रहे थे।क्योंकि आज अचानक उनका स्थानान्तरण आदेश आ गया है। अब पदस्थी एक छोटे से केन्द्र मे कर दी गयी है ,सर्वदा नदी के किनारे । वहां केवल नदी के जल स्तर की ही निगरानी करनी है। जबकी यहां पर वो एक बड़ी जलविद्युत परियोजना के प्रभारी हैं।आज जल्दी ही घर निकल लिये हैं,क्योंकि ट्रांसफर का हल्ला होते ही सहकर्मी आ डटेंगे।

हां हां न न होते अंततः वो आ ही गये थे महती।”महती” हां यही नाम है रोचन जी की नयी पदस्थापना का ,छोटा सा सुन्दर सा कस्बा। परिवार की इच्छा ,मित्रों की मनुहार,सहकर्मियों की राय सब को अनसुना कर अंततः आ ही गये थे पांच साल पहले रोचन जी । 

और आज फिर वही वातावरण बनता सा लग रहा है।

पत्नी और बच्चे इस छोटी जगह में नही आना चाहते थे ,बड़ा सा सरकारी घर नौकर चाकर छोड़ कर इस छोटी सी जगह मे ,छोटे से घर मे दम घुटता था परिवारजनों का, पर रोचन जी भी विचित्र ही थे, आ गये तो आ ही गये।यहां आते ही पहले अग्निहोत्र अनियमित हुआ फिर धीरे से बंद ।दो तीन महीने परिवार ने अकेले ही बिताये।ऑफिस मे तो काम न के बराबर ही रहता था सो रोचन जी ने एकांत का फायदा उठा कर मौन रहना,कहानी-कविता लिखना शुरू कर दिया था। संवेदनशील तो वे थे ही और खाली समय भी था, तो समाज की विसंगतियों ने उन्हे परेशान करना शुरू कर दिया । विचारशील होने की यही परेशानी भी है। भ्रष्टाचार,बेरोजगारी,अन्याय,असमता आदि विषयों पर कभी लेख, कभी कहानी और कभी कवितायें बनने लगीं ।  छपने-छपाने भी लगी । 

          एक बहुत पुराने परिचित इसी शहर मे हों ऐसी संभावना थी ।तीन महीने गुजर चुके थे अचानक ही एक दिन उन्हे खोजने का विचार आया और प्रयास शुरू कर दिया। लगभग बीस साल पहले की एक मुलाकात ही परिचय के नाम पर लिखी जा सकती थी, बस उसी आधार पर खोजबीन कर रहे थे, रोचन महाशय। पर उन्होनें भी खोज कर ही दम लिया।आश्चर्य तो तब हुआ जब सामने वाले मित्र को भी उस एक मुलाकात का स्मरण था।फिर क्या मित्र मंडली बन ही गयी ।

बैठकें होने लगीं कभी घरों मे कभी मित्र के  फॉर्म हाउस पर।

जिस दिन दोपहर मित्र से मिलना हुआ उसी  शाम उनके फॉर्म हाउस जा पहुंचे। पहुंचते ही जान गये उस अग्निहोत्र दर्शन का राज।

और हां,जब महति मे आ कर ज्वाईन किया और किराये का मकान ढूंढ़ने अकेले ही निकल पड़े थे रिक्शे मे बैठ कर ,तब अनायास ही रिक्शे वाले से अग्निहोत्र मे दिखे तलघर वाले स्ट्रक्चर का हुलिया बता कर वहां चलने को कहने लगे ,और महान आश्चर्य तो तब हुआ था जब रिक्शे वाले ने ले जाकर हू ब हू वैसी ही जगह पर रिक्शा खड़ा कर दिया था।

खैर अब तो अग्निहोत्र बंद था।

यहां रोचन जी ने व्यवस्था परिवर्तन पर स्थानीय बुद्धिजीवियों की बैठकें करना प्रारंभ कर दिया था। अच्छी मानसिक कसरत हो जाती थी। लोग उनके व्यवस्था परिवर्तन सम्बन्धी  प्रस्तावों और विचारों को अच्छा तो बताते पर अव्यावहारिक मानते थे,कुछ का मानना होता कि ये समय से पूर्व के विचार हैं,कुछ को हास्यास्पद नजर आते पर विचार गोष्ठियां चलती रहती थीं।

         और वहां अतिचेतन वृत समूह की दृष्टि  पृथ्वी   पर उपस्थित एक उच्चतम शिखर चेतना के आसपास विकसित होती देवमयी सभ्यता पर केन्द्रित है। मनुष्यता के विकास की अन्तिम परिणति के रूप मे ही ये देव सभ्यता विकसित होती है।सूक्ष्म जगत की दिव्य चेतनाओं और  कुछ शरीरी उन्नत चेतनाओं के प्रयासों से निर्मित इस अतिचेतन वृत्त समूह का मुख्य उद्देश्य भी इसी देवसभ्यता का प्रतिस्थापन है।पृथ्वी पर होने वाले किसी भी सत् प्रयास पर इनकी न केवल दृष्टि होती है वरन् दिशा सही होने पर सहयोग और मार्गदर्शन भी देता है यह समूह । और हां, सकारात्मक ,सत्योन्मुख व्यक्तियों को प्रेरित कर ऐसे अभियानों से जोड़ना भी इनका एक प्रमुख कार्य होता है।

रोचन जी सर्वदा तट पर बैठे हैं , बस यूं ही बैठे हैं। सूरज डूब रहा है नदी का बहाव शांत सम है । हवा धीमे-धीमे वह रही है। हल्की ठंड पडने लगी पर इतनी भी नहीं कि असहनीय हो। रोचन जी नदी के बहने की धीमी आवाज मे डूबते जा रहे हैं। नदी की हल्की-हल्की “कल”-“कल” कुछ स्पष्ट से शब्दों मे रूपांतरित हो रही है।

प्रेम कुछ पाने का भाव नहीं बल्कि किसी का हो जाने का भाव ही प्रेम है।

किसी श्रेष्ठ में निज अस्तित्व का विलय ही प्रेम है।

सिंधु में बिंदु का विलय ही प्रेम है ।

 महान् सामूहिक उद्देश्य में अपनी निजी व्यक्तिगत इच्छाओं का विलय ही दिव्य प्रेम है। 

संवेदना, साहस, श्रद्धा, सद्वृत्ति ही प्रेम है।

         अचानक ऐसा कुछ सुनकर भौंचक्के हैं रोचन जी ।बिल्कुल स्पष्ट आवाज थी  ! माथे पर कुछ पसीने की बूंदें उभर आयीं थीं।कोई आस-पास नहीं फिर ये आवाज कहां से ? 

स्पष्ट खनकती हुयी, सीधे दिल में उतर गयी थी।

खैर ! शब्दों को व्याख्यायित करते घर आ गये रोचन जी।प्रेम की एक नई ही परिभाषा मिल गयी, आज तो ।

ह्रदय मे एक मीठा सा अहसास जगने लगा था। कुछ अनजानी सी खुशियां छाने लगी थीं। बिना बात ही मन का मयूरा नाच उठा था।

“महान सामुदायिक उद्देश्य मे निजी इच्छा का विलीनीकरण” 

बात बार-बार गूंजती थी।

अभी तक तो प्रेम कुछ और ही जानते मानते रहे।

और करते रहे कुछ साधनायें,योग,अग्निहोत्र,ध्यान ।पर हां ,मन कही न लगा था रोचन जी का । 

“ह्रदय में प्रेम का विकास मनुष्य जीवन की वह परम उपलब्धि है, जो सृष्टिक्रम के लाखो जन्मों की प्यास को तृप्त करती है । 

वास्तविक स्वरुप को प्राप्त किये बिना कोई भी इस जगत में सुखी और शांत नहीं हो सकता है । 

प्रेम ही वह मुख्य द्वार है जो मनुष्य को उसका वास्तविक स्वरुप प्रदान करता है ।

“तदपश्यत् तदभवत् तदासीत् “….. प्रेम के पूर्णता के बिना चरितार्थ नहीं हो सकता ।।”

अचानक ही वही खनकती आवाज फिर गूंजने लगी थी।

रोचन जी अभी तक स्वयं को ही जानने को सब कुछ मान रहे थे। उसी के लिये जो कुछ जहां जैसा पढा सुना किया करते थे पर परिणाम वही शून्य था।

आज फिर प्रश्नों का चक्रव्यूह खड़ा हो गया ।

” तदपश्यत् तदभवत् तदासीत्” प्रेम की पूर्णता के बिना चरितार्थ नही हो सकता ?

और प्रेम 

महान सामुदायिक उद्देश्य मे निजी इच्छाओं का समर्पण !

मतलब महान् सामुदायिक उद्देश्य ही इस जीवन का उदेश्य ,सच्चा उद्देश्य ,वास्तविक उद्देश्य हो सकता है,होना चाहिये।

                           और वहां अतिचेतन वृत्त समूह सत् प्रेरणा की सूक्ष्म भाव भूमि निर्माण प्रक्रिया से संतुष्ट है।और यथार्थ धरातल पर हो रहे प्रयासों के प्रति आशान्वित होता जा रहा है।

रोचन जी को अब अक्सर ही यह अनजानी सी पहचानी ,खनकती आवाज सुनाई पड़ने लगी है। दिन व दिन स्पष्ट होती जा रही है। आज फिर 

प्रेम जब पूर्णतः खिल जाता है, तब मनुष्य को ही यह देवता बना देता है।

कभी स्वयं अनुभव करके देखो, प्रेम दिव्य है।

जिन क्षणों में तुम प्रेमपूर्ण होते हो, उन क्षणों में तुम दिव्य होते हो।

प्रेम निश्चय ही रचनात्मक है, सृजनात्मक है।

प्रेम के द्वारा ही सौंदर्य और माधुर्य पनपता है।

प्रेम जीवन का प्रेरक है।

प्रेम में विनाश नहीं विकास है।

प्रेम संयोजक है, एक से दूसरे को जोड़ता है, एक को दूसरे के समीप लाता है।

सुनते हैं,गुनते हैं,किसी महान् समष्टिगत उद्देश्य से जुडना भी चाहते हैं पर जुडें किससे समझ नही आता।समय गुजरता जा रहा था। मित्र मंडली की बैठकें हो रहीं थी।अब परिवार भी रमता जा रहा था।कुछ परिवारों के साथ  उठना, बैठना, हंसना, बोलना बदस्तूर जारी था। पर रोचन जी गहरे में कहीं खाली थे, बिल्कुल खाली,उद्देश्य की तलाश में निरुद्देश्य।

उन दिनो एक पत्रिका निकलती थी ” दिव्य जीवन” अपनी तरह की अनोखी पत्रिका। रोचन जी उससे भी संकेत लेते थे ।एक किसी अंक मे बुन्देलखण्ड के किसी एक ऐसे दुर्गम इलाके पर पुरातात्विक और विज्ञान सम्मत आलेख चित्रों सहित आया था जिसमें वहां किसी तीस हजार साल पुरानी उन्नत सभ्यता के अवशेष मिले थे।रोचन जी को रिपोर्ट भी जानी पहचानी सी लगी और उसके साथ के चित्र कुछ-कुछ बोलते से।

कुछ माह और बीते ।

हवाओं की गति आज फिर कुछ मीठी-मीठी सी लग रही है।और हां उनमे कुछ सुगंध सी – भी घुल गयी है। गुलाबी सी ठंड फिर वातावरण में तैर रही है। रोचन जी को यह माहौल कुछ जाना पहचाना लग रहा है।

फिर एक आवाज गूंज गयी है पर कुछ अलग सी।

                               “जब आप मरुस्थल में हों और प्यास लगे तो समझिये चलने का क्षण आ गया । जब बीज गलत मिट्टी में हो तो कोई दूसरा बगीचा ढूंढना चाहिये जहां उसका पोषण और विकास हो।

आपके लिये जो बगीचा है वो ऐसे लोगों का समूह है जो अपनी आध्यात्मिक एकता की सहयात्रा मे संलग्न हैं।उच्चतर संभावनायें समूह में ही फलित होती हैं,अकेले मे नहीं ।संभव है आपको ऐसा समूह मिल जाये और उन मित्रों के साथ मिलकर आप ऐसे उपवन में कार्य करें, जहां सबकी प्यास बुझ सकती है।”

रोचन जी ने घर पहुंचते ही सहमति पत्र निकाल लिया है उस पर अपने हस्ताक्षर अंकित कर दिये हैं। लगभग एक माह से ये उनकी टेबिल पर पड़ा है। ,शासन ने उनसे बुन्देलखण्ड के सूखाग्रस्त इलाकों मे भूजल स्तर सुधार के पैकेज कार्यक्रम मे सहभागी होने पर सहमति चाही है।अभी तक रोचन जी वहां जाने के इच्छुक नही थे ,एक तो यहां सपरिवार मजे मे हैं, दूसरा वहां पत्थरों मे धूल खाना कौन चाहेगा।

पर अब निर्णय जाने का ।

15 दिन भी नही हुए कि जाने के लिये शासन का आदेश आ गया है  ।फिर वही परिवार जनों की अनिच्छा ,वही मित्रों का आग्रह,वही सहकर्मियों का अनुरोध पर फिर वही रोचन जी का निर्णय , जाने का।

             नये काम मे ज्वाईन कर लिया है । पहला दौरा बनाया है उसी क्षेत्र मे जिसकी रिपोर्ट  “दिव्य जीवन” मे छपी थी। दुरूह कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाती जीप दौड़ रही है। कुछ स्थानों का सर्वे कर लिया है, पानी जमीन में बहुत नीचे है सारा इलाका सूखा और पथरीला है ।खेती केवल वर्षा पर निर्भर है जो पिछले पांच वर्षों मे नही के बराबर हुयी है। यहां बस तीन ही बातें नजर आती हैं -आकाल, भुखमरी और आत्महत्या।

                       बातचीत से पता चला कि पास ही कोई आश्रम भी है जिसमे कुछ पढ़े लिखे लोग रहते हैं उन्होने खुद ही तीन चार तालाब बना डाले हैं बंजर भूमि भी उपजाऊ बना डाली है और हां ये इंजीनियर, डाक्टर लड़के गांव के बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं।

             रोचन जी ने ड्राईवर को आश्रम की ओर चलने को कहा है। शाम होने को है ,सूरज डूबने को है।आश्रम के मुख्य द्वार पर जीप खड़ी है । अंदर युवा मैरून रंग के कपडे पहने विभिन्न कार्यों मे लगे हैं।

                रोचन जी को अंदर ले जाया जा रहा है। एक पतली-दुबली सी काया ऑरेंज रंग का कुर्ता और लुंगी पहने पेड़ों की बेतरतीब डालियों को संवारने मे लगी है।रोचन जी उनके पास तक पहुंच गये हैं ,आहट सुन कर वो पलटे हैं, और मधुर मुस्कान के साथ कहा “आईये,स्वागत है”

रोचन जी ने आवाज पहचान ली है । 

वही जानी पहचानी खनकदार।रोचन जी चरणों मे झुक गये हैं।

                और वहां अतिचेतन वृत्त समूह की सभा मे आज प्रसन्नता है,कि उसने धरती पर कार्य कर रही उच्चतम शिखर चेतना के धर्म स्थापना कार्य में कुछ सहयोग किया है।

लेखक परिचिति : मधुर मोहन मिश्र,सहायक प्राध्‍यापक ,शासकीय परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केन्‍द्र, ज्ञानोदय विद्यालय परिसर रीवा. मधुर मोहन मिश्र श्री अरविंद ,थियोसोफी  दर्शन के वैज्ञानिक अध्येता। दर्शन ,विज्ञान,रहस्य,शिक्षा, साहित्य,पर्यावरण ,साहित्य मे सतत लेखन । जन सत्ता,दैनिक भास्कर,स्रोत, वैज्ञानिक,नईदुनिया,अविष्कार,विज्ञान प्रगति,साईंस इन्डिया,मे नियमित प्रकाशन। न्‍याय धर्मसभा से जुड़े हैं, रीवा में निवासरत हैं



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