सर्वशक्तिमान परम पिता परमात्मा पर एक नास्तिक का विमर्श

By: Harsh Wardhan Vyas

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नास्तिक
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सभी कहते हैं कि नास्तिक वह है जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता लेकिन स्वामी विवेकानंद ने परिभाषा दी थी कि नास्तिक वह नहीं है जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता बल्कि जिसको अपने ऊपर विश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। इस आलेख का प्रारंभ भगवान श्रीकृष्ण के सर्वग्राह्य उपदेश गीता के अठारहवें अध्याय के 66 वें श्लोक से करते हैं:

       सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकम् शरणं वृज। अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षिषयामि मा शुच:॥ अर्थात समस्त धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हारे समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा , डरो मत.

ईश्वरीय सत्ता क्या है? यह अपने आप में एक बहुत बड़ा प्रश्न है लेकिन दुनिया इस सत्ता पर विश्वास करती है, खास तौर पर तब जब किसी परेशानी या मुसीबत में होती है। जब भी कोई व्रत होता है तो मैं इसलिए नहीं करता कि परिवार के किसी सदस्य की आयु बढ़ जाएगी अथवा धन दौलत मिल जाएगी। मुझे ऐसा लगता है कि हमारे ऊपर कोई है, जो हमारे एक-एक पल का, एक-एक गतिविधि का हिसाब रखता है; जिस पर हमें विश्वास करना चाहिए। इसके साथ-साथ जो सबका हरेक हिसाब रखता है वो इंसानों की गलतियों  की ओर भी संकेत करता है जिसे हम न समझ पाए तो उसको इंसान की कमजोरी ही समझा जाना चाहिए ।  

ज़िंदगी दिन गिनने के लिए नहीं होती, हम कब मरेंगे और कितना जियेंगे। ज़िंदगी जीने के लिए होती है। चाहे छोटी हो या बड़ी, रहस्यमयी तो वह होती है। किसी ने कहा भी है, ज़िंदगी का सफर है ये कैसा सफर कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं। इस सबके बावजूद एक जीवन सबको मिलता इसलिए है कि हम उसके रहस्यों को सुलझा सकें या कम से कम सुलझाने की कोशिश तो कर सकें। शास्त्र कुछ भी कहें , कहते रहें। उनको मानव एवं भगवान के बीच आने का कोई अधिकार नहीं है। भगवान और भक्त का रिश्ता उन दोनों के बीच का निजी रिश्ता है जिसमें किसी को भी बीच में आने का कोई अधिकार नहीं है; न तो धर्मशास्त्रों और धर्मग्रंथों को, न पूजा-पाठ को, न ही पंडित-पुजारियों को और न ही किसी कर्म कांड को।

       ज़िंदगी के छोटी/बड़ी होने का बावजूद जब हम किसी को चाहते हैं तो लालची हो जाते है कि जब तक मैं जिंदा रहूं, यह भी मेरे साथ जीता रहे। न जाने कितने लोग पूजा-पाठ, व्रत आदि अपने भले के लिए एवं स्वार्थ सिद्धि के लिए करते हैं । न जाने कितनी ही स्त्रियों के साथ ऐसा हुआ है जिन्होंने व्रत किये हैं, जो हमारे आसपास होंगी जो ढोंग नहीं असल विधि विधान से पूजा करती होंगी। पूजा में कोई चूक न करनेवाली उनमें से कइयों के बच्चे नहीं रहे या वे आजीवन विधवा रहीं। सत्यवान के प्राण बचाने वाली दूसरी सावित्री को मैंने आजतक नहीं देखा। न ही मैं मनुष्यों द्वारा गढ़ी हुई किवदंतियों पर विश्वास ही करता हूँ जिसको मैंने स्वयं न देखा हो। उसे मेरा मन स्वीकार ही नहीं करना चाहता। न ही ऐसा कोई प्रेमी देखा है जो अपनी सावित्री की जान छुड़ा लाया हो।

प्रेम तो प्रेम है उसमें लिंग-भेद कैसा? लोगों की इस धारणा का कोई आधार नहीं है कि पूजा-पाठ व ईश आराधना हमारे जीवन के सारे कष्टों का निवारण कर देंगे। फिर भी हम नकार नहीं सकते कि ईश्वर है ही नहीं। ज़िंदगी में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जिससे हमें ईश्वरीय सत्ता का भान होता है। वह भी इसलिए होता है क्योंकि ईश्वर चाहता है कि आप उस पर विश्वास करें । ईश्वर आपको अंधविश्वासी नहीं बनाता बल्कि स्वयं पर विश्वास स्थापित करने में मदद करता है।

       भगवान को मैंने तो क्या किसी ने भी नहीं देखा है फिर भी मेरा विश्वास है कि वो कहीं न कहीं जरूर है क्योंकि चराचर के जीवन चल रहे हैं, पक्षी उड़ रहे हैं, जानवर चल रहे हैं, हवाएं चल रही हैं, चाँद अपने समय पर आ रहा है, सूरज समयानुसार हर रोज रोशनी दे रहा है। कई सालों से जमीन अपनी जगह घूम रही है; घास ऊग रही है, जानवरों से लेकर इंसानों तक सबके पेट भर रहे हैं। यह सब ईश्वर के कहीं न कहीं होने के प्रमाण हैं। यह  ईश्वर ही है जिसने इंसानों को प्यार करना सिखाया। उसी ने अपने से बड़ों का आदर करना सिखलाया। उसी ने हर तरह की खुशियां दी, मैं जिसके लिए शुक्रगुजार एवं अहसानमंद हूँ। इंसान भी तो आखिर ईश्वर ने ही बनाये उसमें भावनाएं भी भरी, उसे मन और दिमाग भी दिया, यह सब उसी का एक चमत्कार ही है।

किन्तु आज इंसान ईश्वर की याद को, उसके अहसान को भूल गुमराह हो गया है। ईश्वर ममता का सागर है, जिसके बाद कोई नहीं, इसलिए  कभी-कभी मेरा मन यह मानने को विवश हो जाता है कि हे ईश्वर! इंसान को उसके गुनाहों के लिए माफ कर दें। मरने के बाद मैं या मेरी आत्मा कहाँ जाएगी कुछ पता नहीं । लेकिन उस दिन मैं अपने आपको धन्य समझूँगा जिस दिन मेरा साक्षात्कार ईश्वर से होगा। मेरी प्रार्थना है कि देश के काम आनेवालों को अच्छी सेहत दे। देशवासियों को परेशानियों से मुक्त कर उन्हें बुरे कर्मों से बचाकर नेक राह दिखा। मानव समाज के लोग जो अंधविश्वास में जी रहे हैं, उनकी आँखें खोल।

       हरेक मानव के जीवन में दुख और कष्ट एवं सुख और कष्ट निवारण आते जाते रहते हैं। जिसके जीवन में होते हैं, उसी मानव को उससे उबरने का तरीका, उपाय ढूँढना होता है। यह एक निश्चित समय-चक्र के आधीन आते और चले जाते हैं। मनुष्य की एक किस्म होती है जो ऊपर ही ऊपर सबके साथ घुले होने की बात कहती है पर भीतर ही भीतर सर्वथा अलग होती है ऐसे लोग अपने दुख और कष्ट को ‘मेरा दुख-मेरा कष्ट’ बताकर अपनी स्वयं की श्रेष्ठता के भ्रम को यहाँ भी पुख्ता करते हैं। जब दुख और कष्ट केवल इनका ही है तब उसके निराकरण हेतु किसी के पास यहाँ तक ईश्वर के पास भी क्यों जाएंगे? अथवा किसी को भी अपने पास क्यों आने देंगे। दुख मुझमें ही रहा आए यह बात अलग है किन्तु दुख केवल मेरा ही है ये बात बिल्कुल भिन्न है। मैं व मेरा के मारे ये लोग यहाँ भी तमाम फलों के अतिरिक्त भयंकर अशान्ति एवं अवसाद झेलते हैं।

जबकि अवसादग्रस्त होना मानव व मानवता की हार होती है, जिस पर ध्यान देने कोई आवश्यकता नहीं है। इसी जगह सकारात्मक सोच काम आती है। इसी बारे में एक बात का उल्लेख अवश्य करना चाहता हूँ कि अपने दुख को मान्यता देना , आत्म-दया है; जबकि दूसरों के दुख को मान्यता देना उसके प्रति सहानुभूति है। आत्मदया और सहानुभूति दोनों आपके भीतर के मनुष्य व मानवता का विकास प्रदर्शित करती हैं। आत्मदया स्वार्थ, धोखा, कपट और दयनीय जीवन की ओर ले जा सकती है जबकि सहानुभूति पर दुख कातरता एवं लोक कल्याण की ओर ले जाती है। तो क्यों न हम परोपकार को अपना कर लोक कल्याण की भावना के साथ श्रेष्ठतर जीवन यापन करें। गोस्वामी तुलसीदास जी ने पर दुख कातरता की प्रशंसा करते हुए मानस में कहा है- “परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई”॥     

       ऐसा नहीं है कि मनुष्यों को अपने दुखों के साथ दूसरों के दुख का भान नहीं होता। लेकिन अधिकतर मानव इन समस्त दुखों के अहसास के साथ रात को नींद में चले जाते हैं कि ज़िंदगी बहुत छोटी है, क्या करना है बेकार का तनाव लेकर और रिश्तों में खटास लाकर? समीप ही है जाने का समय क्योंकि वे मानव जीवन को बहुत छोटा मानते हैं; किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि सभी को जीवन एक ही मिला है। इस संकल्प के साथ उन्हें बहुत शांति मिलती है और वे ऐसे सो जाते हैं जैसे इस संसार से चले जाने की दूरी बढ़ा ली हो। सुबह उठते ही रात के विचार उनके पास से निकलकर स्वयमेव मानों ‘नो मैं’स लैंड’ में चले जाता है।

फिर मन धीरे-धीरे खिसकता हुआ स्वयं के हजारों साल जीवित होने की निश्चिंतता में प्रविष्ट हो जाता है। सूरज में यही खामी है। ऊगने के साथ ऊर्जा भरता है और जीने के उत्साह के साथ नश्वरता के एहसास को भी धूमिल कर देता है। अब हजारों साल जीना है तब तनाव और रिश्तों में खटास की परवाह क्यों? हजारों साल जीने के लिए केवल मिठास से ही काम नहीं बनने वाला। केवल मिठास ज़िंदगी में एकरसता घोल देता है, तनाव एवं खटास ही उस एकरसता को समाप्त करेंगे। एकरसता की समाप्ति की यह थ्योरी जम जाती है जिसके परिणाम स्वरूप वे सूरज से प्राप्त ऊर्जा के प्रवाह मे बह निकलते हैं। इस अहसास में इंसान को पक्का विश्वास हो जाता है कि मेरा दुख, मेरी तकलीफ, मेरी समस्या सबमें बड़ी है, जिसे मुझे ही हल करना है। फलतः वह दूसरों की समस्या, तकलीफ से अपने आप को अलग कर लेता है; और परदुख कातरता से अपने आप को अलग कर लेता है ।

              क्या आप इस बात पर भरोसा कर पाएंगे कि ईश्वर सम्पूर्ण कर्मकांड के साथ पूजन करने वालों को स्वर्ग देगा; ऐसा न करने वालों को नरक? जब हम यह कहते हैं कि ईश्वर सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा है तो उसको अपनी ही दो प्रकार की औलादों में फ़र्क करने का कोई अधिकार क्यों होना चाहिए। ईश्वर उनसे भी खुश रहते होंगे जो न पूजा विधि ही नहीं जानते न कोई पूजा शुद्ध तरीके से कर पाते हैं। खुद भगवान ने कहा है – भावना बड़ी चीज़ है।

यदि मेरा नाम एक सेकेंड के लिए भी पूरे मन व ध्यान से ले लिया तो वह सैकड़ों बरसों की तपस्या के बराबर है। फिर क्यों पूजा के तरीकों या विधियों में पड़कर भगवान को भुलाना चाहिए? रोज सवेरे उठकर जितनी देर मन लगे भगवान का स्मरण कर लेना ही काफी है एवं बेहतर होगा। गणपती या दुर्गा अपनी पूजा करवाने नहीं आते, वे मनुष्य को प्रतिवर्ष कुछ याद दिलाने आते हैं कि तुम मानव हो और मानवोचित व्यवहार करो। तुम गलतियाँ भी करोगे और उनको खुद सुधारोगे भी।  अपने आप को ईश्वर समझने की भूल न करो।

       ब्रह्मांड को उंगलियों पर नचा सकने वाले ईश्वर की सारी ताकत सारी क्षमता तथा सारी योग्यता उसी ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है जब वह मनुष्य का अवतार लेता है। राम हों या कृष्ण क्षीरसागर से जब वे पृथ्वी पर मनुष्य के चोले में उतरे हैं; तब उनको कुछ समझ आया हो या न आया हो.. मनुष्य की जटिलताएँ, सकारात्मकता व नकारात्मकता के बीच झूलता मानव तथा उसकी आशा, निराशा, हताशा, भूख, गरीबी, और सदैव चोटिल होती गरिमा वगैरह देखकर विवशता के अधीन ईश्वर भी अवश्य तिलमिलाए होंगे। मनुष्य की विवशता और हार से निजात पाने का उपाय मानव चोले में ईश्वर की हैसियत से बाहर की बात होना चाहिए।

इस सबके बीच मनुष्य की अपराजित जिजीविषा, उम्मीद एवं गिर-गिरकर खड़े होने को ईश्वर ने भी हैरत से देखा परखा होगा। फिर सोचा होगा- मैंने ऐसा कोई आशीर्वाद देकर मानव नहीं बनाया था; फिर न तो धरती पर भेजा था। भेजता भी कैसे.. बार-बार हारना और हर बार उठकर खड़े होना ईश्वर की समझ व क्षमता के बाहर की बात है। महान अमरीकी लेखक अर्नेस्ट हेमंग्वे  का कथन उल्लेखनीय है- ईश्वर भी अगर चाहे तो मनुष्य को हरा नहीं सकता। हाँ उसे मार सकता है .. लेकिन मारना कोई पराजय नहीं होता। इस कथन से फिर उसी बात को बल मिलता है कि कहीं-कहीं ईश्वर से मानव ज्यादा हुनरमंद, ताकतवर है, जो बार-बार गिरता है, उठता है और सम्हल जाता है। इसे तनिक भी अतिशयोक्ति युक्त ना समझा जाए ।  

       आज के इस डिजिटल युग में क्या ही अच्छा हो कि हमारी सारी मानसिक, शारीरिक परेशानियाँ, फिक्र, कष्ट का डिजिटलिकरण कर लें ताकि उनके स्थानांतरण, डिलीशन को एक क्लिक की सुविधा उपलब्ध हो सके। कल को यह होगा जब परेशानी व फ़िकरों को डिजिटल में बदलकर ट्रांसफर किया जा सकेगा। परेशानियाँ और फ़िकरें रहेंगी जरूर पर किसी एक के पास न रखकर दूसरे के पास, फिर दूसरे से तीसरे के पास डिजिटली स्थानांतरित की जा सकेंगी।

फाइनली कंप्युटर के स्टोर में रखी जा सकेंगी। कंप्युटर उन्हें कहीं क्लाउड में बसा देगा। तब होगा ये कि कोई व्यक्ति किसी की परेशानी का डिजिटल ट्रांसफर स्वयं में करवा सकेगा। ऐसा वो जरूर करेगा क्योंकि उसके पास परेशानी स्थायी रूप से नहीं होगी। इस प्रकार  परेशानी देने वाले पर अहसान बढ़ाता जाएगा। परेशानियाँ व कष्ट स्थायी न हों तब उनको ग्रहण करना कोई कठिन बात न होगी। बशर्ते कि परेशानियाँ व कष्ट एक्स्पाइरी डेट के पैकेज के साथ आयें। इन परिस्थितियों में न ईश्वर की आवश्यकता होगी, न पूजा-पाठ की और न किसी कर्म कांड की सिवाय कंप्युटर के ज्ञान की।

By: Harsh Wardhan Vyas

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