निद्रिस्त याद

By: किशोर श्रीकांत केलापुरे

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निद्रिस्त याद
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निद्रिस्त याद 
अरे अरे प्रीतम , जरा धीरे चला गाडी  , क्या ब्रेक लगाया , हम घबरा गए न , प्रीती बोली।  
दाहिने मुद के मैंने गाड़ी पार्किंग में लगायी।  कूद के बच्चे पहुंचे काउंटर पर।  
हमारा रूम नम्बर बताओ।  बच्चोने पूछना चालू किया।  किसका रूम नंबर ? काउंटर से आवाज आयी।  
अरे , हमारे पापा ने रूम बुक किया है , बच्चे बोले। 
अरे अरे बच्चो , पहले अपना नाम बताना पड़ेगा , आधार कार्ड दिखाना पड़ेगा।  मैं बोला। 
सर , आपका रूम नंबर १०१ , १०२ है।  यहाँ से दायगोनली अपोजिट लॉन से जाते हुए।  
मैं अटेंडेंट को भेजता हूँ।  रूम्स तैयार है। 
सामान लेके हम रूम पहुंचे।  थोड़ी देर में हमने चाय आर्डर किया और लॉन में बैठे।  
लॉन में लेटते हुए मेरी नजर आकाश पर गयी।  वॉव , कितना नीला आकाश है नं ? मैं बोला।  
लो , अब यहाँ तंद्री मत लगाना , नहीं तो यहाँ भी एक कथा तैयार हो जाएगी, प्रीती बोली। 
चाय पीके हम सूर्यास्त देखने चले गए।  इतने उंचाइसे निसर्ग निर्मित नजारा हम देखने लगे।  
यहाँ भी एक डेवलपमेंट हो सकती है , मैं बोला।  प्रीतम क्या आयडिया आयी मन में ? दोस्त बोला। 
देखो , इस गहरी खाई में कितना घना जंगल है , जो हम नजदीक से कभी देख नहीं पाते।  अगर इस चोटी से 
उस चोटी तक उड़न खटोला की अरैंजमेंट की ,  जो धीरे धीरे चले और वापस यहाँ आये तो ये घना जंगल नजदीक से हम 
देख सकेंगे। मैं बोला। 
इस पर प्रीती बोली , लो स्वयं को मंत्री समझने लगे।  अरे वो एकहि मंत्री है  ,  जो सपना दिखाते वो पूरा करता है।  आपकी 
कौन सुनेगा ?
मैं बोला , अरे आयडिया तो सब के मन में आ सकती है ना ? और वो किसी रविवार को नागरिकोंसे मिलता भी है।  तब 
बताऊंगा मैं ये मेरी आयडिया। 
अरे वो देखो अपने दाहिने बाजूसे घने बादल दिख रहे।  कही यहाँ ना आये।  
प्रीतम क्या क्या चलता है तेरे मन में ? उधर देख सूर्यास्त , दोस्त बोला। 
अलग अलग रंगो की छटा आकाश में फैली हुई थी।  दूर पहाड़ों के बीच कोहरा दिखाई दे रहा था।  
लोगों ने फटाफट फोटो निकालना चालू किया।  मैंने भी मोबाइल पे वीडियो चालू किया।  धीरे धीरे सूरज पहाड़ों के पीछे 
चला गया।  मेरी नजर फिर दाहिने ओर गयी।  बदलोंका झुंड और नजदीक आने लगा।  हम वापस होटल आ गए। 
बच्चे वहा रखी साइकल चलने लगे।  दोस्त और मैं बैडमिंटन खेलने लगे।  बाद में हमारी पत्नी भी हमें ज्वाइन हुई। 
हवा का रुख बदल गया।  वो और तेजीसे बहने लगी।  बिजलियाँ चमकने लगी और उस प्रकाश का पीछा करते हुए 
गड़गड़ाहट होने लगी।  मैं बोला , चलो जम के बारिश होने वाली है।  बच्चो चलो रूम में।  हम सब दौड़ के रूम के ओर 
आये।  उतने में पॉवर चली गयी।   मैं और मेरा दोस्त अपने अपने रूम के दरवाजे पे खड़े थे।  
मैं बोला , बच्चो , मम्मी कहा गयी तुम्हारी ? 
क्या हुआ प्रीतम ? दोस्त बोला।  अरे ये कहा गयी इतने अँधेरे में ! 
दोस्त बोला , कही काउंटर पे रात के खाने का आर्डर रूम में देने के लिए बताने गयी होगी।  
मैं बोला , अरे , पर क्यों ? िते जल्दी क्या थी ? 
अभी बिजली इतनी चमकी की हमारी आँखों के सामने तीव्र रौशनी और बाद में घना अँधेरा छा गया।  तुरंत भयभीत करनेवाली 
गड़गड़ाहट हुई। 
काका — काका  , पापा अभी तक आये नहीं —–
प्रीतम प्रीतम क्या हुआ ? अरे मोबाइल का टॉर्च लगाओ। 
मैं हाथ में मुँह छिपा कर नीचे बैठा , उठने को तैयार ना था। 
धीरे धीरे , मेरी आंखे खुली।  प्रीतम क्या हुआ ? अरे मैं तो वाशरूम गयी थी।  
दोस्त बोला , हा प्रीतम , क्या हुआ तुझे ? तू अजीब सा कुछ चिल्लाया। 
डॉक्टर बोले , प्रीतमजी , क्या हुआ ? आपको याद है कुछ ?
मैं बोला , हाँ , बिजली का प्रकाश , उसके बाद भयंकर गड़गड़ाहट और मैं चिल्लाया , काका काका , पापा अभीतक आये नहीं। 
लेकिन डॉक्टर मैं ऐसा क्यों चिल्लाया ?
डॉक्टर बोले , देखो प्रीतमजी , मैंने आपके परिवार से और दोस्त से भी बात की।  कोई अंकल और आपके पापा नहीं है यहाँ। 
देखो याद करके।  कुछ ऐसाही सिचुएशन कभी लाइफ में आया है ? 
हाँ डॉक्टर।  याद आया।  बचपन में , मतलब आजसे पैतालीस साल पहले , मेरे पिता ऑफिस के बाद एक वकील के यहाँ 
टाइपिंग करने जाते थे।  रात में उनकी राह देखना एक अजीबसा अनुभव था।  उनके बिना खाना भी नहीं जाता था। 
मम्मी बोलती थी की मैं जगती हूँ , तुम सो जाओ , लेकिन मेरा कहना था की सब के पापा शाम को घर आते , फिर अपने 
पापा क्यों नहीं ? 
सामने दरवाजे में खड़े रह कर पैर दर्द देने लगते थे।  
एक बार ऐसा ही मौसम था।  बाजु के अंकल बोले , क्यों प्रीतम पापा की राह देख रहे  हो  ? 
हाँ , मैं बोला। 
उतने में बिजली चमकने के बाद भयंकर गड़गड़ाहट हुई और पावर चल बसी।  घबराते हुए मैं जम के चिल्लाया — 
काका काका पापा अभी तक आये नहीं।  
हूँ , तो ऐसा है।  चलो बच्चो उठो।  कुछ नहीं हुआ आपके पापा को।  
देखो एक निद्रिस्त याद जाग उठी — लाइफ में बहुत ही रेअर होता है —- ही इज अब्सॉल्युटली फाइन —-

By: किशोर श्रीकांत केलापुरे

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