सन्नाटे का साथी

By: Deepa Sinha

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सन्नाटे HUMAN CHOPPINGS
सन्नाटे HUMAN CHOPPINGS
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सन्नाटे का साथी

मैं आलोक, आज एक प्रतिष्ठित कंपनी में बहुत बड़े पद पर हूं पर मेरे जेहन में आज भी एक तस्वीर छपी है। मैं आज भी बचपन के उस दिन को भूल नहीं पाता जब मैं अनाथ अकेला एक सुनसान रेलवे ट्रैक पर अपने खिलौने ब्रूनो और एक बैग के साथ कातर निगाहों से इधर-उधर देख रहा था। उस सन्नाटे में बस एक घड़ी की टिक-टिक ही यह एहसास दिला रही थी — ‘ रुको मत चलते रहो। आज बुरा समय है पर कल अच्छा भी आएगा। चलने का नाम ही जिंदगी है।’ तभी दूर आसमान पर पूरा खिला चांद मानो मुझे रास्ता दिखा रहा हो और प्यारी शीतल चांदनी मुझ पर उड़ेल रहा हो। दूर-दूर तक कोई नहीं था तभी कहीं से एक छोटा प्यारा सा सफेद पिल्ला मानो फरिश्ता बनकर आ गया। में डरा-सहमा सा था पर वह धीरे -धीरे मेरे कदम से कदम मिला कर चलने लगा। उसके मुंह से धीमा-धीमा आवाज मानो मुझसे बात करना चाह रहा हो या फिर मेरे हाथ में पकड़े ब्रूनो से वह दोस्ती करना चाह रहा हो। अचानक ही में उसे लियो कह कर आवाज दिया तो फिर मानो वह सचमुच का शेर बन गया और मेरे साथ निर्भय होकर चलने लगा।

कितना अजीब सफर था न, हम सभी अकेले थें पर जुड़ते गए, माहौल बनता गया और मेरे जीवन के यादों का यादगार कारवां बन गया। जिंदगी में यह समझ तो आ गया कि ' कुछ सफर हमें अकेले ही तय करने होते हैं।' उस याद के लिए चांद लाइनें इस तरह हैं --

"अजीब है यह अकेलापन, न खुश हूं न उदास हूं।
साथी तो बहुत हैं, पर मन की गहराइयों में खुद को ढूंढता हूं।"

By: Deepa Sinha

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