रचनाकार की मौज और रचना : ईश्वरीय आस्था एवं तर्क

By: Harsh Wardhan Vyas

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एक साल पहले मेरी जिंदगी बिखर कर उलटी-पुलटी, अस्त-व्यस्त सी हो गयी, जब मेरा जीवन साथी मुझे अकेला छोड़कर सदा के लिए चला गया. नामालूम किस प्रकार की एक अनजानी सी थकान ने घर कर लिया; वह शायद शारीरिक थी या शायद मानसिक अथवा अकेलेपन की थी, न जाने कैसी थी पर थी अवश्य. एक बात और है जिस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया लेकिन अब ध्यान गया तो समझ आया कि सहकर्मियों, प्रियजनों, नाते-रिश्तेदारों से सम्बन्ध न के बराबर हैं. साथ ही उनकी वास्तविकता का दर्शन भी हो गया, सभी का नग्न सत्य सामने आता चला गया. परिणाम स्वरुप ह्रदय की धमनियों में ७-८ ब्लॉकेज डॉक्टरों ने पता लगाये तथा सुझाया कि ओपन हार्ट सर्जरी ही इसका इलाज है; जबकि मैं जीने की ही तमन्ना नहीं रखता था. तभी अपनी बेटी, नाती  का चेहरा सामने आ गया. उनके लिए मुझे जितना संभव हो सकता था उतना अपने आप को जीवित रखना था. मेरे एक अभिन्न मित्र ने मुझे ऐसा ही कुछ कहा था कि अब तुमको अपने लिए नहीं बल्कि अपनी बेटी, नाती  के लिए जीवित रहना है. कभी भी कुछ भी पूरी तरह से अच्छा या पूर्णतः बुरा नहीं होता है. वास्तव में सब कुछ सही तथा कुछ कुछ गलत के सामंजस्यपूर्ण संतुलन में होता है. उस एक चीज़ का लाभ एवं सकारात्मक पहलू ढूंढना चाहिए जिसे स्वीकार करने में कठिनाई नहीं हो. इस कारण आवश्यक है कि अपनी सोच तथा धारणाओं में बदलाव लाने का प्रयास करने के साथ-साथ मन को इस बात के लिए तैयार कर मना लें कि आखिर ये सब कुछ इतना बुरा भी नहीं है. जब वो समय नहीं रहा तो यह समय भी नहीं रहेगा.

इलाज करवाकर अपनी उम्र में इजाफा करवा लिया है. रिकवरी के आलस्य और आराम के दौरान एक महान  पुस्तक जीवन के रहस्य पढने का सौभाग्य मिला; वही रहस्य जिसे प्लेटो, शेक्सपियर, न्यूटन, ह्यूगो, बीथोवन, लिंकन, एडिसन, आइन्स्टीन आदि जानते थे. मेरा मन कहता है जीवन का यह रहस्य प्रत्येक जीवित व्यक्ति की  जानकारी में होना चाहिए. सर्जरी से रिकवरी के दौरान पहले से पठित-अपठित पुस्तकों तथा  स्वानुभव के रहस्यों के बारे में बहुत सारे विचार दिमाग में चक्कर लगाने लगे. जो-जो विचार, जब-जब किसी भी तारतम्य में मन-मस्तिष्क में आते उनको तत्काल लिपिबद्ध करने का विचार भी मन में गहराता गया. अगर विचार भटककर गलत या अन्य अनजाने राहों पर चलने लगता तो कोई अन्य बात, अन्य विचार मेरा ध्यान आकर्षित करने लगता , ऐसे समय पर कोई न कोई विद्वान गुरु बनकर मुझे सही रास्ते पर पकड़कर ले आता. फलतः विभिन्न विचारों को बिना किसी सन्दर्भ अथवा तारतम्य के लिखना आरम्भ कर दिया.

यह कहना जरा मुश्किल है कि सब कुछ आसानी से होने लगा; कभी कमजोरी पकड़ लेती, कभी रात में पेन-कागज़ ढूंढते-ढूंढते विचार ही खो जाता. जब बहुत सारे विचार, बिंदु एकत्र हो गए, तो उनको संपादन कर किसी तारतम्य में रखने का प्रयास आरम्भ हुआ. कभी लगता कि सब कुछ छोड़ छाड़कर आराम करो, कभी लगता कि एक काम का बीड़ा उठाया है, उसे किसी मुकाम तक अवश्य पहुंचा दिया जाये. अपने जीवन में कोई भी काम मैंने अधूरा नहीं छोड़ा. अंततः मैंने पाया और महसूस किया कि यह तो मेरे सम्पूर्ण जीवन के अध्ययन का, अनुभवों का, मनोगत वेदनाओं का, या भावनाओं का एक सिलसिलेवार निचोड़ बन गया है. पाठक मेरी बात से सहमत नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन यह सभी मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते विचार हैं जो कदाचित बेतरतीब भी हो सकते हैं. तथापि मेरी महत्वाकांक्षा है कि इस रहस्य के सहारे कुछ लोग आदर्श जीवन साथी, उम्दा मकान, बढ़िया नौकरी, प्रमोशन, उन्नति प्राप्त कर सकते हैं. डॉक्टर अपना डॉक्टरी ज्ञान मरीजों के साथ बांटकर उनमें जीने की तमन्ना पैदा करें. जैसा कि मेरे हार्ट सर्जन ने किया था- मेरे जैसे डॉक्टरी ज्ञान से शून्य के बेकार प्रश्नों, निरर्थक जिज्ञासाओं का शांति  और धैर्य के साथ समाधान किया. मेरी यह भी मनोकामना है कि इस आलेख के पठन के पश्चात् करोड़ों में से एक व्यक्ति भी सुखी तथा प्रसन्न हो जाता है तो मेरा यह प्रयास सार्थक सिद्ध हो सकता है. जीवन के इसी मोड़ पर मुझे ईश्वरीय शक्ति का अहसास हुआ जबकि मैंने जब से होश संभाला है; एक साल पहले तक, नास्तिकता का पर्यायवाची रहा हूँ. हालाँकि यह स्थान कृतज्ञता ज्ञापन का नहीं है; लेकिन फिर भी मैं हर उस व्यक्ति को धन्यवाद देना चाहता हूँ, आभार मानता हूँ जो मेरी जिंदगी में आया तथा मुझे प्रेरणा देकर उत्साहित व उर्जावान बनाये रखा. साथ ही उन व्यक्तियों का भी अत्यंत आभारी हूँ जो मेरे जीवन में आये और चले गए. उनने मेरे आत्मविश्वास को ही पोषित किया कि मैं स्वयं अकेला भी कुछ न कुछ कर सकने में सक्षम हूँ. मैं यदि अपनी बेटी, दामाद और नाती का धन्यवाद न करूं  तो यह बेइंसाफी हो जाएगी. उनकी उपस्थिति मात्र ही मेरी प्रत्येक सांस को महका देती है और जीने को प्रेरित करती है.

अपनी बात कहने की शुरुवात में मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर उन दो मित्रों में पुरजोर बहस चल रही है, दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, अपनी-अपनी आस्थाएं हैं. एक कहता है कि ईश्वर है तो दूसरा कह रहा है कि ईश्वर नहीं है. दोनों ही अपनी-अपनी हार मानने को तैयार नहीं हैं. बहस ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया था. ईश्वर को न मानने वाले ने लगातार बोलना आरम्भ कर दिया- मान लो मेरे न मानने के बावजूद ईश्वर है, तो वह क्या मेरे मरने के बाद सिर्फ इसलिए मुझे नर्क भेजेगा कि मैं उसको नहीं मानता. फिर आप भी क्या ऐसे ईश्वर को ईश्वर मानेंगे जो एक व्यक्ति को सिर्फ इस आधार पर नर्क भेजता है कि वह व्यक्ति उसको नहीं मानता? क्या आपकी कल्पना का ईश्वर इतना अनुदार हो सकता है?

सवाल यह खड़ा होता है कि ईश्वर मेरे बारे में किस आधार पर फैसला लेगा? क्या उन्ही आधारों पर नहीं, जिन आधारों पर वह आपके बारे में निर्णय लेता है? फिर बात वहीँ की वहीँ. चलो ईश्वर का अस्तित्व मान लो, है भी, तो वह अपने सारे भक्तों को क्या स्वर्ग भेज देगा? भक्तों में भी आखिर उनके कर्मों तथा कर्मफलों के आधार पर अंतर उसे करना ही पड़ता होगा! इसी बात को भगवान् आधार बनाकर भक्तों में से कुछ को स्वर्ग तो कुछ को नर्क भेजता ही होगा न ! यही भगवान मेरे साथ भी करेगा- भले ही मैं उसको मानूं या न मानूं !!   

यह बात मानवों के बारे में सही है कि कोई शक्तिशाली है जिसके  सामने अगर कोई झुकता है; लेकिन कोई अन्य झुकने से मना कर देता है. यह सच ही है कि शक्तिशाली झुकने वाले को पसंद करेगा बजाय न झुकने वाले के. लेकिन यह सब मानवों के लिए “स्वाभाविक” है, कि वह वह अपने सामने झुकने वाले को पसंद करे परन्तु इसी बात को ईश्वर के लिए स्वाभाविक मानना किसी भी दृष्टिकोण, किसी भी मानदंड से उचित नहीं कहा जा सकता. उसके लिए तो यह क्षम्य नहीं माना जा सकता कि वह अपने सामने झुकने वाले पर तो मेहरबान हो लेकिन न झुकने वाले पर क्रोधित हो जाये. जो ईश्वर को मानते हैं, उसमें आस्था रखते हैं वे यह भी मानते हैं कि ईश्वर में मानवीय कमजोरियां नहीं पाई जाती हैं. इसी कारण ईश्वर से डर कैसा? उसके न होने की परवाह क्यों?

संभवतः आप ठीक समझ पा रहे हों कि ईश्वर के अस्तित्व को न स्वीकार करके मैं अपनी अहमंन्यता का प्रदर्शन कर रहा हूँ. उस सर्व शक्तिमान को न मानना मेरा अहम् हो सकता है; मैं मान लेता हूँ कि मैं अहमी, घमंडी हूँ. उस सर्व शक्तिमान के सामने सदा झुकने वाला क्या अपने निजी जीवन में सदा विनयशील बना रहता है? शक्तिशाली एवं सर्व शक्तिशाली के आगे हर कोई झुकता है, झुक सकता है; लेकिन जो कमज़ोर है उसके सामने कौन झुकता है? बल्कि सभी उसके सामने अपना अहम् दिखाते हैं. क्या ईश्वर भक्त उस कमज़ोर के आगे झुकता है? तब ईश्वर के सामने अहम् दिखाना तो अहम् हो गया, लेकिन कमज़ोर के आगे अहम् दिखाना अहम् नहीं है क्या? फिर वही प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा है- किसके आगे अहम् दिखाना ज्यादा बुरा है- ताकतवर के सामने या कमज़ोर के सामने.

यह एक सवाल हमेशा उपस्थित होता है कि हमेशा हमारे साथ ही बुरा क्यों होता है? कई लोगों का विश्वास ही बना रहता है कि हमसे कभी कुछ अच्छा हो ही नहीं सकता. कोई काम सामने आता है तो धारणा पहले ही बनी रह जाती है कि प्रयास का क्या फायदा , कुछ होना जाना तो है नहीं. बुरा क्यों होता है या गड़बड़ी क्यों होती है जैसी बातें पीड़ित मानसिकता को बड़ी अच्छी लगती हैं. जबकि ये मात्र विचार होते हैं. दिमाग को विश्वास है कि काम अवश्य होगा किन्तु पीड़ित मानसिकता इसे हकीकत में नहीं बदलने देती.

इतने सारे कथोपकथन के बाद चलिए हम उस काल की बात करते हैं, जब कोई रचना न थी; रचनाकार का अस्तित्व ही नहीं था. तब यह पृथ्वी, चाँद, सूरज, सितारे, भी न थे. न वह स्वर्ग, नर्क, बैकुंठ था और न ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश. ईश्वर, ब्रह्म, परब्रह्म तथा महाकाल भी न थे. उसे हम चैतन्य का एक महाभंडार मान सकते हैं जो अपने आप में सिमटा हुआ था. तब उस सर्वशक्तिशाली ईश्वर जो स्वयंभू था, को रचना करने की मौज (लहर) उठी जिससे चैतन्य के महाभंडार में हलचल, हिलोर पैदा हुई जिससे पहले अगम लोक की रचना हुई, उसके नीचे अलख लोक, फिर उसके नीचे सत्त लोक बना. रचना का विस्तार सबसे पहले सर्वशक्तिमान ईश्वर ने सत्त लोक से एक जोर की  आवाज़ ( द ग्रेट नाद ) निकली जिससे नीचे के स्थानों में विभिन्न तत्वों के भिन्न-भिन्न सोलह खण्डों, अनंत लोकों की रचना की, जिसमें जीवन का विस्तार नहीं था. इनमें से ही तीन लोक, चौदह भुवनो का प्रादुर्भाव हुआ. तीन लोक हैं:- १. आकाश लोक या देव लोक जिसमें देवता निवास करते हैं. स्वर्ग गन्धर्व, बैकुंठ, शिवलोक, ब्रह्मलोक, विष्णु लोक सभी इसके अंतर्गत हैं. २. मृत्यु लोक जिसमें मानव रहते हैं. जहाँ स्थूल शरीर को बार-बार जन्मना-मरना होता है. ३. पाताल लोक जिसमें असुर (राक्षस) रहते हैं.

ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय मनीषा की कतिपय कल्पनाएँ एवं तथ्य सचमुच अद्भुत रूप से सटीक हैं, जो किसी अन्य राष्ट्र या संस्कृति के चिंतन में दुर्लभ है. उन कल्पनाओं में अशिव-वेश शिव धाम कृपाला, भगवान शंकर के स्वरुप, उनके स्वभाव, उनके करतबों की कल्पना तो और भी अद्भुत है. अन्य दो कल्पनाएँ भी इन्हीं लक्षणों से आबद्ध हैं- इनमें से एक है जगदम्बिका भवानी की जिसका स्मरण करके आल्हा काव्य का समारम्भ होता है. दूसरी है हनुमान जी की कल्पना- महाबीर अतुलित बलधामा. ये तीनों भव-भवानी-हनुमानी कल्पनाएँ सृष्टि को संचालित करने वाली असीम ऊर्जा, शक्ति, बल के खोज की साधना का प्रतीक हैं. तीनों ईश तत्व की असीमता व मानवीय समीपता को रेखांकित करती है.  

प्राथमिक दौर में केवल मनुष्य शरीर की ही रचना हुई, अन्य योनिओं में कोई रचना ही नहीं थी. उस समय कोई कर्म-अकर्म नहीं था. तब सर्वशक्तिमान निरंजन भगवान ने सोचा कि मैं आखिर किस पर अपना राज चलाऊंगा? तो एक कर्म का विधान बनाया गया. भगवान ने अपनी अर्धांगिनी आद्या शक्ति के साथ मिलकर तीन पुत्रों- ब्रह्मा, विष्णु, महेश को उत्पन्न कर मृत्यु लोक भेजा. तीनों पुत्रों ने समाधि लगाई तो मात्र ब्रह्मा को निरंजन भगवान की आकाशवाणी सुनाई पड़ी, उनको भी ईश्वर के दर्शन न हो पाए.  निरंजन भगवान ईश्वर ने कहा हम जो कह रहे हैं, उसको लिखते  चले जाओ. वाणी निरंतर सुनाई पड़ती गई और ब्रह्मा लिखते चले गए. वही सब वेद  कहलाये जिनको देवोक्त कहा गया. उसमें अस्सी हज़ार कर्मकांड, सोलह हज़ार उपासना कांड एवं चार हज़ार ज्ञान कांड कहे गए. इस प्रकार वेदों में कुल एक लाख श्लोक हैं. तब यह प्रचारित होने लगा कि विधि का विधान कानून बन गया है. सब अपने-अपने कर्म करने को स्वतंत्र हैं लेकिन कर्म अच्छे या बुरे होने पर कर्म का फल अवश्य प्राप्त कर सकेंगे. हरेक प्राणी के साथ एक नैतिक तथा प्राकृतिक कैमरा लगा दिया गया. मानव जो भी अच्छा या बुरा कर्म करेगा, वो सब उस कैमरे कि ज़द में कैद हो जायेगा जिसका अवलोकन, निरीक्षण करने की शक्ति हमारे दूतों अर्थात यमदूत, देवदूत को ही रहेगी. जैसे ही मानव का समय मृत्यु लोक में पूर्ण होगा, दूत जीवात्मा को इस शरीर में से निकालकर ले जायेंगे और कैमरे में कैद कर्मों के आधार पर कर्मफल का हिसाब-किताब करेंगे. कर्मों का सम्पूर्ण लेखा जोखा देवदूतों के समक्ष सम्पूर्ण रूप से होगा.

मानव अपने मान सम्मान के लिए पाप-पुण्य करने लगे. जब अच्छे-बुरे कर्म, पाप-पुण्य की भरमार हो गई तो सर्वशक्तिमान भगवान ने किये गए कर्मों के अनुसार कर्मफल देने के लिए चार प्रकोष्ठ- अंडज, पिंडज, उष्मज, स्थावर, चौरासी लाख योनियाँ तथा नर्क का निर्माण किया. पाप-पुण्यों के कर्मों का विधान बनाकर निरंजन भगवान ने जीवात्माओं पर अपना शासन आरम्भ कर दिया. तब समस्त जीवात्माएं काल-माया के प्रभाव से भगवान के बंधन में बंध गयीं. जन्म-मरण के चक्कर में इतनी फंस गईं कि उनके द्वारा इस बंधन को तोड़ पाना या निकल पाना नामुमकिन सा हो गया. कहा गया कि जब तक संत नहीं मिल जाते हैं तब तक कोई मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, चाहे कितने ही कल्प बीत जाएँ, कितने ही प्रलय-महाप्रलय आ जाएँ- संतों के बिना कोई उपाय ही नहीं है यहाँ से जाने का. संत वे ही हो सकते है जो ईश्वर, ब्रह्म, परब्रह्म, महाकाल और सत्त पुरुष का भेद बता सकें. अगर आप अनवरत किसी नए हुनर को हासिल करने में स्वयं को लगा देते हैं तो रूप, रंग, सुन्दरता की ओर ध्यान जाने का प्रश्न ही नहीं है. हुनर की कद्र करने वालों और देह की अपेक्षा मन को समझने वालों की सोहबत श्रेयस्कर होती है.

आज तो यह तत्व मान लिया गया है कि हिन्दू धर्म के आदि स्त्रोत वेद हैं, जो सर्वशक्तिमान निरंजन भगवान के श्री मुख से निकले हैं तथा जिनको ब्रह्मा ने लिपिबद्ध किया है. यह भी मान लिया गया है कि वैदिक विधि-विधानों में जो विकृति आ गई है, उनका विरोध बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रवर्तकों एवं नेताओं ने किया. लेकिन वैदिक धर्म के इस ऐतिहासिक विरोध के बाद भी वेदों के जीर्णोद्धार एवं उनकी पुनर्स्थापना के प्रति समाज के कर्णधारों में एक जाज्वल्यमान लगन पूर्णतः लुप्त नहीं हुई है.

चलिए अब उसी शाश्वत बहस की ओर पुनः प्रस्थान किया जाये. अगर ईश्वर मेरे अहम् को अपराध मानता है और मुझे नर्क में जाने की सजा देता है; तो फिर मैं उसे ईश्वर ही क्यों मानूं? फिर तो उसे मानव माना जाना ही ठीक होगा. इसी कारण अगर ईश्वर है तो उसे इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है कि मैं/ या/और मेरे जैसे अन्य कुछ या अधिक लोग उसको नहीं मानते हैं क्योंकि वह तो सर्वशक्तिमान निरंजन भगवान है. उदाहरण के लिए सूर्य को कोई न माने तो इस बात का सूरज पर क्या असर पड़ सकता है? कुछ भी नहीं ! क्या सूर्य उस न मानने वाले को धूप या प्रकाश अथवा गरमाई से वंचित कर सकता है? क्या ऐसा कर पाना सूर्य के लिए संभव हो पायेगा? कदापि नहीं! सूर्य तो अपना प्रकाश, ऊष्मा दसों दिशाओं में बिखेर देता है; जो चाहे तो उसका लाभ उठा ले या कोई कम नसीब उनका कोई उपयोग न करे.

यह बात मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ तो क्या वह मेरी गलतियों, मेरे गुनाहों को माफ़ करने आ पायेगा?- इस बात पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता. मैं यह भी मानता हूँ और जानता हूँ कि मुझे मेरी गलतियों की, मेरे गुनाहों की सजा अवश्य मिलना चाहिए. किन्तु एक बात तो पक्की है कि जब गलती इस जहाँ में की है तो सजा भी इसी जहाँ में मिलना ठीक नहीं होगा क्या? यह सजा कोई और नहीं देगा, हम जिस समाज में रहते हैं, वही देगा; जिस प्रकृति के वातावरण में रहते हैं, वही देगी! लेकिन हम सब इतना अवश्य जानते हैं कि समाज एवं प्रकृति इतनी अनुदार नहीं होती हैं कि हरेक गलती की हर बार सजा अवश्य दे. समाज और प्रकृति कुछ गलतियों को माफ़ भी करते  हैं तथा मानव को सीखने, समझने का अवसर अवश्य देते हैं. हम खुद भी अपने बच्चों को हर गलती की सजा देते हैं क्या? उनको समझाकर सुधारने का प्रयत्न करते हैं. फिर भी गलती होती है तो क्रोधपूर्वक सजा देने के पूर्व आत्म निरीक्षण करते है कि कहीं हमारी शिक्षा में कोई दोष तो नहीं है या हम स्वयं ही गलत तो नहीं? अथवा हमारी ‘गलत-सही’ की सोच-समझ में कोई गड़बड़ तो नहीं है?

इसीलिए हम नास्तिकों का भी एक ईश्वर होता है, लेकिन वह यहीं मृत्यु लोक में है, वह मूर्त है, वह प्रत्यक्ष है, वह सक्रिय है और वह मनुष्य ही हो सकता है. स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि नास्तिक वह नहीं है जो ईश्वर को नहीं मानता, बल्कि नास्तिक वह होता है जिसमे आत्मविश्वास नहीं है अथवा आत्मविश्वास की  कमी है.  कहने का मतलब यही है कि ईश्वर है या नहीं, यह एक शाश्वत बहस है जो निरंतर जारी है और अनंतकाल तक चलती रहेगी. इसी बहस के परिप्रेक्ष्य में ईश्वरीय रचना और रचनाकार पर यकीन न करना, न मानना एक बेजा बात हो सकती है. हम सभी को जीवन के किसी न किसी मोड़ पर, किसी मुकाम पर यह महसूस हो ही जाता है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी निरंजन परमात्मा का अस्तित्व अवश्य है- उसे ईश्वर का नाम दिया जाये अथवा प्रकृति का लेकिन कण-कण में उसकी मौजूदगी को नकारना असम्भव तो नहीं नामुमकिन अवश्य है.

जब भी आप किसी मसले पर विचार कर निर्णय ले रहे होते हैं; चाहे वह पारिवारिक मामला हो जिसमें आपके बच्चों या रिश्तेदारों से किस तरह निभाया जाये या कार्य स्थल पर अपने सहयोगियों या कामगारों के साथ कोई मसला हो जाने पर, कैसे हल किया जाये अथवा कैसे निपटाया जाये? कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे जो भी परिस्थिति हों, आप ईश्वर से सर्वश्रेष्ठ हल बताने अथवा बढ़िया रास्ता सुझाने का निवेदन लिखकर कर सकते हैं. जब तक आपका प्रयोजन साफ़ है, भावनाएं तथा उद्देश्य शुद्ध है तथा हार्दिक इच्छा है कि ईश्वर सही हल, सही सुझाव देंगे ताकि आप उलझनों से निकलने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग पा सकें तो वह हल, सुझाव निश्चित रूप से लोकहित रूप में ही मिलेगा. आप ये तरीका अपने जीवन की प्रत्येक परिस्थिति, प्रत्येक समस्या, हरेक अड़चन, हर मसले के लिए अपना सकते हैं, जो आपके दिल-ओ-दिमाग पर भार डाल रहा हो, तनाव पैदा कर रहा हो. यह हल, यह सुझाव जो आपके मन में है वह न होकर वैसा होता है जो आपके लिए सर्वोत्तम उचित होगा. है न, ईश्वर का अस्तित्व मान लेने का सस्ता, सुन्दर, टिकाऊ व नायाब तरीका. इसी बात को गीता के अट्ठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने कुछ यूं कहा है:-

सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज/
अहम् त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्ष्यिश्यामी मा शुचः// अ: १८ – ६६//

मेरे पढने में कहीं यह वाक्य आया था, जिसका सन्दर्भ मैं विस्मरण कर चुका हूँ कि “आप जो सोचते हैं, वही आपकी सच्चाई बन जाती है. आप अपने जीवन को विचारों के ज़रिये, उनके आधार पर बदल सकते हैं.” मैंने इनकी व्यावहारिकता आजमाने के लिए अपने विचारों को बदलना आरम्भ कर दिया है. मैंने पाया कि लगभग एक वर्ष बाद सकारात्मक परिणामों में वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगी है. इस बात के लिए एक आजमूदा नुस्खा है कि जब भी मन में प्रश्न आये कि अमुक काम करने का क्या फायदा? उस काम में सफलता नहीं मिलेगी; तब तत्काल ही स्वयं से प्रश्न किया जाये कि “तुम्हें कैसे पता कि ऐसा होगा? क्या तुम्हारे पास भूतकाल में घटी घटनाएँ, बीती बातें तथा उनके नतीजे प्रमाण नहीं हुआ करते है. वो इतिहास हो सकते हैं या अनुभव अथवा सबक !

By: Harsh Wardhan Vyas

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