मंजिल
ख्वाबों का मंजर अभी दूर था,
शायद किस्मत के लकीरों में थोड़ा और परिश्रम लिखा था |
मैंने कोशिश तो बहुत की ,
मगर मंजिल नामुमकिन सी लगने लगी |
शायद आज यकीन थोड़ा डगमगा गया,
पहले की नाकामयाबी का डर मन को सताने आ गया |
तभी अचानक मेरी मंजिल मेरी आँखों के सामने आके बोली,
अब थोड़ी दूर और बस थोड़ी दूर और |
मैं उठा और फिर जोश के साथ चलने लगा,
शायद मंजिल तक पहुंचने का जोश फिर जागने लगा |
मेहनत अब रंग लाने लगी,
बस कुछ लम्हों में मंजिल भी पास आने लगी |
By: Raunak Jha
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