धारयते इति धर्मः -एक दृष्टिकोण

By: Harsh Wardhan Vyas

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इन दिनों धर्म के बारे में तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। इस धर्म और उस धर्म की व्याख्या की जा रही है। क्या आम जन जानता और समझता है कि धर्म क्या है? मैं अपनी क्षुद्र बुद्धि से धर्म को समझाने का प्रयास करूंगा क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि जो कार्य सभी के करने योग्य और सदा करने योग्य होते हैं उनको सनातन धर्म कहा जाता है। इसी कारण यह सिद्ध है कि सनातन धर्म कोई धर्म या संप्रदाय न होकर जीवन जीने का आदर्श तरीका है। इस बात को आगे की पंक्तियों में पूर्णतः स्पष्ट किया जाएगा कि किसी भी धर्म का अर्थ उससे जुड़े कर्म-कांड, आडंबर नहीं होते हैं बल्कि किस तरीके से, किन कानूनों का समय पर पालन करते हुए जीवन बिताया जाता है; वह तरीका, वे कानून ही धर्म को परिभाषित करते पाते हैं।

धर्म संस्कृत भाषा की‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है- धारण करना। “धारयते इति धर्म” : जिसने सम्पूर्ण ब्रह्मांड, चराचर सृष्टि को धारण कर रखा है। इस परिभाषा में धर्म एक ही होता है जिसको जानकर मानव सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर शाश्वत सुख की अनुभूति करता है एवं सुख-समृद्धि और असीम शांति, संतोष प्राप्त करता है। चाणक्य के अनुसार ‘सुखस्य मूलम धर्मः’ अर्थात सुख का आधार धर्म है। यह देव दुर्लभ शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। इस शरीर को मात्र शुभ कार्यों में लगाने से ही इस तन की, इस जीवन की सार्थकता है। संस्कृत की एक कहावत है- ‘धरमेण हीनः पशुभि: समाना’ अर्थात धर्म के अभाव में यह मानव शरीर पशुवत हो जाता है। धर्म ब्रह्म का पर्याय है, जिसके सामान्य अर्थ भी व्यापक अर्थ लिए हुए होते हैं। इसका संबंध मनुष्यों की भलाई मात्र से होता है। मतलब यही है कि जो कर्म सबके लिए, हमेशा करने योग्य होते हैं उनको ही सनातन धर्म यानि जीवन जीने की आदर्श विधि मानी जाती है।

धर्म की व्याख्या करते हुए महाभारत में वेद व्यास का कथन है कि जो व्यवहार व्यक्ति, समाज, जन साधारण को धारण करता है उसे धर्म कहा जाता है। धर्म के मुख्य रूप से तीन अर्थ हैं- सम्पूर्ण चराचर को धारण करने वाला, उसका पालन-पोषण करनेवाला एवं उसको अवलंबन करने वाला। अतः पूरी विश्व मानवता के लिए एक ही धर्म हुआ, जिसके मार्ग-दर्शन तथा संरक्षण में सभी प्रकार की विचार धाराएं समान रूप से पोषण पाती रहें। धर्म की परिभाषा को बड़े ही व्यापक, विराट रूप में समझना चाहिए क्योंकि इसी पर चराचर जगत की आचारसंहिता अवलंबित है। धर्म एक शाश्वत नीति-दर्शन का नाम है जिसके सहारे व्यक्ति एक चरम लक्ष्य अर्थात परमेश्वर को प्राप्त करता है। धर्म के गर्भ में सभी मत,संप्रदाय, मान्यताएं पनपते और विकसित होते गए । हालांकि मूलतः धर्म के तीन अंग माने गए हैं, वे हैं:-

धर्म का प्रथम अंग है नीति-विज्ञान:- नैतिकता पर आधारित एक ऐसा अनुशासन जो व्यक्ति को चेतना में संवेदना को जन्म दे, उसे अंकुरित, पोषित होने हेतु समुचित वातावरण प्रदान करे। सच्चा धर्म वही है जो व्यक्ति को नैतिकता के अनुशासन में बांधता है। वास्तव में मानव की संवेदनशीलता का विकास ही धर्म है।

धर्म का द्वितीय अंग है- आस्तिकता प्रधान तत्व दर्शन। मनुष्यों में पारस्परिक सामंजस्य एवं अनिवार्य घनिष्टता स्थापित करने वाला तर्क सम्मत विवेचन ही आस्तिकता प्रधान तत्व दर्शन होता है। अब प्रश्न यही रह जाता है कि आस्तिक कौन है? ईश्वर को मानने वाला या मानव मात्र पर विश्वास करने वाला।

धर्म का तृतीय अंग है- अनगढ़ मनुष्य को देव रूपी मानव बनानेवाला, उसे सही दिशा देनेवाला एक गहन विज्ञान जिसे अध्यात्म कहते हैं। धर्म को अध्यात्म से अलग करना लगभग असंभव है। अध्यात्म का तात्पर्य है मानव से परे एक अलौकिक शक्ति, सत्ता को मानना जिसको सर्वशक्तिमान परमेश्वर या प्रकृति अथवा सम्पूर्ण विश्व को चलानेवाली शक्ति कोई भी नाम दिया जा सकता है। यहाँ यह कहना समाचीन होगा कि जबतक हम धर्म को संकीर्ण दृष्टि से देखते रहेंगे, सुख की प्राप्ति नहीं हो पाएगी। यदि हम धर्म को व्यापक दृष्टि से मानव मात्र का कल्याण कारक समझकर देखेंगे तो हमें सुख की अनुभूति होगी और मतभेद की सारी दीवारें टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगी।

गीता भाष्य में आदि शंकराचार्य ने कहा है कि जो इस जगत की स्थिति का कारण एवं प्राणियों के अभ्युदय व मोक्ष का साक्षात हेतु है, श्रेय के अभिलाषी वर्णाश्रम वाले लोग जिसका आचरण करते हैं उसी का नाम धर्म है। जिस परम सत्ता के बनाए गए नियमों के अनुरूप इस जगत का धारण, पोषण हो रहा है, उसके कायदे-कानूनों, अनुशासनों के अंतर्गत अपनी जीवन चर्या का निर्धारण ही धर्माचरण है, जो मनुष्य की आमूलचूल प्रगति का सर्वांगपूर्ण अभ्युदय तथा निःश्रेयस के निमित्त का कारण भी धर्म है।   

प्रकृति के विश्व ब्रह्मांड के दायरे में रहकर सदाचरण द्वारा की गई प्रगति अभ्युदय कहलाती है तथा ब्रह्म की निःसीम सुखानुभूति को, प्रकृति की सीमा के परे प्राप्त होनेवाली आत्मिक प्रगति को निःश्रेयस अर्थात जिससे बढ़कर उत्तम फल न हो- कहलाती है। श्रेय पथ पर चलनेवाले – श्रेष्ठ चिंतन कर तदनुसार आचरण करनेवाले ब्रह्म निष्ठों के बताए मार्ग पर चलना धर्म है; मतलब यही कि आचरण में नीति मत्ता को उतारने की प्रेरणा देनेवाला कारक धर्म ही है। अधिकांश व्यक्तियों का जीवन भर का पुरुषार्थ देह आदि से परे नहीं जा पाता है। देव संस्कृति के चार प्रमुख आधार हैं जिन पर सारा अध्यात्म दर्शन टिका हुआ है। वे हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मानव द्वारा वांछित दो ही मूल प्रयोजन हैं- काम एवं मोक्ष; जिनको प्राप्त करने के दो ही साधन हैं-धर्म व अर्थ। दो साध्य तथा दो साधनों को मिला देने से बनता है- पुरुषार्थ चतुष्टय जो प्रत्येक व्यक्ति की जीवन यात्रा का महत्वपूर्ण अंग है। इसी से वह परम लक्ष्य सिद्धि अर्थात परमेश्वर की ओर बढ़ता है। कोई मानव अर्थ- धन, प्राप्ति; तो कोई काम-सुख चाहते हैं और कोई-कोई ही इन दोनों के मूल यानि धर्म को चाहते हैं। धर्म की प्राप्ति के बाद अर्थ व काम स्वतः सिद्ध हो जाते हैं।

मनु स्मृति में मानव मात्र को श्रेष्ठता की राह में प्रगति, उन्नति में सहायक धर्मोतपत्ति के दस साधन- दस लक्षण बताए हैं। इनका सही-सही, ईमानदारी से अनुपालन ही धर्म-पालन है, जीवन जीने की आदर्श पद्धति है जिनका संबंध समाज विशेष या धर्मानुयायी विशेष अथवा देश विशेष से न होकर मानव मात्र से है। ये सार्वभौमिक होने के साथ-साथ, सदा, सभी के द्वारा पालन करने योग्य  हैं:-

धृति: क्षमा, दमोंsस्तेयम शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धी: विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ॥ मनु स्मृति 6-12॥    

धृति: – धैर्य, संतोष, आत्मावलंबन अर्थात कठिनाई के समय धीरज रखना। न किसी कार्य को छोड़ देना तथा न ही उसके शीघ्र समापन के लिए उतावला होना। यह सनातन किन्तु व्यक्तिगत धर्म है।

क्षमा -औचित्य के प्रति उदारता। जब कोई अपराधी क्षमा याचना करे और अपने अपराध पर पश्चाताप व प्रायश्चित करे तो उसे क्षमा कर देना भी धर्म का एक महत्वपूर्ण लक्षण है जो एक सामाजिक धर्म है।

दम – मन का संयम। मनोकामनाओं को नियंत्रण में रखना व्यक्तिगत धर्म है।

अस्तेय – न्यायपूर्ण जीवन। चोरी न करना, जो वस्तु अपनी नहीं है उसे न लेना। यह सामाजिक धर्म है।

इन्द्रिय निग्रह: – विषयों के अधोगामी प्रवाह को रोकना। पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखना ही इंद्रिय निग्रह है।

धी: – विवेक बुद्धि यानि नीर-क्षीर विवेक को तीक्ष्ण और शक्तिशाली बनाना। यह व्यक्तिगत धर्म है।

विद्या -आत्मज्ञान, पारलौकिक फलवाले सत्कर्मों में प्रवृत्ति अर्थात ज्ञान प्राप्त करना। यही मनुष्य के परम कल्याण का साधन होता है। इसी कारण इसे धर्म माना है जो व्यक्तिगत धर्म है।

सत्य – मन-वचन-कर्म से व्यक्ति का शुद्ध होना एवं प्रिय सत्य बोलना। जो जैसा है, उसे वैसा ही कहना और जैसा अपना स्वयं का आचरण है उसे वैसा ही प्रगट करना, सत्य धरमान्तर्गत आता है जो सामाजिक धर्म है।

अक्रोध -क्रोध न करना। जब कोई अन्य दोषयुक्त कार्य करे तो उसके दोष दूर करने के उपाय तो करना किन्तु उस पर नाराज न होना। यह भी सनातन सामाजिक धर्म है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि जिस कर्म से केवल करने वाले या कर्ता पर ही प्रभाव हो वह व्यक्तिगत और अगर कर्ता के अतिरिक्त एक या अनेक पर प्रभाव हो तो वह सामाजिक कर्म कहलाता है। इस प्रकार जीवन के सभी कामों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- व्यक्तिगत एवं सामाजिक। अतः मानव कल्याण हेतु किए गए कर्म ही धर्म होते हैं। सरल भाषा में कहा जाए तो “आत्मनः प्रतिकूलानि परेशाम न समाचरेत” यानि दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो जो आपको अपने लिए पसंद न हो। विदुर नीति के अनुसार यही मानव धर्म है।  

इन सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में ये कहा जाना संभव है कि धर्म का वास्तविक मतलब है- मानवता, इंसानियत। धर्म का सच्चा स्वरूप उन गुणों का समूह है जो मनुष्य को सच्चा मानव बनाता है। जबसे धर्म का अर्थ भिन्न रूपों में लिया जाने लगा है, तभी से इसके नाम पर ढोंग, दिखावा आदि हानिकर बातों को बल मिला है, जबकि धर्म को व्यक्ति, समाज, और देश कि उन्नति में मददगार होना चाहिए।

आधुनिक युग विज्ञान का युग है जिसमें कोई भी विचार  विज्ञान के मान्य नियमों तथा सिद्धांतों की कसौटी पर खरा उतरने पर ही सही और सच्चा सिद्ध हो सकता है। उसे आस्तिकता, आस्था, श्रद्धा, या विश्वास की दुहाई देकर बच निकालने का प्रयास करना, असत्यता की आत्मस्वीकृति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यही है कि धर्म के जीर्ण-शीर्ण दुर्ग अब ढहने की कगार पर आते जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब व्यक्ति और समाज धर्म के दूषित प्रभावों से मुक्त होकर विज्ञान सम्मत स्वस्थ जीवन बिताएगा। इस विषय में मात्र इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जो धर्म पर विश्वास करते हैं अर्थात धर्म के दस लक्षणों का पालन करते हैं, उनके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं; जबकि जो धर्म पर विश्वास नहीं करते, उनके लिए कोई भी तर्क पर्याप्त नहीं है। यही बात आस्तिक व नास्तिक, ईश्वरवादी व अनीश्वरवादी के लिए भी उतनी ही सच है। हमें राम, कृष्ण, बुद्ध, कबीर आदि महा-मानवों के सम्मान को संरक्षित करते हुए उनके दिखाए मार्ग का अनुसरण कर प्रगति के सोपान तय करते जाना है। विगत हजारों वर्षों में जिस विशाल साहित्य की रचना की गई है उनका अध्ययन, मनन तथा चिंतन करके उसके सार व हितकारी रूप निकालकर सनातन धर्म के दस बुनियादी लक्षणों के आधार पर व्यक्ति, समाज और देश के चरित्र के निर्माण का प्रयास करने हैं; अन्यथा अकबर इलाहाबादी का शेर बड़ा मौजूं है:     

हम ऐसी सब किताबों को काबिल-ए-जब्ती समझते हैं।
कि जिनको पढ़कर बेटे बाप को खब्ती समझते हैं॥  

आज देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म के वास्तविक एवं सही रूप का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि धर्म कम से कम वह तो नहीं है जो समाज के सामने प्रचार के रूप में उपलब्ध है। हरेक विद्यार्थी को धर्म का व्यापक ज्ञान हो तथा उसके मूल सिद्धांतों को आत्मसात करके ही आज की युवा पीढ़ी और विद्यार्थी कल के योग्य नागरिक निकल सकेंगे। धर्म का सही उपयोग कर हर क्षेत्र में लोकहित, देश की प्रगति, समाज की उन्नति हो पाएगी। धर्म हमें कर्तव्य की प्रेरणा देता है, साथ ही फल की ओर से तटस्थ रहने का आदेश भी देता है। धर्म का एकमेव लक्ष्य अंतर्मुखता है, त्याग है, समाज में संवेदना का जागरण होने के साथ-साथ पारस्परिक सद्भाव का विकास है। इन समस्त भावनाओं का जितना विस्तार होगा, धर्म की उतनी ही रक्षा होगी, समाज व देश का विकास होगा। आस्था संकट की विभीषिका तभी मिटेगी तथा मानवीय पुरुषार्थ अलसाई अवस्था से परिपूर्ण जागरण, मोक्ष की ओर अग्रसर होगा। भारतीय संस्कृति हमेशा वसुधैव कुटुंबकम की धारणा पर विश्वास करने वाली तथा सनातन धर्म का मूल संस्कार व सबके लिए सुख व खुशी, सभी के लिए स्वास्थ्य की मंगल कामना करने वाली रही है जो वृहदारण्यक उपनिषद में निम्न रूप में हजारों वर्ष पूर्व से वर्णित है।

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया ।
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कश्चित दुख भागभवेत ॥  

By: Harsh Wardhan Vyas

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