तुमसे बिछड़के कितना ना-काबिल हो गया हूं,
मुझ से मुझही को बेहिस करके
क्या हासिल कर रहा हूं?
एक बेरूह कमरा, चंद किताबें,
छलकते जाम-ब-जाम,
और चारों ओर बिखरे कुछ कागज़
जिस में हो तुम, तुम्हारी यादें और हिज़्र।।।
एक मुद्दत हुई इस कमरे से निकले,
अरसां हुआ किसी से बात करे,
पता नहीं कब से बंद हूं यहां पर,
शायद होलें से खुद ही को मार रहा हूं।।।
ऐसी ना-उम्मीदी के बीच एक उम्मीद भी है,
आसमान सी ऊंची दीवारो के दरम्यान
एक दरीचा भी है
जब इस दरीचे से बाहर देखता हूं,
तो दिखता है मुझे एक कूचा, कूचे के लोग
और जा-ब-जा बिखरी खुशीयां,
बाहर देखते-देखते
दिन बीतें, त्योहार बीतें
रंग उड़े और ईद भी मनी
एक शजर को बे-पहरन होकर
फिर एक हरा लिहाफ ओढ़े देखा
मैं सुबह इस कूचे की आवाज सुनता हूं
और स्याह रातों में इसके सन्नाटे भी।।।
पर इस कमरे से निकल नहीं पाता
खुद का अक्श भी देख नहीं पाता
कभी जो लगायें थे आईने
उसकी रानाईया देखने
वो तो सारे तोड़ दिये है
जो लगें थे घांव भर भी गए होते
पर मेरी सांसों से वो कुरेद रहे हैं।।
कभी जब थक हार कर नींद आती है
तभी कानों में दस्तकें गूंजती है
यकायक उठ जब खोलता हूं दरवाजे
तेरी फुर्कत मुझे चीख कर गले लगाती है।।।
विसाल-ए-यार अब
एक तिलस्म ही हो सकता है
मेरे पहलू में तेरा होना
भ्रम ही हो सकता है
इस कमरे में गूंजे तेरी पायल
ऐसी तमन्ना ही हो सकती है
तेरी खुशबू से महकने मेरी क़बा
ऐसा तो सिर्फ जन्नत में ही हो सकता है।।।
By: Jeet Joshi
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