पथेरपांचाली- सत्यजीतरेकीअनमोलकृति

By: Manisha Aloke Banerjee

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पथेरपांचाली
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पथेरपांचालीसत्यजीतरेकीअनमोलकृति

बचपन से ही मुझे बेहतरीन फिल्में देखने का बहुत शौक है चाहे वह किसी भी भाषा में क्यों न हो । जब भी अवसर मिलता मैं उसे हाथ से जाने नहीं देती। बात वर्ष १९९० की है। उस समय दूरदर्शन पर देश विदेश की चुनिंदा और पुरस्कृत मूवीज दिखाई जाती थी। ऐसे ही एक अवसर मुझे मिला था जब वर्ष १९९० के दिसंबर महीने में दूरदर्शन पर सत्यजीत रे की चुनींदा कुछ फिल्मे दिखाई जा रही थी। उस समय तक भारत में सत्यजीत रे एक बहुत ही प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में विख्यात हो चुके थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी सत्यजीत रे न केबल अपनी फिल्मों का खुद निर्देशन करते थे अपितु पटकथा लिखना,कलाकारों का चयन, संगीत का निर्माण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार प्रसार का कार्य सब खुद ही देखते थे। सत्यजीत रे एक बेहतरीन निर्देशक होने के साथ साथ कहानीकार, चित्रकार और फिल्म आलोचक भी थे। उन्होने अपने जीवन में ३७ फिल्मों का निर्देशन किया था। उनकी पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ को कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट अवार्ड यानि सर्वश्रेष्ठ मानव दस्तावेज का पुरस्कार प्राप्त हुआ।

जब पहली बार दूरदर्शन पर मैंने सत्यजीत रे की फ़िल्मे देखी तो उनके हुनर की दीवानी हो गई। अपुर ट्राइलॉजी, आगंतुक, महानगर, जलसाघर समेत कई फिल्मों का प्रसारण किया गया था। यूँ तो उनकी सभी फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं लेकिन जिस फिल्म ने मेरे दिल को सबसे ज्यादा छुआ हैं वह है ‘अपूर ट्राइलॉजी ‘ की पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’। ‘अपूर ट्राइलॉजी’ तीन फिल्मों का समूह है जिसकी पहली फिल्म है ‘पथेर पांचाली ‘। दूसरी फिल्म है ‘अपराजिता’ और तीसरी फिल्म हैै ‘अपूर संसार। रास्ते का गीत। ‘पथेर पांचाली ‘ अर्थात रास्ते का गीत वर्ष १९५५ में प्रदर्शित हुई बंगाली भाषा की फिल्म थी। जीवन की वास्तविकता को दर्शाती यह फिल्म बांग्ला भाषी लेखक बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय की विख्यात उपन्यास ‘पथेर पांचाली ‘ पर आधारित है जो उन्होंने १९२८ में लिखी थी।

‘पथेर पांचाली ‘ कहानी है 1910 के बंगाल के निश्चिंतपुर गांव के हरिहर राय परिवार की। आर्थिक संकट से जूझ रहे ब्राह्मण परिवार में कुल मिलाकर पांच सदस्य है। हरिहर राय, उनकी पत्नी सर्बजाया , बेटी दुर्गा, बेटा अपु और हरिहर की बूढ़ी चचेरी बहन इंदिरा। आर्थिक संकट की वजह से सर्बजाया नहीं चाहती कि उसकी ननद उनके साथ रहे। इंदिरा अक्सर रसोई से खाना चुराती है। दुर्गा को अपनी बुआ से बहुत प्यार है। वह अक्सर उसे एक अमीर पड़ोसी के बगीचे से चुराए हुए फल लाकर देती है। सर्बजाया की इस बात पर अक्सर ननद से लड़ाई हो जाती है। लेकिन दुर्गा के अपनी बुआ के प्रति प्यार को मिटा नहीं पाती है। किशोरी दुर्गा के मन में भी हमउम्र लड़कियों की तरह चाहते हैं। एक बार पड़ोसी की पत्नी दुर्गा पर अपने घर से मोतियों का हार चुराने का आरोप लगाती है जिससे दुर्गा इनकार करती है। वह पड़ोसन सर्बजया पर बेटी की चोरी की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाती है और उधार मे दिए रुपये वापस मांगती है। उस दिन सर्बजया बेटी को बुरी तरह से पीटती है। माँ के अंदर की कुंठा जो वह अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा न करने से जन्मी है साफ़ देखि जा सकती है।

दुर्गा छोटे भाई अपू की मातृ स्नेह से देखभाल करती है। साथ में, वे जीवन की सरल खुशियाँ साझा करते हैं: एक पेड़ के नीचे चुपचाप बैठना, एक यात्रा विक्रेता के बायोस्कोप में तस्वीरें देखना, पास से गुजरने वाले कैंडी वाले के पीछे दौड़ना, और जात्रा देखना (लोक रंगमंच) जो एक अभिनय मंडली द्वारा प्रस्तुत किया गया। हर शाम, वे दूर से आती रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ से प्रसन्न होते हैं। सर्बजया की इंदिरा के प्रति नाराजगी बढ़ती जा रही है और वह और अधिक खुलेआम शत्रुतापूर्ण हो गई है, जिसके कारण इंदिरा को किसी अन्य रिश्तेदार के घर में अस्थायी शरण लेनी पड़ती है। एक दिन, जब दुर्गा और अपू ट्रेन की एक झलक पाने के लिए दौड़ते हैं, इंदिरा – जो अस्वस्थ महसूस कर रहा है – घर वापस चला जाता है, और बच्चों को पता चलता है कि उनके लौटने पर उसकी मृत्यु हो गई है।

गाँव में कोई उम्मीद न देख पाने की वजह से हरिहर बेहतर नौकरी की तलाश में शहर जाता है। वह वादा करता है कि वह उनके जीर्ण-शीर्ण घर की मरम्मत के लिए पैसे लेकर लौटेगा, लेकिन उम्मीद से ज्यादा समय बीत जाता है हरिहर नहीं लौटता है । उसकी अनुपस्थिति के दौरान, परिवार गरीबी में गहराई तक डूब जाता है, और सर्बजया हताश और चिंतित हो जाती है। इसी दौरान मानसून के मौसम में एक दिन, दुर्गा भारी बारिश में खेलती है, उसे सर्दी लग जाती है और तेज़ बुखार हो जाता है। तूफान के कारण बारिश और हवा के साथ ढहते घर पर तूफान की मार पड़ने से उसकी हालत खराब हो जाती है और अगली सुबह उसकी मृत्यु हो जाती है।

हरिहर घर लौटता है और सर्बजया को वह माल दिखाना शुरू करता है जो वह शहर से लाया है। इसी सामान में दुर्गा के लिए एक साड़ी भी होती है।  साड़ी को देखते ही मौन सर्बजया अपने पति के चरणों में गिर जाती है, और हरिहर दुख में रोता है जब उसे पता चलता है कि दुर्गा की मृत्यु हो गई है। परिवार ने बनारस के लिए अपना पैतृक घर छोड़ने का फैसला करता है। जैसे ही वे सामान इकट्ठा करते हैं, अपू को वह हार मिलता है जिसे दुर्गा ने पहले चोरी करने से इनकार किया था; वह उसे एक तालाब में फेंक देता है। अपू और उसके माता-पिता एक बैलगाड़ी पर गाँव छोड़ देते हैं, जबकि एक साँप उनके घुसता हुआ दिखाई देता है।  

सत्यजीत रे ने  ‘पथेर पांचाली ‘ फिल्म के साथ निर्देशन की शुरुआत की। यह फिल्म ही इस बात का सबूत है कि सत्यजीत रे क्या करने में सक्षम थे। कहानी सरल है लेकिन बिना संवादों के भावपूर्ण दृश्य, तकनीकी रूप से अपने समय से बहुत आगे का कैमरे का संचालन और पंडित रविशंकर द्वारा फिल्म के लिए दिया गया संगीत इस फिल्म को अद्धभूत सौंदर्य प्रदान करता है। सत्यजीत रे ने एक हताश पिता, लाचर माता और अन्य किरदारों को जिस खुबसुरती से प्रदर्शित किया है वह काबिलेतारीफ है। इस फिल्म की जितनी भी तारीफ की जाये काम है। सभी पत्रों का चरित्र चित्रण बखूभी किया गया जिससे किरदारों में काफी विविधता देखने को मिलती है। अच्छी फिल्म देखने के शौकीन फिल्म प्रेमिओं के लिए यह फिल्म एक सौगात है। कोई आश्चर्य नहीं कि हॉलिवुड फ़िल्मों के निर्देशक मार्टिन स्कॉर्सेसी सत्यजीत रे के काम के बहुत बड़े प्रशंसक थे। सत्यजीत रे की बनाई फिल्में भारतीय चित्रपट के अनमोल नगीने है और हमेशा रहेंगे।

By: Manisha Aloke Banerjee

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