सफलता के सोपान बनाम खाक से खास का सफ़र

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  वर्तमान युग में ऐसा कौन मनुष्य होगा जो सफलता की इच्छा न रखता हो. सभी सफल होकर धनवान, ऐश्वर्यशाली, नामवर होना चाहते हैं. ऐसे सभी मानवों के लिए पुरातन लेकिन आजमाए गये रास्तों की तलाश की गई है क्योंकि सफलता की राह न सरल होती है और न यूँही बैठे – बैठे कामयाबी हासिल हो जाती है.  मानव ईश्वर द्वारा निर्मित एक ऐसी लाजवाब कृति है , जिसे सदा काम में लगाये रखने के लिए ईश्वर ने उसके भीतर महत्वाकांक्षाएं लबालब भर दीं हैं. इनकी आपूर्ति के लिए मनुष्य लक्ष्य का निर्धारण करता है, उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए रास्ते का चयन करके अपना मार्ग निर्धारित करता है, जिस पर वह सत्यता, संयम और अपरिग्रह के साथ श्रमपूर्वक चलना आरंभ कर देता है ताकि वह सफलता के लक्ष्य प्राप्त कर सके और उसको  सुखद आनंद की प्राप्ति हो.

        भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है कि तीनों लोकों में ऐसा कोई काम उनके लिए निर्धारित नहीं है, न उनको किसी वस्तु की आवश्यकता या अभाव ही है, और न ऐसा कोई काम है जिसे करना उनके लिए अनिवार्य हो. किन्तु वे कर्महीन होने की बजाय सारथि बनकर कर्म में लगे हुए हैं, क्योंकि श्रेष्ठ् पुरुष जो आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं. वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है; विश्व उसका अनुसरण  करता है.  

यत-यत आचरति श्रेष्ठः तत-तत एव इतर: / सः यत्प्रमाण कुरुते लोकः तत अनुवर्तते //अ ३- २१//

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन/ नान्वप्तम वाप्तव्यम वर्त एव च कर्मणि //अ ३- २२//

ईश्वर ने हमें कामयाबी हेतु श्रम करने के लिए शरीर दिया है जिसमे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (नाक,कान, नेत्र, जीभ और त्वचा) दी हैं, इनसे हम भौतिक जगत का ज्ञान प्राप्त करते हैं. ये इन्द्रियां तभी अपने – अपने निर्धारित काम कर पाती हैं जब मन इनका सहयोग करता है. परन्तु मन कोई भौतिक वस्तु नहीं है जिसे सामान्य रूप से परिभाषित किया जा सके. श्रीकृष्ण ने गीता के छटे अध्याय में स्पष्ट किया है कि जिसने मन को वश में कर लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है. जो मन के वश में हो गया, मन उसका सबसे बड़ा शत्रु है. मानव शरीर में  चेतन, अवचेतन और अचेतन तीन प्रकार के मन होते हैं. चेतन मन हमेशा जाग्रत रहता है और अचेतन मन में सोई प्रतिभाएं पाई जाती हैं लेकिन अवचेतन मन, मस्तिष्क और ह्रदय का ऐसा समन्वय रखता है जो प्रत्येक गतिविधि को न्याय के तराजू में तौलकर मानव मात्र के लिए हितकारी सटीक निर्णय लेने में सक्षम होता है. अतः इस अवचेतन मन की अपार अदृश्य शक्ति को पहचान कर स्वयं को पहचानना होता है. कबीर भी बरसों पूर्व कह गये हैं कि अपने मन के भीतर झांको:

   बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय/  जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय//   

अपने मन को पढ़ो, अवचेतन मन की शक्ति का आकलन कर पहचाना जाना आवश्यक होता है जिसको श्रीमद्भागवतगीता के तीसरे अध्याय में अधिक स्पष्ट किया गया है कि कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ, पांव, जिव्हा, गुदा , लिंग) जड़ पदार्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है तथा आत्मा बुद्धि से बढ़कर है.

 इन्द्रियाणि पराणी आहू: इन्द्रियेभ्य परं मनः / मनसः तु बुध्धिः या बुद्धे: परतस्तु सः // अ-३ ४२//

        यदि मन आपका साथ नहीं दे रहा है तो सुनने के बावजूद आप बताने में असमर्थ होंगे की क्या सुना? देखते रहने के बाद भी आप ने क्या देखा बताने में असफल होंगे. मन के साथ जुड़कर ही ये इन्द्रियां अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन कर पाती हैं और यह मन का जुडाव ही योग कहलाता है.जिस प्रकार जीवन को सफल बनाने में श्रम, संयम और सच्चाई का योग चाहिए उसी प्रकार इनको जोड़ने के लिए, शरीर, मन और आत्मा को एकाकार करने के लिए योग का अभ्यास अवश्य करना चाहिए. जब ये तीनों यानि शरीर,मन तथा आत्मा एकाकार होकर श्रम, संयम और सत्यता के साथ जुड़कर अपने अवचेतन मन की शक्ति से काम करना शुरू करेंगे तो कोई भी व्यक्ति अपनी क्षमता के चरम बिंदु के साथ कर्म करेगा, और  कामयाबी कदम अवश्य ही चूमेगी.

        आध्यात्मिक उन्नति  के वास्ते हम उसका आक्लन करना चाहेंगे जिसे मानसिक वृत्तियों का नाम दिया गया है. मानव मन की तीन वृत्तियाँ होती हैं, जिसे पुराणों में सात्विक, राजसिक और तामसिक नाम से जाना जाता  हैं, जो श्रम, संयम और सत्यता के साथ- साथ तन, मन और आत्मा का पर्याय होते हैं. मानव के मन में जिस वृत्ति की प्रचुरता होती है, उसी के अनुसार वह अपना लक्ष्य निर्धारित करता है, जिसे पाकर वह अधिक सुखमय कामयाबी और महानता को प्राप्त कर लेता है. जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सत्याचरण की परम आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यदि वह अपने जीवन के लक्ष्यों को झूठ के सहारे प्राप्त कर भी लेगा तो वह फलितार्थ नहीं होगा. इस तरह से प्राप्त लक्ष्य पर टिके रह पाना भी उसके बस की बात नहीं होगी. यह संभव भी नहीं हो पायेगा क्योंकि झूठ की नींव पर टिका आध्यात्मिक सफलता का महल आसानी से धराशायी हो सकता है.

        जीवन में सफलता तभी कहलाती  है, जब व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति  के साथ  अपने उद्देश्य को हासिल कर पाता है. उसका लक्ष्य भी संकुचित न होकर व्यापक होगा. हमें सदा ध्यान रखना चाहिए कि लक्ष्य स्वार्थपूर्ण न होकर परमार्थ के लिए भी हो. इस जीवन में कदम-कदम पर संयम के साथ अपरिग्रह की आवश्यकता है. यदि आपने अपने लक्ष्य के मार्ग में कदम बढ़ाना आरंभ कर दिया है तो संयम और अपरिग्रह अपनाकर अपने लक्ष्य को हासिल करने में जुट जाएं. भारतीय संस्कृति में भी संयमित रहने और अपरिग्रह अपनाने के संस्कार दिए जाते रहे हैं.कभी भी पाश्चात्य सभ्यता के खाओ, पियो और मौज करो के सिद्धांत न हम भारतियों को रास आता है तथा न ही  हमारे संस्कारों में समाहित है. लक्ष्यहीन जीवन वैसा ही होगा कि हम किसी भी रास्ते पर चलते जा रहे हों और किसी के पूछने हम बता ही न पायें कि कहाँ जा रहे हैं. अपरिग्रह के साथ संयम की आवश्यकता इसलिए भी पड़ती है कि श्रम द्वारा हासिल सफलता आपके सर चढ़कर न बोले. यही सफलता के टिके रहने का रहस्य भी है.

        भगवान श्री कृष्ण ने गीता में सदा कर्म करते रहने की शिक्षा दी है. सृष्टि के प्रत्येक जीव को अपना जीवन यापन करने केसंग में उन्नति और सफलता के  लिए कर्म करना पड़ता है. जो मानव कर्महीन होकर दैव पर आश्रित होता है वह पशु समान है. गोस्वामी तुलसीदास सैकड़ों वर्षों पूर्व कह गये हैं कि परमात्मा ने इस विश्व को कर्मप्रधान बनाया है क्योंकि सकल पदारथ हैं जग मांही / करमहीन नर पावत नाहीं//  कई विद्वानों को ठीक इसके विपरीत यह कहते हुए देखा जा सकता है कि भाग्य में होगा तो मिल जायेगा हालाँकि इसे आंशिक सत्य माना जा सकता है. यदि आपके भाग्य में है किन्तु आपने उसको पाने का प्रयास/श्रम नहीं किया तो वह आपको कैसे मिल सकता है? बिना कर्म करे भाग्य में होने के बाद भी नहीं मिल सकेगा. मान लीजिये भोजन थाली में परोसा रखा हुआ है, वह रखा ही रह जायेगा अगर आपने हाथ उठाकर, कौर बनाकर मुंह में नहीं डाला. अतः जीवन में उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कर्म करना पड़ता है और कर्म बिना परिश्रम के संभव नहीं है. जीवन में सफल होने के लिए श्रम अति महत्वपूर्ण कारक है. हमारे एक टीचर पढ़ाते- पढ़ाते अक्सर कहा करते थे कि जीवन में कभी न कभी लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. यदि आप छात्र जीवन में परिश्रम नहीं करेंगे , मस्ती में समय निकाल देंगे तो शेष जीवन में आपको लोहे के चने चबाने होंगे जो काफी दीर्घ अवधि होगी किन्तु छात्र जीवन में श्रम और पढाई के महत्व को, योग्यता को समझेंगे तो सब लोग छात्र जीवन के अल्पकाल में चबाये गये लोहे के चने के आधार पर शेष जीवन सफलतापूर्वक बेहतर बिताएंगे. तय आपको ही करना है  कि छात्र जीवन के अल्प समय की तुलना में शेष दीर्घ जीवन में लोहे के चने चबायेंगे. कहने का मतलब यह है कि  मेहनत करने और श्रमसाध्य होने में कोई बुराई नहीं है. हितोपदेश में प्राचीन काल से कह रखा है:

  उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै/ नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः //

कोई भी कार्य परिश्रम करने से ही पूरे होते हैं, बैठे-बैठे सोचते रहने से कोई काम नहीं हो सकता. जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुख में अपने आप उसका शिकार प्रवेश नहीं करता. उसे भी पेट भरने के लिए उद्यम करना होता है. व्यावहारिक जीवन में अपने लक्ष्य, उद्देश्य को हासिल करने के लिए किया गया प्रयास ही परिश्रम है. वही श्रम जो सत्याचरण के साथ संयमपूर्वक अपरिग्रह का पालन करते हुए किया जाए, ताकि सार्वजनिक हित के काम हो सकें. श्रम मानसिक भी हो सकता है और शारीरिक भी, जिसके साथ लगन की आवश्यकता भी होगी. इसी लगन को ध्यान लगाना कहते है. यहाँ ध्यान का तात्पर्य है, अर्जुन की तरह लक्ष्य के प्रति एकाग्रता.

        कभी-कभी महसूस होता है कि कठोर परिश्रम के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिल रहा है. तब प्रयास की दिशा पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विकल्पों पर भी विचार अवश्य करना चाहिए. यह जीवन की विडम्बना ही है कि तीनों तत्व- राजस, तामस, सत अथवा श्रम, संयम, अपरिग्रह, सत्याचरण हो या शरीर,मन, आत्मा भिन्न-भिन्न दिशाओं में काम करते हैं जिससे हमारे आन्तरिक जीवन में बिखराव बढ़ने लगा है. लेकिन यदि इनको किसी तरह से जोड़ लिया जाये तब वही योग और ध्यान बन जायेगा. ध्यान को सरल शब्दों में बताते हुए यह कहा जा सकता है कि जो कर्म किया जा रहा है उसी में अपना दिल, दिमाग लगाकर डूब जाएँ और भूख, प्यास, नींद सबको भुला बैठें. इस हेतु ज्यादा ज्ञान या परिश्रम की ज़रूरत नहीं पड़ती है वरन निरंतर अभ्यास ही पर्याप्त होता है. यही सफलता की राह भी है क्योंकि एक ही विचार लम्बे समय तक बना रहे तो वही ध्यान है जो व्यवधान रहित होता है. अतः सदा अपने लक्ष्य पर ध्यान रखना होगा तो कामयाबी कोई असंभव बात नहीं.

        समय की महत्ता को अपनी उन्नति तथा सफलता की राह में कभी भी नहीं भूलना चाहिए और  किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में समय या मौके का अवश्य लाभ उठाना चाहिए. अवसर चूक जाने पर केवल पछतावा ही हाथ आता है.एक बार जो पल गुज़र जाता है, उसे आप जीवन भर की कमाई  को खर्च करके भी वापिस नहीं बुला सकते. समय चूकी पुनि का पछताने/ का वर्षा जब कृषि सुखाने// अतः जीवन के एक-एक लम्हे को न सिर्फ जिया जाये बल्कि उसका पूरा सदुपयोग किया जाना चाहिए. इतना तो सभी जानते हैं कि हर फैसले का एक उपयुक्त संयोग और निश्चित समय होता है.  इन्सान को चाहिए कि वक़्त से वो डरकर रहे ताकि कोई पल जो निर्णायक साबित हो सकता था, अगर गँवा दिया तो पछतावा ही हाथ लगता है. कहा भी गया है कि: 

 मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान/   भिल्लन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बाण //

        कुछ विचारक समय के महत्व को परिभाषित करते हुए  वर्तमान को ही सत्य मानते है क्योंकि जो बीत गया वो अब नहीं है और जो आने वाला है वो जब आएगा तब देखा जायेगा. भूतकाल केवल स्मृति है और भविष्य महज़ कल्पना. इनके बरक्स कई विचारक अनंतवादी भी हैं, जो ये मानते हैं कि समय अनंत है जिसके एक खंड को वर्तमान मानना उचित होगा. अब समय चाहे वर्तमान हो या अनंत, उसका प्रबंधन इस प्रकार हो कि सफलता के सोपान चढ़ते जाएँ. समय प्रकृति में अपनी नैसर्गिक अवस्था में व्याप्त तथा अनवरत गतिशील है , जिसका प्रबंधन, सफलता हेतु एक आवश्यक एवं अनिवार्य अंग है. हमेशा देखने में आता है कि सफल व्यक्तियों का समय प्रबंधन आला दर्ज़े का होता है, वे कभी भी कहीं भी न तो देर से पहुंचते हैं और न ही दिए गये समय के बाद रुकते है. उनमें फ़िल्मी दुनिया के दिग्गज अमिताभ बच्चन, संगीतकार ओ.पी. नय्यर, आई टी  कंपनी के नारायण मूर्ती , महान संगीतकार प. शिव कुमार शर्मा  आदि का नाम बड़े ही अदब से लिया जा सकता है. सारा श्रम, ध्यान, संयम लगाने के बाद भी कभी-कभी सफलता नहीं मिलती तो यही कहना उचित होगा कि अभी सफलता का समय नहीं आया है, हालाँकि समय का हमेशा मान करना चाहिए. उस प्रतिकूल समय में धैर्य रखना होता है ताकि समय आने पर सफलता आपके कदम चूम लेगी- जैसी बहे बयार पीठ पुन तैसी कीजे. समय की गति के अनुसार जीवन मूल्यों में भी परिवर्तन सम्भव है.

        किसी की भी प्रगति, उन्नति एवं सफलता हेतु जीवन का लक्ष्य ऐसा हो कि स्वयं ज्योतिपुंज बनकर सबकी ज़िन्दगी को प्रकाशित कर सकें. इसी की प्राप्ति में संयम और अपरिग्रह नितांत आवश्यक होने के साथ-साथ संयमित श्रम को नहीं भूलना चाहिए. इसके अलावा सत्याचरण का ख्याल रहेगा तो कामयाबी हासिल करने का रहस्य भी यही बन जायेगा.  जीवन को प्रकाशित  करने के लिए भी श्रम, संयम, अपरिग्रह, सत्यता की ज़रूरत होती है. सूर्य अपना प्रकाश सभी के लिए समान रूप से देता है लेकिन लेने वाले की झोली में उतना ही प्रकाश आता है जितना वह संयम से आंकलन कर समय रहते उपयोग कर पाता है.समय प्रबंधन पर रहीम का दोहा काबिल ए तारीफ है:

समय लाभ सैम लाभ नहिं समय चूक सैम चूक/ चतुरान चित रहिमन लगी समय चूक सो हूक //

        एक सामान्य सा काम करने वाला कुम्हार श्रम करता है और किसी कम को कम नहीं आंकता. वह अपने जीवन में कितने उच्च स्तरीय मापदंड रख सकता है जो एक अनुकरणीय उदाहरण हो सकता है. एक व्यक्ति ने कुम्हार से कहा , जन्माष्टमी के लिए मुझे ढेर सारी मटकियाँ चाहिए. कुम्हार ने कहा- मैं एक दिन में सिर्फ बीस मटकियाँ बना सकता हूँ. मैं जिस गुणवत्ता की मटकी बनता हूँ , उसका उत्पादन इससे अधिक संभव नहीं है. उस व्यक्ति ने कहा- कौन सा जीवन भर रखना है, जन्माष्टमी पर फोड़ना ही तो है. जल्दी-जल्दी कैसी भी बना दो. कुम्हार का उत्तर सुनकर आप चकित हो जायेंगे— “माफ़ करिए, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप उनका क्या करेंगे. उनको एक दिन रखेंगे , एक साल रखेंगे या सौ साल, ये आपका चुनाव है. मैं घटिया मटकियाँ नहीं बना सकता.” यह सुनकर वो व्यक्ति हतप्रभ रह गया. उसने कभी सोचा भी न था कि एक सामान्य सा दिखने वाला, मिट्टी का काम करने वाला कुम्हार इतनी बड़ी सोच के साथ काम करता होगा. हमें भी जीवन में उच्च मापदंड रखना चाहिए ताकि श्रेष्ठतम सफलता हासिल की जा सके.

        असफलताओं को सफलता की राह का एक पड़ाव मानकर, उन्हें स्वीकार कर, उनसे शिक्षा ग्रहण कर अपने आप को पहले से अधिक बुद्धिमान, ज्ञानी, कर्मयोगी बनाने का प्रयास किया जाये ताकि जीवन में कोई भी कार्य बेहतर से बेहतरीन, सही तरीके से हो सके. ये कामयाबी हासिल करने की चंद आजमाई हुई सीढियां हैं जो एक सफल इन्सान, भला इन्सान बनाने में मदद करती रही हैं , करती रहेंगी.           

     

लेखक परिचिति : हर्षवर्धन व्यास , गुप्तेश्वर, कृपाल चौक के पास ,जबलपुर (म.प्र.)

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