” हम दुखी क्यों है “

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       आज जो हर ओर  इतनी  ,बेचैनी ,अशांति,दुख और उदासी का मंजर दिखाई पड़ता है ,इसका क्या कारण हो सकता है ? जबकि आज के इस भौतिक वादी युग में सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। बढ़ती मंहगाई  के बावजूद सारे भौतिक संसाधन अधिकतर घरों में उपलब्ध ही रहते है। परिवार भी छोटे होते जा रहे है, सब मनमाफिक होने के बाद भी क्यों चेहरे खुशियों से नहीं दमकते,क्यो मुस्कान नकली और हंसी खोखली नजर आती.है ? क्यों सारे रिश्ते ,हंसी,खुशी त्योहारोंऔर तारीखों के मोहताज हो गये है ?    

 कहा जाता है संपन्नता ही सुख कारण है पर आज जितना धनवान दुखी है उतना शायद ही कोई और नजर आता हो ।       

  सबसे बड़ा दुख का कारण है दूसरों का सुख और हमारी संवेदनहीनता । आलम तो यह है कि न तो हम दूसरों के दुख मे दुखी होते हैं और न ही दूसरों के सुख मै सुखी होते हैं।      हां दूसरों को दुखी देखकर मन कुछ समय के लिये सुखानुभूति महसूस जरूर कर लेता है, इसमे कहीं न कहीं हम ऊपर हो जाते है, हमे सहानुभूति देने मै आत्मसंतुष्टी मिलती है। हमारे अहंकार का पोषण हो जाता है। उदाहरण के लिये किसी के घर मै आग लगने पर हम तुरंत पहुंचते  है आंसू पोंछने थोड़ा ऊपर उठने और थोड़ा नीचे गिराने। और अगर ठीक इसके विपरीत  किसी का मकान बन रहा हो तब ?? तब हमारा पहला काम उसमे कमियां निकालना ,किसी की तरह की मदद न करना ही होता है  । और यह सब होता इसलिये है कि हम संवेदनहीन हो रहे है, हमारी संवेदनशीलता खत्म हो रही है।   

        संवेदना का अर्थ ही है सम्यक वेदना । जब दूसरों की वेदना हमे महसूस होने लगे  वही संवेदना है। स्वीकार भाव से ही संवेदना जागती है। यही मानव का मौलिक गुण है और मौलिकता ही सुखी कर सकती है ।संवेदनहीन किसी के दुख मे सिर्फ दुखी होने का नाटक ही कर सकता  है और नाटक स्वयं को  कितनी देर सुख दे पाएगा भला.?  संवेदनशील ही दूसरों की तकलीफ को अनुभव कर पाता है व उसे दूर करके ही दम लेता है। उसका हर कार्य दूसरों के सुख के लिये ही होता है और प्रकृति का तो नियम ही है जो देंगे वही मिलेगा । इसलिये वह स्वयं भी सुखी रहता है।      तो हम जितनी मात्रा में संवेदनशील होंगे उतनी मात्रा में ही सुखी हो पाएंगे। और कोई दूसरा उपाए नहीं है सुखी होने का।

           

लेखिका : रंजना मिश्रा मधुरंजन, रीवा


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