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महाकवि भासः अति सुन्दर शब्दों में लिखते हैं –

🌻 “कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना ।
चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्ति ।।“
🌻

अर्थात यह संसार परिवर्तनशीलहै। काल का चक्र तो रथ के पहिये के अरों की भांति सदैव चलता ही रहता है। प्रत्येक मनुष्य के भाग्य में दुख और सुख आते ही रहते हैं। इसीलिए काल चक्र के चलते-चलते मनुष्य आज जिस अति विनाशकारी काल से गुजर रहा है, वह भी शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। किंतु इसके बाद मानव जीवन अनेक बदलावों से भर जाएगा, जो कि उसके जीवन का अटूट अंग बन जाएंगे। एक सुखी तथा निरोगी जीवन जीने के लिए मनुष्य को इन तब्दीलियों को अपनाना अति आवश्यक हो जाएगा।
जी हाँ ! बात कर रहे हैं पूरे विश्व को घुटनों के बल झुकने पर विवश कर देने वाली प्रलयंकारी विपत्ति COVID-19 की।
कोरोना संकट के बाद के विश्व में यदि सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषय जिसके प्रति मानव को सबसे अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है, वह है -पर्यावरण संरक्षण ।
हमारे वेदों में जल, वायु, पेड़ों, जीवों-जानवरों की मन्त्र जाप से पूजा की जाती थी और यह कोई अन्धविश्वास नहीं अपितु उनके सम्मान में उनकी सुरक्षा हेतू किया जाता था। ये सभी हमारे जीवन प्रदायक हैं तथा जो हमारे लिए पूजनीय है, उसका हम सदैव आदर करते हैं। इसके अतिरिक्त श्री गुरु नानक देव जी ने भी कहा था –
“ पवन गुरु पानी पिता, माता धरत् महत्।।“
किन्तु हम आज इतने अत्याधुनिक हो गए हैं कि हमने अपने महान सांस्कृतिक विचारों की धज्जियाँ उडाते हुए प्रकृति की प्रत्येक अनमोल देन को दूषित कर दिया है।
पण्डित श्री विष्णु शर्मा जी ने सत्य ही कहा था –
“बुभुक्षितः किं न करोति पापं।।“
अर्थात ‘कि भूखा प्राणी कौन-सा पाप नहीं करता।‘ सच में यश, कीर्ति तथा विकास के भूखे मानव ने प्रकृति दोहन के साथ-साथ बेजुबान जानवरों तक को नहीं छोड़ा। इसका सबसे बङा प्रमाण चीन के वुहान शहर का वह बाज़ार है जहां जीवित मृत जानवरों को बेचा जाता है। मनुष्य की इन्हीं अमानवीय गतिविधियों ने उसे विनाश की चरम सीमा पर पहुंचा दिया है।
अब देखिए ! आज लाखों लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, लाखों पीड़ित हैं, असंख्य लोग भूख से व्याकुल हैं, अपनों से दूर हैं, कारोबार ठप्प हो गए हैं, जनजीवन जैसे थम-सा गया है। चारों ओर केवल भय व्याप्त है।
किन्तु अब प्रकृति भी क्या करे?” अपने पुत्र के कुपुत्र होने पर उसने अपने विकास का मार्ग स्वयं ही ढूँढ लिया है। प्रकृति को अपनी सबसे अद्भुत तथा शक्तिशाली रचना मनुष्य पर बड़ा ही गर्व था। उसने इसे विभिन्न प्रकार के फलों-फूलों, पेङ-पौधों, शीतल जल, शुद्ध वायु, संतुलित तथा समय सीमा में बाधित सूर्य का प्रकाश, चांद की शीतलता, वर्षा, मानव जीवन के सुखद निर्वाह हेतु जीव-जंतु तथा पक्षियों आदि से फलीभूत कर दिया।
किन्तु असीम लोभी वृत्ति वाले स्वार्थी मानव ने सभी अमूल्य भण्डारों का बङी ही बेरहमी से दोहन किया है, विनाश किया है, प्राकृतिक प्रबन्धन असंतुलित कर दिया। वनों को काटकर हरी-भरी जमीनों को रेगिस्तान बना दिया है, पशु-पक्षियों से उनके आश्रय छीन कर अपने घरों को सजा लिया है। रक्षक से भक्षक बन कर जीवों की निर्मम हत्या करता गया है। धन कमाने की होड में वह यह भूल गया है कि धन से वह विनाशकारी हथियार खरीद सकता है किन्तु मौसमों की वर्षा, सूर्य का प्रकाश, चांद की शीतलता, तथा चंचल हवा नहीं खरीद सकता।
यहीं बस नहीं, उसका यह लालच सुरसा के मुख की भांति बढ़ता ही चला जा रहा है।
अतः प्रकृति समय-समय पर विकराल रूप धारण कर उसे यह समझाने का प्रयास करती है कि –
“कृते प्रतिकृतं कुर्यात्तडिते प्रतिताडितम्।।“
अर्थात वह मानव को उसकी दुष्कर्मों के लिए सदैव दण्डित करती रहेगी।
विन्सटिल चरचिल ने कहा था – “कभी किसी संकट को व्यर्थ न जाने दें।“ हर संकट से हमें कोई न कोई सीख अवश्य मिलती है।
अब देखिए, दशकों के पश्चात पर्यावरण इतना स्वच्छ हुआ है। पक्षियों ने सकून की उड़ान भरी है। वर्षों पश्चात कुदरत के सुन्दर मुख से प्रदूषण की हल्की सी धूल साफ हुई है। कई व्यर्थ की रीतियों तथा व्ययों छुटकारा मिला है। स्वयं का साक्षात्कार करने का मौका मिला है। प्रकृति के मनमोहक रूप देखने को मिले हैं।
अतः इस संकटकाल के पश्चात मनुष्य को पर्यावरण संरक्षण के प्रति निश्चित रूप से सतर्क होना होगा । उसे अपनी व्यर्थ तथा गैर जरूरी इच्छाओं पर अंकुश लगाना होगा । प्रकृति पर अधिकार तो बहुत जमा लिए , अब कर्तव्य निभाने होंगे । जिन्दगी जीने के बनावटी तौर तरीकों तथा विकास की इस अन्धाधुन्द दौङ में वो अपना धैर्य खो बैठा है और भूल गया कि –
“कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
समय पाए तरूवर फले, केतक सींचो नीर।।“
उसे यह समझना होगा कि पृथ्वी पर मानव के अतिरिक्त अन्य जीवों का भी अधिकार है। प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक पेङ लगाने चाहिए। जल को दूषित करने वाले सभी कारकों पर रोक लगानी चाहिए, जल का दुरुपयोग नही करना चाहिए। विषैली गैसों तथा धुएं के रिसाव पर अंकुश लगाकर वायु को शुद्ध बनाना होगा। जानवरों से मित्रता भाव रखते हुए वनों को न काटकर उनके आश्रय स्थानों की रक्षा करनी होगी। अपने खान पान की आदतों में सुधार लाते हुए अन्न तथा अन्य सभी खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोकनी होगी। लोगों को बङे स्तर पर जागरूक करने आवश्यकता है। सरकारों को भी चाहिए कि वे पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कानून बनाएं और उन्हें सख्ती से लागू करें ।
जी हाँ, यदि मनुष्य चाहता है कि प्राकृतिक आपदाएं, मौसमों में भयावह असंतुलन तथा नयी-नयी बीमारियां और अनौपचारिक महामारियां न हों तो पूरे विश्व को पर्यावरण संरक्षण के लिए कमर कसनी होगी। अपने ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग प्राकृतिक प्रबन्धन के विनाश के लिए नहीं अपितु विकास के लिए करना चाहिए ।
स्वामी तुलसीदास जी ने कहा था –
“दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।
तुलसी दया ना छोडिए, जब तक घट में प्राण ।।“
सच में, मनुष्य को अपने मन में सदा दया भाव रखना चाहिए क्योंकि यदि हमारे मन में दया तथा प्रेम का भाव होगा तो हम कभी भी किसी मानव, जीव या प्राकृतिक देन का शोषण नहीं करेंगे। इसके साथ ही हमें ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धांत को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा।
तभी जाकर इस पृथ्वी गृह पर मानव जीवन संभव है अन्यथा आने वाले युगों के लिए मनुष्य जाति एक कहानी बन कर रह जाएगी।
अतः हमें बनावटी दुनिया से ऊपर उठकर सत्य की ओर बढ़ना चाहिए। स्वयं में सुधार लाने हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए एक सार्थक एवं भरसक प्रयास करना होगा। निःसंदेह प्रकृति रूपी माता हमारी इस कोशिश को फलीभूत करेगी, क्योंकि-
“लहरों से डर कर नौका कभी पार नहीं होती ,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।“

दविन्द्र कौर 🌸

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