प्राचीन शिक्षा पद्धति मानव का विकास

By Ayush Raj

3
1271
Rate this post
जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित है। वर्तमान युग में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्रियों इसी बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में प्रत्येक युग की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग रहें हैं इसलिए वर्तमान भारत जैसे जनतंत्रीय देश के लिए उचित उद्देश्यों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रकाश डालने से पूर्व हमें अतीत की ओर जाना होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में हम प्राचीन, मध्य तथा वर्तमान तीनो युगों की भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं –

(1) पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना – प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य था। शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा के गुणगान करना तथा गुरु के कुल में रहते हुए धार्मिक त्योहारों का मानना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करते उसे आध्यात्मिक दृष्टि से बलवान बनाती है। इस प्रकार साहित्यिक तथा व्यवसायिक सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य बालक को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद सदस्य बनाना था।

(2) चरित्र निर्माण – भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना। उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था। इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था।

(3) व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना प्राचीन शिक्षा का तीसर उद्देश्य था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्म-सम्मान की भावना को विकसित करना परम आवश्यक समझा जाता था। अत: प्रत्येक बालक में इस माहान गुण को विकसित करने के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, आत्म-नियंत्रण तथा विवेक एवं निर्णय आदि अनके गुणों एवं शक्तियों को पूर्णत: विकसित करने का अथक प्रयास किया जाता था।

(4) नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास- भारत की प्राचीन शिक्षा का चौथा उद्देश्य था – नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता था कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं। अत: बालक को माता-पिता, पुत्र तथा पत्नी के अतिरिक्त देश अथवा समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता था। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती थी जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें।

(5) सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति – सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति करना प्राचीन शिक्षा का पांचवां उद्देश्य था- इस उद्देश्य की प्राप्ति भावी पीढ़ी को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं व्यवसायों तथा उधोगों में प्रशिक्षण देकर की जाती थी। तत्कालीन समाज में कार्य-विभाजन का सिधान्त प्रचलित था। इसी कारण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय राजा भी हुए और लड़का भी एवं शुद्र दर्शानिक भी। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य व्यक्ति के लिए यही उचित था कि वह अपने परिवार के व्यवसाय को ही अपनाये। इससे प्रत्येक व्यवसाय की कुशलता में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप सामाजिक कुशलता एवं सुख की निरन्तर उन्नति होती रही।

(6) संस्कृति का संरक्षण तथा विस्तार – राष्ट्रीय सम्पति तथा संस्कृति का संरक्षण एवं विस्तार भारत की प्राचीन शिक्षा का छठा महत्वपूर्ण उद्देश्य था। प्राचीन काल में हिन्दुओं ने अपने विचार तथा संस्कृति के प्रचार हेतु शिक्षा को उत्तम साधन माना। अत: प्रत्येक हिन्दू अपने बालकों को वही शिक्षा देता था, जो उसने स्वयं प्राप्त की थी। यह प्राचीन आचार्यों के घोर परिश्रम का ही तो फल है की हमारा वैदिक कालीन सम्पूर्ण साहित्य हमारे सामने आज भी ज्यों का त्यों सुरक्षति है।प्राचीन युग की शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों पर प्रकाश डालने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर आते हैं की हमारी तत्कालीन शिक्षा-पद्धति ऐसी थी जिसमें भारतीय जीवन तथा बालक के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक आदि सभी प्रकार के विकास का व्यापक दृष्टिकोण निहित था।

By Ayush Raj

लेखक परिचय  मेरा नाम आयुष राज है। मैं इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का मीडिया स्टडीज का छात्र हूं। मैं बिहार के भोजपुर जिले के आरा का रहने वाला हूं।

3 COMMENTS

Leave a Reply to Sachin Singh Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here