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मानव के सामाजिक प्राणी होने के कारण, वह दुनिया का प्रत्येक काम स्वयं नहीं कर सकता है. दैनिक क्रिया कलाप से बडी – बड़ी परियोजनाओं तक, किसी न किसी की सहायता लेनी पड़ती है- बचपन में माता-पिता की, कुछ बड़े होने पर शिक्षकों की, व्यापार/नौकरी में अपने से वरिष्ठों की और संभावित मानसिक शांति के लिए किसी अध्यात्मिक/योग गुरु की. हरेक को समाज में, परिवार और दोस्तों में एक न एक अहम् भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है. परिवार की आर्थिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, मानव पर भिन्न-भिन्न असर डालती है. उल्लेखनीय है कि स्वास्थ्य की कमी, दुर्बलता, परिस्थिति जन्य परेशानियों, समस्याओं आदि का सामना करने , हल करने हेतु किसी न किसी प्रकार की मदद, सच्चे निर्देशन के ज्ञान की व्यावहारिक तथा क्रियात्मक सलाह, मानसिक संबल आवश्यक होते हैं, जो बिना किसी अनुभवी व्यक्ति के अक्सर असंभव जान पड़ते हैं. आसपास के माहौल को समझने और समायोजन हेतु हमेशा एक अनुभवी सद्परामर्शक की ज़रुरत होती है. कहीं पे पढ़ी ये पंक्तियों में बहुत गहरी बात चंद शब्दों में बयां की गई है: “ मार्गदर्शक, सद्परामर्शक सड़कों पर लगे सुंदर लैम्पपोस्ट की तरह होते हैं, वे हमारी यात्रा की दूरी तो कम नहीं कर सकते लेकिन हमारे पथ को रोशन और यात्रा को आसान कर देते हैं.”

बुद्धिमानी,समझदारी एवं मार्गदर्शक की आवश्यकता:

कहा भी गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति, समझदार भी हो, ज़रूरी नहीं है. बुद्धिमानी किताबों से निकलती है तथा शिक्षा के साथ कक्षाओं में प्राप्त होती है. समझदारी अनुभव से मिलती है, अच्छे लोगों के संग, उनके विचारों से मिलती है यानी खुले वातावरण में बिखरी पड़ी रहती है. अपनी-अपनी जगह दोनों महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं. बुद्धिमानी से सफलता अवश्य हासिल होती है, लेकिन शांति के लिये समझदार होना पड़ता है. जब बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो रहे हों तो उन्हें उम्र बढ़ने के साथ समझदारी बढ़ने का महत्व समझाना ही पड़ता है. आखिर समझदारी क्या होती है? जो उम्र के साथ बढती/बदलती है. कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि बच्चों में समझदारी का विकास करने के लिए माँ-बाप का बुद्धिमान होना ज़रूरी होता है, जबकि समझदारी का बुद्धि से कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है. बच्चों में बुद्धिमानी डालते समय अवश्य मस्तिष्क सहायक होता है परन्तु समझदारी बताते समय या कुछ भी सिखाते समय ह्रदय का ही उपयोग होता है.
एक फ़िल्मी गाने की इन लाइनों का कायल होना कभी-कभी आवश्यक महसूस होता है: “कभी तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते और कहीं पे निकल आये जन्मों के नाते.” कई संबंधों को, जान पहचान वालों को लोग अपने जीवन का अहम् हिस्सा मान बैठते हैं, तथापि एक न एक दिन वे यूं प्रथक हो जाते है मानों कभी जुड़े ही न हों. हालात और समय की मजबूरी दूर हटने की विवशता बन जाती है. कतिपय भावुक, संवेदनशील लोग इस दूरी के कारण मानसिक रूप से पीड़ित हो जाते है. मान लीजिये दूर होने का कारण देहावसान हो तो? हरेक रिश्तों में यही दृष्टिकोण कारगर सिद्ध होता है और मानसिक पीड़ा सहनीय बना देता है. दुनिया में सबसे अधिक प्यार और वफ़ादारी माँ-बाप ही निभा पाते हैं, वह भी निस्स्वार्थ. माँ-बाप के अनुभवों के व्यावहारिक, सच्चे और निस्स्वार्थ मशविरों के साए तले इस मतलबी दुनिया में व्यक्ति निरंतर प्रगति, उन्नति करते चलते हैं. इसी कारण उनको पारसमणि कहा जाता है जो लोहे को छूकर ही सोना बना देता है.

प्रेरक अनुभव:

जब जीवन में पीछे पलटकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे जीवन पर मेरे पिता का अत्यधिक प्रभाव पड़ा, जिनने प्रदेश के बेतूल जिले के एक छोटे से वन्य ग्राम में पैदा होकर राजधानी में संचालक, राज्य शिक्षा संस्थान के पद तक का सफ़र अपने बलबूते पर तय किया क्योंकि उनके पिता उन्हें १७-१८ वर्ष की आयु में चार भाई, चार बहनों का बोझ छोड़कर स्वर्गवासी हो गए थे. विधवा माँ और आठ बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा, विवाह की ज़िम्मेदारी बखूबी निबाही. इसके साथ-साथ अपने ज्ञान, शिक्षा में उत्तरोत्तर वृद्धि भी करते रहे, दो विषयों में एम्.ए. , शिक्षा में डॉक्टर की उपाधि वगैरह. तात्पर्य यह है कि जिस विश्वविद्यालय में पढ़े उसी में शिक्षा विभाग के डीन बने. इन सभी परिस्थितिजन्य थपेड़ों ने उनको तुलनात्मक रूप से कम सहनशील, कुछ-कुछ क्रोधी और अत्यधिक अनुशासन प्रिय बना दिया था, जिसका पूरा-पूरा असर हम सब पर ऐसा पडा कि जो वस्तु जिस जगह से उठाई गई, अगर वापिस उसी स्थान पर न मिली तो शामत आई. विभिन्न विषयों पर लगभग ७३ किताबों के रचनाकार रहे. इतने सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे कि सभी को लिखने के लिए स्थानाभाव होगा. न जाने कितने पी.एच.डी. और एम. एड. के प्रेरणास्त्रोत, मार्गदर्शक रहे. कितने विद्यार्थी उनके गाढे समय में भी निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करते उपकृत हुए. उनके जीवन का आरम्भ मामूली शिक्षक से होकर विभिन्न सोपानों में व्याख्याता, सहायक प्राध्यापक, प्राध्यापक एवं पी.जी.बी.टी. कॉलेज के प्राचार्य तक रही. फिर प्रशासकीय कार्यों में संयुक्त संचालक, संचालक राज्य शिक्षण संस्थान तथा इस दरम्यान उपलब्धियों की एक श्रृंखला है, जिन्हें संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है.

विभिन्न पदेन ज़िम्मेदाराना उपलब्धियां:

शिक्षा अधिकारी, म.प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग. सदस्य- माध्यमिक शिक्षा मंडल भोपाल, सागर, रविशंकर(रायपुर), रीवा, विक्रम(उज्जैन) और भोपाल विश्वविद्यालय में अकादमी समिति, कार्यकारी समिति के सदस्य, पाठ्य पस्तक निगम में गवर्नर मंडल के सदस्य, शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरुस्कार की अनुशंसा हेतु राज्य स्तरीय समिति के सम्मानित सदस्य, गीता परिषद् के कुलपति, प्रथम सान्दिपनी सम्मान से सम्मानित.
प्रकाशित पुस्तकें: कुल ७३ प्रकाशित पुस्तकों में कुछ: पाठशालाओं का प्रबंध, शिक्षा शास्त्र की भूमिका, भारत में अंग्रेजी शिक्षा का इतिहास, संस्कृत शेखर (तीन खंड), तुलनात्मक शिक्षा, अध्यापन कला, अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश, ब्रम्हज्ञान और भगवतगीता का हिंदी भाषांतर आदि.

सामाजिक कार्य :

कहा भी गया है कि यदि एक पाठशाला खुलती है तो अनेक जेलें बंद हो जाती हैं. सामाजिक क्रिया कलापों के अंतर्गत: संस्थापक सदस्य, अध्यक्ष, प्रबंधक- दो (एक कन्या एवं एक बालक )उच्च्तर माध्यमिक शालाएं जबलपुर, जबलपुर वि.वि. (आज कल रानी दुर्गावती वि.वि.) की स्थापना में नींव के पत्थर, नवयुग कॉलेज की सञ्चालन समिति हेतु कुलाधिपति ( राज्यपाल) द्वारा नामित , प्रदेश के सर्वाधिक प्राचीन रोबर्ट्सन कॉलेज (जिसके वे छात्र भी रहे) के १७५ वर्ष ( १८३६-१९९६) की शताब्दी उपरांत हीरक जयंती स्मारिका के प्रधान संपादक, टेनेस्सी राज्य- संयुक्त राज्य अमेरिका के मानद नागरिक आदि.
महान शिक्षाविद व् गुरु के नामवर शिष्य: बहुत ही शानदार नामी गिरामी टीचर एवं महान मशहूर शिक्षाविद के लम्बे कालखंड में नामचीन असंख्य छात्रों में कुछ के नाम निम्नानुसार हैं:-
डॉ.देवेन्द्र शर्मा, पूर्व कुलपति, जवाहर लाल नेहरु कृषि वि.वि., जबलपुर. २. कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, फिल्म पटकथा लेखक, नाट्यकार. ३.जवाहर चौरसिया ‘तरुण’ , शिक्षक एवं कवि. ४. मेजर जनरल पी.डी.शर्मा, ए.वी.एस.एम. (ए.ई.सी.) ५. प्रभात तिवारी, हिंदी कवि. ६. जस्टिस विपिन चन्द्र वर्मा, पूर्व मुख्य न्यायाधीश हरयाणा उच्च न्यायालय. ७. जस्टिस शशिकांत सेठ, पूर्व मुख्य न्यायाधीश हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय. ८. डॉ.अमरकांत सेठ, प्राचार्य शासकीय अभियांत्रकी महाविद्यालय. ९. डॉ केशव चंसोरिया, डीन मेडिकल कॉलेज, जबलपुर. १०. डी.जी. भावे अतिरिक्त मुख्य सचिव म.प्र. ११. शरद चन्द्र बेहर , मुख्य सचिव म.प्र. १२. राम मनोहर सिन्हा- आचार्य नन्दलाल बोस के शिष्य, महान चित्रकार, पेंटर. १३. राधेश्याम अग्रवाल, नामी व्यापारी.

प्रभावशाली व्यक्तित्व:

मुझ पर सर्वाधिक प्रभाव उनकी समय की पाबन्दी, लेखन कला और भाषण कला का हुआ. सभी महान लोगों में समय की पाबन्दी पाई जाती है जैसे: महात्मा गाँधी, अमिताभ बच्चन. लेकिन वक़्त की पाबन्दी के बारे में एक बात मैनें हमेशा महसूस की; यदि आप कहीं समय से पहुँच जाओ तो तारीफ़ करने वाला कोई नहीं मिलता. अस्तु, शायद लेखन विरासत में आ गया, तथापि भाषण देने की कला नहीं सीख पाया. आरंभिक दौर में लिखकर सामान्यतः प्रारूप उनको दिखाता था. वे उसमे जोड़-घटाकर रचनात्मक सोच के साथ दस मिनिट तक समझाया करते और स्वयं लिखकर फाइनल करने को कहते. इस प्रक्रिया से शनैः-शनैः लेखन में उत्तरोत्तर सुधार आता गया. गत वर्ष अपनी पुरानी यादगारों को समेटते समय एक अंतरशालेय निबंध प्रतियोगिता १९७० का प्रथम पुरस्कार का चांदी का कप मिला- अभिभूत हो गया. प्राथमिक विद्यालय उत्तीर्ण होने के पश्चात् अंग्रेजी पढने की बारी आई तो उनकी फुर्सत के समय अंग्रेजी पढना आरम्भ किया, जिससे मैं उक्त भाषा में निष्णात हो गया और इंजीनियरिंग पढ़ते समय भाषा के कारण कोई कठिनाई नहीं आई. पिताजी को कभी भी, कहीं भी भाषण देना हो, पहले से उसकी तैय्यारी, बिंदु लिखे जाते. लेकिन जब धाराप्रवाह भाषण चलता तो अपनी तैय्यारी, बिन्दुओं पर नज़र डालने की भी ज़रुरत नहीं पड़ती. शुरू में डर के मारे, अत्यधिक अनुशासन में बंधे, अपनी कोई बात, कोई मांग उनसे कहना बहुत कठिन था. परन्तु उनके लाड-प्यार में कोई कमी है, यह कभी महसूस नहीं हुआ. हमारी माता, पिता के स्वभाव के एकदम विपरीत शांत स्वभाव की गृहस्थन थीं. नाते-रिश्तेदारी, शादी-ब्याह, खान-पान, बाज़ार-हाट वे ही करतीं थीं. सब काम निबटाती रहीं जब तक जीवित रहीं. हमने भी ये सारे सबक सीखे और आज तक उनकी हिदायतें कानों में बाज़ार करते समय गूंजती रहतीं हैं. अपनी माँ से खाना बनाना भी सीखा जो जीवन की कई परिस्थितियों में अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ. विरासत में उनका शांति प्रिय स्वभाव मेरे मन-मस्तिष्क पर छा सा गया है .

अनुशासित व्यक्तित्व:

हालाँकि मेरे पिता की हार्दिक इच्छा थी कि मैं डॉक्टर बनूँ, जिसके लिए कुछ बहुमूल्य वर्ष ख़राब भी हुए. इसी की वजह से मेरी जन्मतिथि में सुधार हेतु पापड़ बेले, न्यायालय की शरण में भी जाना पड़ा. उनका इतना दबदबा और अनुशासन था कि विरोध करने का साहस ही नहीं जुटा पाए. वो तो बाद में नौकरी चाकरी में लगे, शादी हो गई, तब कहीं जाकर खुलकर उनसे बात करना शुरू हुआ, जो उनके जीवन पर्यंत जारी रहा. अंततः जीव विज्ञान छोड़कर गणित पढ़ा, जिसके लिए अपने एक शिक्षक चाचा का जीवन भर अहसानमंद रहा, जिसकी वज़ह से इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिलना संभव हुआ. इसको दुष्यन्तकुमार जी ने कुछ यूं कहा:
कौन कहता है कि आसमान में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.

जीवन में मार्ग दर्शक की अहमियत:

आज मैं यह बात फक्र के साथ कह सकता हूँ कि कुल मिलाकर एक अनुशासित लेकिन महत्वाकांक्षा विहीन जीवन जिया, जिसमे माता-पिता का आशीर्वाद सदा हमारे ऊपर रहा. इन दिनों जो शौक, जीवन की आपाधापी में पीछे छूट गए थे, उनको धीरे -धीरे पूरा करने के प्रयत्न में लगा हुआ हूँ. साथ ही उस जीवन से, उस अपराध बोध से मुक्ति पाने का प्रयास कर रहा हूँ जिससे जीवन के किसी गलत काम से, सच-झूट बोलने से, जाने-अनजाने किसी के मर्मस्थल को चोट पहुंची हो. यह सब, अपने जीवन में; सभी करते हैं परन्तु यह नहीं समझ पाते कि ऐसा कब, कहाँ, किसके साथ हो गया? ईश्वर अपनी तराजू लिए इंसाफ करने बैठा ही है. तथापि धरती पर भी अनुभवी, सद्परामर्शक की आवश्यकता होती है जो समय-समय पर आगाह कर सके क्या गलती, भूल हो रही है? मेरे मार्गदर्शक, मेरे फिलोसफर, मेरे माता-पिता ने हर कदम पर ऐसा किया भी. आज उनकी अनुपस्थिति में उनके अनुभवों, सीखों का लाभ निरंतर मिल रहा है और फायदा भी हो रहा है.
तरुणावस्था (टीन ऐज) में मेरे पिता ने मुझे जिंदगी का फलसफा पहचानने के लिए पेंसिल को आदर्श बनाकर एक कहानी सुनाई थी, जो आज भी शब्दशः याद है जिस पर कई परिस्थिरियों में अमल भी किया है. बहुत ही फिलोसोफिकल स्टोरी है, बहुत मुमकिन है मेरे तत्वदर्शी स्वभाव में इसी का हाथ हो. इसकी फिलोसोफी इस बात पर निर्भर करती है कि पेंसिल को देखने का दृष्टिकोण कैसा है? अन्यथा आपको उसकी ये सात विशेषताएं नज़र नहीं आ सकती जो जीवन हेतु अनमोल सबक सिखाती हैं:–

पहली विशेषता:

सबमें महान काम करने की अपार क्षमता होती है, लेकिन इस बात को कभी न भूलें कि सारे क़दमों के पीछे एक हाथ होता जो उठाये क़दमों का मार्गदर्शक होता है. उस हाथ को ईश्वर समझें जो आपके भले के निर्देश देता चलता है. दूसरी विशेषता: घिस जाने पर लिखना बंद करके पेंसिल को छीलना होता है, हालाँकि उसमे पेन्सिल को कष्ट पहुँचता है, परन्तु बाद में वो सरलता और तीक्ष्णता से चलती है. अतः कुछ नया और अच्छा सीखने के लिए दर्द व दुःख उठाना होते हैं ताकि बेहतर इंसान का निर्माण हो सके. तीसरी विशेषता: पेन्सिल हमेशा इरेज़र (रबर) का इस्तेमाल करने की सीख भी देती है, ताकि गलतियों को मिटाया जा सके. तात्पर्य यह है कि कोई ख़राब काम नहीं हुआ, वरन इंसाफ के रास्ते पर चलने की सीख दे रही है. चौथी विशेषता: पेन्सिल का भीतरी हिस्सा ग्रेफाइट वाला उसके बाहरी लकड़ी के आवरण की तुलना में अधिक महत्व रखता है. अतः मानव को भी सदा जो भीतर घटित हो रहा हो उस पर अधिक ध्यान/ख्याल रखना चाहिए. पांचवीं विशेषता: पेन्सिल जिस सतह पर भी चले , अपने क़दमों के निशान छोडती है. ज्ञातव्य है कि जीवन में जो कुछ भी किया जाता है उसके निशान रह जाते हैं. अतः अपना प्रत्येक कर्म सावधानी पूर्वक करने का प्रयास करें. छठी विशेषता: पेन्सिल लगातार उपयोग में आते-आते छोटी, और छोटी, होती जाती है उसी प्रकार जीवन में निरंतर उम्र बढ़ रही है तथा जीवन कम होता जा रहा है. अतः आजीवन सीखने की कोशिश करते रहें एवं कुछ न कुछ सकारात्मक करते चलें. सातवीं विशेषता: पेंसिल अंत तक तथा ख़त्म होने तक लिखती रहती है. अतः मौत तक उपयोगी एवं उर्वर बने रहें. पेंसिल भले ही ख़तम, गायब हो जाये लेकिन अपने किये गए कार्यों के निशान छोडती जाती है.

दिल की बात:

एक बात और कहना चाह रहा हूँ कि मानव जीवन की भागदौड के दौरान बहुत बार ऐसा हो जाता है कि निजी समस्याओं का समाधान स्वयं नहीं कर पाते हैं. साथ ही तनावग्रस्त तन, मन एवं जीवन किसी दूसरे क्षेत्र में विकास अथवा समायोजन के काबिल नहीं रह पाता है. तत्समय माँ-बाप की सीख, शिक्षा और निर्देशन की नींव पर ही शैक्षिक, व्यावसायिक, व्यक्तिगत, सामाजिक, नैतिक, अध्यात्मिक, शारीरिक विकास संभव हो पाता है. जिस ईमानदारी, निष्कपट प्यार, निस्स्वार्थ स्नेह के लिए माता-पिता होते हैं, वही ईमानदारी, स्नेह अन्य किसी भी सम्बन्ध में संभव ही नहीं होती, न हो सकती है. यही कारण है कि वे सभी प्रकार से, सभी के लिए, सभी परिस्थितियों में मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार्य रहते हैं.
इसके साथ-साथ यह भी मानना पड़ेगा कि हरेक का अपने माता-पिता से नाता तितली व कुकून जैसा होता है. तितली को भी नवजीवन के लिए कुकून छोड़ना पड़ता है क्योंकि गुज़रा वक़्त, एक हद के बाद जीवन के किसी मोड़ पर, कोई स्थान नहीं रख पाता है. समय के साथ कुछ लोग भौतिक दूरियां तो बना ही लेते हैं तथा कुछ मृत्यु- जो शास्वत सत्य है, को प्राप्त होते हैं. परंतु उसके पूर्व वे हमारे स्वभाव, आचरण की प्रत्येक नींव को इतना पुख्ता कर देते हैं कि उनके दिखाए मार्ग पर चल कर हर समस्या का समाधान होता रहता है एवं हरेक कमी की आपूर्ति होती रहती है. कई सम्बन्ध जिनको जीवन का महत्वपूर्ण अंश मान लिया जाता है, एक दिन ऐसे टूट जाता है, मानों कभी जुडा ही नहीं था. यही मानसिक पीड़ा के साथ परेशानी का सबब बन बैठता है. इसी अवसर पर तितली व कुकून का फलसफा काम करता है. कुकून में पल्लवित होकर जब तितली बाहर आ जाती है तो कुकून खोल मात्र है जिसका छूट जाना ही उसका प्रारब्ध है अर्थात उस दौर, उन सबंधों के विषय में सोचने वाली पीड़ा बेमानी हो जाती है. इसका सबसे बड़ा सच मौत है, वह फिर चाहे संबंधों की हो या सम्बन्धियों की. इस दृष्टिकोण से देखकर किसी भी सोच/पीड़ा का कोई अर्थ नहीं है.

सीमान्त मार्गदर्शन/परामर्श:

जिस तरह हरेक बात, वस्तु, काम की एक सीमा होती है उसी तरह जीवन की भी एक हद होती है. मृत्यु जीवन का अंतिम सच है और प्रत्येक मानव को एक भले इंसान की तरह मृत्यु की तैय्यारी अवश्य करते रहना चाहिए. गीता के दूसरे अध्याय के २७ वें श्लोक में है: “जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:”—अर्थात जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अटल है, जिसे कबीरदास जी ने कुछ यूं कहा है:-
आया है सो जायेगा राजा, रंक, फकीर/ एक सिंहासन चढ़ी चले,एक बंधे ज़ंजीर//
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय/ दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय//

उपसंहार:

तथापि अपने जीवन में पेंसिल को आदर्श मानकर दिखाई गई राह पर चलना हमेशा कारगर रहा. मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि जब भी मौत आएगी तो आनन-फानन, तुरत-फुरत- बिना कोई दर्द दिए अपना काम करेगी, कोई रोना धोना नहीं, कोई पछतावा नहीं, न किसी मुक्ति की कामना और न ही मन में कोई अपराध बोध. तब तक जोर शोर से जीते हुए अपने माता-पिता, शिक्षकों, जीवन-संगिनी, परिवार, परम मित्रों का आभार, धन्यवाद करना चाहता हूँ; क्योंकि आज जो कुछ भी हूँ- उससे पूरी तरह संतुष्ट हूँ, जिसके मूल में वे सभी हैं- उनके सद्प्रयास, नेक सलाहें, दिए गए सबक/सीखें, शुभकामनायें, आशीर्वाद. मैं अपने श्रद्धेय जनक, अपने प्रेरणास्त्रोत, बेहतरीन मार्गदर्शक, निस्स्वार्थ परामर्शक डॉ. जगदीश प्रसाद व्यास को उनकी एक सौ एक वीं जयंती पर इससे बेहतर कोई श्रृद्धांजलि, कोई आदरांजलि नहीं दे पा रहा हूँ.

हर्षवर्धन व्यास
गुप्तेश्वर, कृपाल चौक के निकट, जबलपुर

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