मुंबई लोकल में एक यात्री की जेब कट जाती है. अपनी व्यथा, जब वह विभिन्न सहयात्री और पुलिसवाला से करता है तो उसे दिलचस्प सुझाव मिलते हैं. विभिन्न सहयात्रियों की प्रतिक्रया और सुझावों को इस कविता में नामचीन कवियों और शायरों की अंदाज में व्यक्त किया गया है.
सिपाही:
कैसे कट गई जेब तुम्हारी ?
करीने से उसे संभाले रखता,
मुट्ठी से ज़रा दबाये रखता,
इधर-उधर नजर गड़ाये रखता,
फिर जेबकतरे को मौक़ा नही मिलता,
ये मनहूस पल न तुझे देखना पड़ता.
बूढा हवलदार:
जेबकतरे से बचने का बस एक है मंतर,
कि पैसा बटुए में डाल रख पैंट के अंदर.
फिर चाहे जेबकतरे की नानी मर जाए,
लाख सर खुजलाये पर बटुवा काट ना पाए.
मैथिलीशरण गुप्त (उदारवादी )
घोर कलियुग आ गया, तुम्हारे राज्य में हे राम!
फौलादी हाथों को न मिल रहा, देख! मेहनत का काम.
जेबें काटकर इंसान का जो भर रहा है पापी पेट,
हाय! उसे निर्वाह-निमित्त, कुछ तो दे दो भेंट.
अकबर इलाहाबादी :
जहाँ गर्दन ही सलामत नही है दोस्त,
वहाँ जेबें महफूज रहे तो लानत है.
हम तो पैसे जेब में रख चलते ही नहीं,
मालूम है कमबख्त! जेबकतरे की अमानत है.
जोश मलीहाबादी:
जेबें उड़ाने का यदि किसी को लग जाता है ऐब,
तो इंसान की छोड़िये, वह खुदा से भी कर बैठता फरेब.
इस जहीन मसले को लेकर अभी से कर दो अनशन.
रखो शर्त बस जेबकतरे की, इसी वक्त उतारी जाए गरदन.
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
जेबें काटना, छल है, कपट है, और है अन्याय,
कुटिल की धूर्तता यह साधु को कर देती निरुपाय.
केवल धन ही नहीं, स्वत्व भी लूटता है जेबकतरा,
प्राणांत करो इन पामरों का, अखिल राष्ट्र को इनसे है ख़तरा.
फिराक गोरखपुरी
कर नही सकते जो अपनी जेब की हिफाजत,
जिंदगी सजा है उनके लिए, दुनियाँ है हाजत.
होशियार नही जो फितरत से, उन्हीं के साथ ये होता है लफड़ा.
कि जेब ठिकाने उनका इत्मीनान से, लगा जाता है जेबकतरा.
हुल्लड़ मुरादाबादी
दाना रखो घर के अंदर, कमबख्त! चूहे चुरा ले जाते हैं,
अपने दरबे के कबूतरी को, अदना कबूतर उड़ा ले जाते है.
कुछ भी महफूज नही दोस्त यहाँ, फिर जेबों की बिसात क्या,
अरे! यहाँ लफंगे जागती आँखों से, काजल चुरा ले जाते हैं.
जयशंकर प्रसाद (छायावादी )
ऋतु बसंत का सुप्रभात था,
मंद-मंद बह रही थी बयार.
एकाकीपन का चादर ओढ़े,
मैं खड़ा था भीड़ बीच अपार.
तभी किसी ने चिकोटी काटी,
मैं समझा है तेरा कुटिल हास,
हुआ ज्ञात -थी कैंची जेबकतरे की
जो कुतर गई जेब प्रिये! अनायास.
नीरज (प्रेमवादी )
बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ.
जेब में पैसे अजी! दो चार रखता हूँ.
इस अजब फितरत की पायी है आज सजा,
जेबें कटने की भी यारों अपना है मजा.
चुन गया जो जेब मेरा, दिल से कितना था बड़ा?
सारा आलम कहता है उसको जनाब जेबकतरा!.
इस फन के मालिक को ‘शाहे फनकार’ कहता हूँ.
जेब में पैसे अजी! दो-चार रखता हूँ.
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (प्रयोगवादी)
छुड़ाने से कब छोड़ता पीछा,
गाय को उसका बछड़ा?
गर जेबें होगी मोटी-तगड़ी तो
उड़ा ले जाएगा जरुर जेबकतरा.
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
तेरा पैंट दिखता है बेहद पुराना,
तेरी जेब की हो चली थी आयु.
आखिर कब तक धनरूपी सीता का,
रक्षण कर पाता यह बूढा जटायु.
इसलिए जेबकतरा नही अकारण,
आया बन के मायावी रावण.
चला अपनी कैंची का चन्द्रहास,
विफल कर गया जटायु का सत्प्रयास.
आत्म-निष्कर्ष:-
भीड़ में जेब संभाले रखना, भागीरथ की तपस्या से कम नही,
और गर कट जाए तो बनती, राष्ट्रीय समस्या से कम नहीं.
By Krishna Kumar
Write and Win: Participate in Creative writing Contest & International Essay Contest and win fabulous prizes.