रिटायरमेंट : एक नयी पारी की शुरुआत

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अक्सर देखा है कि बहुत से लोग नौकरी से रिटायर होते ही कुछ ऐसा मान लेते हैं कि ज़िन्दगी में करने को अब क़ुछ भी नहीं है. या रिटायरमेंट के उस एक दिन अचानक जैसे उनको आकाशवाणी सुनाई देती है की अब वह बूढ़े हो गए हैं और किसी काम के नहीं रहे. नौकरी  के  आखिरी  दिन  ऑफिस के  कलीग्स उनको  हार  पहनाकर , गिफ्ट्स  देकर  और  तारीफ़  से  लादकर  पूरे  प्यार  से  घर  तक  विदा  करने  आते  हैं . और , अगले  दिन ! न  कोई   टेबल , न  फाइल्स , न  विज़िटर्स ,न  कोई  सलाम  मारने  वाला  और   न  चाय  मंगवाने  के  लिए  कॉल बेल ! अचानक  सब कुछ अजीब   सा हो  जाता  है . अब  सुबह कहीं जाने  की  हड़बड़ी  भी  नहीं . बहुत  से  लोग अक्सर  किसी  भी  शौक  या  उद्देश्य  के  न  होने  पर  कुछ  दिनों  में  ही  अन्य रिटायर्ड या खाली लोगों के साथ किसी पार्क में बेंच पर जा बैठते जाते  हैं और यहाँ  ताश खेलने या इधर उधर की हांकने को ही अपना डेली रूटीन बना लेते हैं. क़ुछ यह कह भी  देते हैं की पूरी ज़िन्दगी बहुत काम कर लिया, अब आराम का वक़्त है. अक्सर ये वही लोग  होते हैं जिन्होंने नौकरी के दौरान भी कोई बड़ा तीर नहीं मारा होता.

लेकिन ज़िन्दगी  के  इस  फेज़    में  बहुत  सी  संभावनाएं होती हैं  जो रिटायर्ड लाइफ को   बहुत सुन्दर और पॉजिटिव बना  सकती  हैं .  रिटायरमेंट है  सही मायने में एक फिक्स्ड रूटीन और ऑफिस के नियमों की बाध्यता से आज़ादी. रिटायरमेंट, जीवन में एक ऐसा सुनहरा अवसर है जब आप अपना रास्ता, एक नया प्रोफेशन,  एक नयी   हॉबी अपनी पसंद  के मुताबिक खुद चुन सकते हैं. बहुत से लोग बनना चाहते थे लिटरेचर में प्रोफेसर, या जाना चाहते थे टीवी एंकर या संगीत  की लाइन में, या दिल में लगन थी क्रिकेट में नाम कमाने की, पर हुआ यह की माँ बाप ने धकेल दिया इंजीनियरिंग कॉलेज में.

इस तरह जो इंजीनियर या डॉक्टर बन तो  गए, शादी के बाजार में ऊँची कीमत भी लगी, खूब नाम भी कमाया, पैसा भी बनाया और विदेशों के दौरे भी किये. लेकिन हमेशा मन में एक टीस बनी रही, की यह सब तो ठीक है, लेकिन जाना तो कहीं और था. 

रिटायरमेंट एक मौका है वही क़ुछ करने का जो करियर की रेस में या किसी दबाव में हम नहीं कर पाए. अब आप किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में गेस्ट लेक्चरर बन सकते हैं, विदेशी भाषा सीख सकते हैं, समाज सेवा में जा सकते हैं, एक्टर बन सकते है स्टेज पर, टीवी सीरिअल्स में  आ सकते हैं या फिल्मो में भी. सभी रास्ते आपके लिए खुले हैं. नहीं मिलेगा हीरो का रोल, कोई बात नहीं. हीरो का चाचा या बॉस या वकील का रोल भी क़ुछ कम नहीं. मुख़्य बात ये नहीं है की आप क्या करते हैं, बल्कि यह है अपने काम को आप कितना बखूबी करते हैं, इसमें कितना आनंद पाते हैं. और  भी  बहुत से रास्ते हैं जैसे  आप कंप्यूटर पर शार्ट ट्रेनिंग करके वेब डिज़ाइनर, ग्राफ़िक्स, कंप्यूटर कोचिंग  में भी जा सकते हैं. बस, जो भी आप करना चाहते हैं उसके लिए अपने आप को तैयार कर लें.

मेरे मन मेँ फिल्मों का बहुत गहरा शौक था और आज भी बरक़रार है. फिल्मों मेँ जाना चाहता था और पूना फिल्म इंस्टिट्यूट मेँ अप्लाई भी किया, लेकिन आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे की वहां का खर्च उठाया जा सके. आईडिया ड्राप कर देना पड़ा और रिज़र्व बैंक की नौकरी मेँ चला गया.  फिर, वहां से नाबार्ड, जहाँ मुझे जॉब सैटिस्फैक्शन और  प्रोफेशनल  ग्रोथ  के  बहुत से  अवसर मिले. इस सबके साथ भी  मन मेँ सुलग रही  फिल्मों या अन्य क्रिएटिव मीडिया मेँ जाने की इच्छा अभी भी मन मेँ  कहीं गहरी दबी अपना अस्तित्व बनाये हुए थी.       

मैने  स्वयं ही  रिटायरमेंट एज से कुछ वर्ष पहले ही नाबार्ड के सहायक महा प्रबंधक के पद से रिटायरमेंट ले ली ताकि अब क़ुछ  नया कर सकूं . लेकिन सौभाग्य से मुझे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी स्वयं सेवी संस्था राजीव गाँधी फाउंडेशन मेँ काम करने का अवसर मिला, जहाँ आठ वर्ष से अधिक मुझे बहुत क़ुछ नया सीखने और करने का सौभाग्य मिला. इस एक्सपीरियंस ने मुझमे एक नयी ही  प्रोफेशनल परिपक्वता और पहचान दी.

इसके बाद २००९ मेँ फिर एक अन्य  प्रसिद्ध संस्था मेँ ऊँचे पद पर काम करने का  अवसर मेरे सामने आया. लेकिन  मैंने क्षमा मांग ली और तुरत एक्टर फैक्टर थिएटर कंपनी मेँ एक्टिंग का शार्ट कोर्स ज्वाइन कर लिया.

मैं कहीं जानता था कि मुझमे एक्टिंग की टैलेंट नहीं है, पर एक पहले क़दम के तौर पर एक्टिंग की तकनीक और गहराईओं को नज़दीक से जानना मेरे लिए ज़रूरी था. उसके बाद मैंने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का थिएटर अप्रिसिएशन का शार्ट  कोर्स किया और उसके बाद एक अन्य संस्था से फिल्ममेकिंग का शार्ट कोर्स. यहाँ आ कर ट्रेनिंग का काम पूरा हुआ और इसके दौरान एक छोटी फिल्म दूरियां भी बनायीं जो मेरे लिए ट्रेनी असाइनमेंट थी.

इससे मुझमे कॉन्फिडेंस  आ गया कि अब मैं क़ुछ कर सकता हूँ और तलाश जारी रही. पुस्तकों से मैं अपने नॉलेज को बढ़ाता रहा. कुछ  शार्ट फिल्म्स बनाई  और  फिल्म  फेस्टिवल्स   में  भाग    लिया  जिसमे  अच्छा  रिस्पांस  मिला. साथ साथ इस क्षेत्र के लोगों से परिचय बना बढ़ा और बहुत से नए दोस्त भी मिलते गए. मैंने ट्रेवल  और   म्यूजिक  आदि  पर वीडियो   भी  बनाये  जो  मेरे  यूट्यूब  चॅनेल   पर  देखे  जा सकते  हैं.

इसके  साथ  ही  एक  विचार  आया  की  क्यों  न  मैं  लिखना शुरू करूँ ! बस  फिर  क्या  था   मैंने  अपना  पहला  ट्रेवल  लेख  लिखा  जो  एक  जानी  मानी  इंग्लिश  मैगज़ीन  में   प्रकाशित     हो   गया. 

कुछ  और लिखा  जो  समाचार  पत्रों  में  छपने  लगा  और  कुछ  अन्य मैगजीन्स  में  स्थान  पाने  लगा . इसमे मेरा घूमने फिरने और फोटोग्राफी का शौक  भी  बहुत काम आया. अब  मैं  मुख्यता  ट्रेवल  वृत्तांत  ही  लिखता  हूँ  और  अपने  कैमरा  से  लिए  फोटोज  से  उन्हें  सजाता  हूँ . 

इसी  आधार  पर  मुझे  ट्रेवल  राइटर्स एसोसिएशन  ऑफ़  इंडिया  और  इंटरनेशनल  ट्रेवल  राइटर्स     अलायन्स  की  सदस्यता  भी  मिल  गयी.  मैं अब  इसी   राह  पर  मस्ती   के  साथ  चल  रहा  हूँ. इसके  साथ   में  फिल्ममेकिंग  और  ट्रेवल  के  विषय  पर   पुस्तकें  खरीदता  और  बार बार  पढ़ता  रहता  हूँ. अब  मेरे  पास  इन  पुस्तकों  की  अच्छी  कलेक्शन  बन  गयी  है .

कुछ  नया  करने  की  लगन  मुझे  निरंतर  नए  आयामों  की  खोज  में  प्रेरित  करती  रही  और इसमें अपनी ही लिखी अंग्रेजी की पंक्तियों ने मेरा बहुत साथ दिया;

नेवर से, इट इज़ आल ओवर
नेवर से, यू कैन नॉट; नो मोर .
यू हैव मैनी मोर ओशन्स टु फैदम,
एंड मैनी मोर स्काइज टु स्कोर.

लेख एवं फोटोज़ : एस. एस. शर्मा

परिचय:
महिला, ग्रामीण तथा समाज विकास के क्षेत्र में देश की शीर्ष संस्थाओं में कार्य करने के बाद मीडिया में आने का निश्चय किया. शार्ट फिल्म्स, वीडिओज़ करते करते लेखन में रूचि ली और हिंदी तथा इंग्लिश में समय समय पर मैगज़ीन्स और  समाचार पत्र/ हाउस जर्नल्स में विभिन्न मुद्दों पर लिखा. लेकिन यात्रा वृत्तांत लिखना प्रमुख शौक़.       

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