कोरोना के दिनों में

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था संकट में सारा जहां |
ना समझ आ रहा था कि जाए कहां ||

मचा हुआ था भय का शोर |
मचा था हा हा कार चारो और ||

कोई ना बचे, था ऐसा संकट |
मानो लोग जैसे देख रहे थे मृत्यु निकट ||

हां, थी कुछ परिस्थती इतनी विकट |
की मरे हुए का परिवार भी ना जा सकता था निकट ||

ना दूर था मेरा देश भी इस परिस्थिति से |
लेकिन सब लडे इस आफ़त से कुछ अलग से ||

कुछ थी मजबूत हमारी आवाम |
कुछ हो गई थी देख कर अंजाम ||

मदद को आया था फरिश्ता इस देश में |
लोग नहीं पहचान सके किस भेष में||

उस के निर्देशों ने कई जान बचाई |
इसी बात पे पूरे देश ने शंख, घंट और थाली बजाई ||

जब मेरे देश पर संकट आया |
पहले काम मेरे देश का नमक आया ||

रही जब कसर बाकी |
कुछ फरिश्ते आए पहन के खाखी||

आज था सब का सर फक्र से ऊंचा |
क्योंकि मदद लेने की जगह मदद की उनकी जो समाज रहे थे मेरे देश को नीचा ||

शायद था ये कमाल उस का |
रहता है दुवाओं में ज़िक्र जिसका ||

छाया था जग में अंधेरा |
तब चमक रहा था मोबाइल, मोमबत्ती और दियो से देश मेरा ||

था अंधेरो से उजालो तक का है सफर मुश्किल |
लेकिन हौसलों से था बिल्कुल ये मुमकिन ||

मेरा देश आज फिर दुनिया को काम आया |
ज़रूरत पड़ने पर जब दुनिया के होठों पे मेरे देश का नाम आया ||

जरूर लूटी थी सोने की चिड़िया एक दिन उन्होंने |
ना लूट सके वो दिमाग उनका, बनाई थी सोने की चिडिय़ा जिन्होंने||

भले ही था आज मंदिर मस्जिद गिरजा घरों में ताला |
लेकिन हमने देखा था सफेद कोट में ऊपर वाला ||

किसी ने ये देखा की ना बढ़े महंगाई |
तो कोई हमें स्वस्थ रखने के लिए आज भी कर रहे थे सफाई ||

हम आज सो रहे थे अपने घरों में बेफिक्र |
मालूम था कि एक इंसान को है पूरे देश की फ़िक्र ||

बांधी थी उसने हमारे लिए लक्ष्मण रेखा |
जिस के अंदर रहने का परिणाम आज दुनिया ने देखा ||

कबि परिचिति : अमर पंड्या , प्रोफेसर श्री स्वामीनारायण इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट और आई.टी.

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