छलावा

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देखो कैसे फिर छले गये,
जो सोते सोते चले गये,
न नींद मिली,न पेट भरा,
भूखे,प्यासे ही चले गये ।।

कुछ आंखें राह ताकती थीं,
कुछ यादें बाट जोहतीं थीं,
कुछ बच्चे द्वार खड़ें होंगे,
कुछ अब भी आस बांधतीं थीं।।

इनमें कुछ अन्न उगाते थे,
कुछ सर पर छत बंधवाते थे,
पर भूखे ही रह जाते थे,
बेघर,बेबस ,मर जाते थे ।।

क्यों कर इतनी लाचारी है,
क्यों इतनी मारामारी है,
क्यों इतनी सस्ती सांस हुईं
क्यों लचर व्यवस्था सारी है।।

कितनी जेबें तुम भर लोगे,
कितनी तिजोरियां गढ़ लोगे,
इतनी कराह ओर आहों में,
क्या तुम सुख से रह लोगे।।

अरे सुनो वेदना दूजों की,
अपनी आंखों को आद्र करो,
मानव जीवन जो मिला तुम्हें,
उस मानवता की कद्र करो ।।

जो चले गये,वो चले गये,
सबके द्वारा जो छले गये,
समझो जीवन तब बच जाऐ,
गर न्यायसमाज जो रच जाऐ।।

कबि परिचिति : रंजना मिश्रा मधुरंजन, रीवा

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