मेरी औकात नहीं तुम्हें पाने की !
हैसियत नहीं हथियाने की !
शायद मेरी अंतरात्मा तुम्हें पुकारती हो !
सिवा तुम मुझे चाहो या न चाहो !
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा । मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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शायद तुम जमाने से डरती होगी !
मतलबी दुनिया के रवैये से कतरती होगी !
पर सच बताऊँ मेरी भी जमाने से कोई खास नहीं जमती !
सिर्फ तुम्हें पाने के लिए जमाने से भी भीड़ जाऊँगा ।
सितम सहकर तेरी अब मैं सुकून पा न पाऊँगा !
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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तुम्हें सुखी रखने के साधन भी नहीं मेरे पास !
न कोई आशियाना है !
न कहीं कोई ठिकाना है !
पर गर तेरा साथ मिले तो वो भी जुटा लाऊँगा ।
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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मिथ्या वादों से ,दिखावे की फरियादों से मैं खुद को बचाना चाहूँगा !
चाँद- तारे तोड़ नहीं सकता !
पर तेरे खातिर खुद चाँद- सितारे बन जाऊँगा ।
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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दुनिया से इतर, जमाने से दूर!
न कोई होगी व्यर्थ की उलझन!
होगी प्रकृति संग हमारे प्रेम की प्रसंग भरपूर।
देखे गए हमारे सपने को मिलकर हकीकत बनाना चाहूँगा।
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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तुम्हें मुझपर अब भी यकीं नहीं !
कोई बात नहीं प्रिये !
तुम्हारी चाहत में तुम्हारी हर इम्तिहान से गुजरना चाहूँगा!
परिणाम भले ही भरोसेमंद न पाओ !
मगर तेरी भावना से कभी खेल न पाऊँगा !
निष्ठापूर्वक तेरी मूल्यांकन स्वीकार करूँगा ,
मैं ! तेरी मूल्यों से कभी मजाक कर न पाऊँगा ।
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।
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तुम्हारे दिल में भले ही दूसरे का दस्तक पड़ जाये !
पर तेरी दिल में पड़ी दस्तक को तुझसे दूर कर न पाऊँगा !
मुस्कान को तेरी मंजिल समझकर मैं वहीं समाप्त हो जाऊँगा ।
मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा । मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा —–।
कवि: बृजलाला रोहण
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