माँ ! मुझे दुनिया देखनी —- माँ !

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प्रस्तुत कविता माँ से संबंधित है । इस कविता में एक शिशु (भ्रूण)जो कि गर्भ में पल रही है , पर चिकित्सीय जाँच के द्वारा पता चला है कि वो एक बेटी है ।इसपर उसके पिता एवं परिवार वाले उसे मार देना चाहते हैं । इसकी भनक उस अबोध शिशु ( भ्रूण ) लग जाती है ; लेकिन वो दुनिया देखनी चाहती है । उसी की सिसकती आवाज में दुनिया देखने की करूणामयी निवेदन को दर्शाती यह कविता दुनिया की असलियत को बयां करती है । *

मुझे दुनिया देखनी !

मुझे दुनिया में आने दो माँ !

मुझे मत मारो माँ !

मुझे मत मारो ! मुझे मत मारो !

.

पिताजी से बोलो न माँ !

कि आपकी बिटिया को न मरवायें !

मुझे दुनिया देखनी !

ये मेरी पहली और शायद आखिरी जिद है, माँ !

मुझे दुनिया में आने दो !

.

क्यों तुम मुझे दुनिया में आने से पहले ही दुनिया से दूर करना चाहती !

इसलिए न माँ !

की मैं एक बेटी हूँ।

तेरी और तेरे परिवार की सर का बोझ !

पर तुम भी तो एक बेटी ही हो न माँ !

तो फिर एक बेटी कि व्यथा क्यों नहीं समझती !

.

मुझे कुछ नहीं चाहिए माँ !

सिवाय तुम्हारे प्रेम के !

बस तुम मेरी पंखों को खुले गगन में उड़ान लेने देना !

अपनी हौसलों की उड़ान से तुम्हारी सहारा बनूंगीं ।

तेरी बोझ नहीं !

माँ मुझे आने दो ! मुझे दुनिया देखनी !

.

तुम ही सोचो तुम्हारे गैर – हाजिरी में भाई का ख्याल कौन रख सकेगा

उसकी अपनी बहन की तरह !

कौन उसे राखी बाँधेगीं ?

कौन उसके साथ खेलेगा ?

कौन साथ स्कूल जायेगा ?

कौन पिताजी की परी और माँ की लाडो बिटिया बनकर उनकी नाम रौशन करेगी !

तुम ही देखो न माँ !

.

आज औरतें कहाँ से कहाँ चली गईं !

हर जगह वो अपनी हुनर और हौसलों से मुकाम हासिल कर रहीं !

तो आखिर क्यों माँ तुम मुझे आने नहीं देना चाहतीं ???

तुम तो माँ हो न ?

तो फिर तुममें ये निष्ठुरता कैसी ?

लोग तुम्हें ममता की मूर्ति कहते हैं !

कहाँ गया तेरा ममत्व??

आखिर बार बोल रहीं हूँ ,माँ ! मुझे दुनिया देखनी ।।

कवि: बृजलाला रोहण

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