अनुवादकों की अचर्चित दुनिया

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सोचिए अगर ज्ञान-विज्ञान से भरी विभिन्न भाषाओं में लिखी असंख्य पांडुलिपियों का अनुवाद न किया जाता तो क्या होता? हम कहाँ रहते, हमारी सभ्यता कैसी होती? क्या हमारे वेदों, पौराणिक ग्रंथों, पाइथागोरस, अरस्तू के बारे में दुनिया जान पाती? क्या यह दुनिया इतनी प्रगति कर पाती, हम चांद पर जा पाते, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों के जीव विज्ञान और आनुवांशिकी के अबूझ रहस्यों को सुलझा पाते, मोबाइल, इंटरनेट और कंप्यूटर जिनके बिना आज हमारा जीवन अधूरा है, हमारी भाषा और हम उनकी भाषा समझ पाते ? कई बार अपने ही देश में अलग-अलग प्रदेशों के लोग एक दूसरे की भाषा न जानने के कारण अपनी बात नहीं रख पाते हैं और अजनबी बन जाते हैं।

कायदे-कानून के चलते हम सीमाओं में बंधे होते हैं वर्ना मानव मन किसी सीमा को स्वीकार नहीं करना चाहता, वह उड़ना चाहता है, सीमाएँ लांघना चाहता है, खुद को व्यक्त करने के लिए तड़पता रहता है। भाषा, समाज, सभ्यता और संस्कृति के विकसित होने के साथ-साथ इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि दो समाज या सभ्यताएँ एक दूसरे से संवाद कैसे करे। नतीजन अनुवाद कला का जन्म हुआ । अनुवाद के बिना समाज और समाज का प्रतिबिंब कहे जाने वाला साहित्य कभी प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता। हमारे देश सहित अनेक एशियाई देशों में भाषा और अनुवाद को लेकर भांति-भांति की बातें की जाती हैं। अक्सर अनुवाद को केवल हिंदी और अंग्रेजी के साथ जोड़कर देखा जाता है ।

यह सच है कि अनुवाद के संदर्भ में हिंदी और अंग्रेजी का क्षेत्र बहुत व्यापक है लेकिन आज भारत की अन्य भाषाओं में भी अनुवाद कार्य प्रचुर मात्रा में किया जा रहा है। हिंदी के अलावा बांग्ला, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलुगु, तमिल जैसी भाषाओं के ऐसे अनेक अनुवादक हैं जो न्यायोचित प्रतिफल के बिना भी इस तपस्या में लगे हुए हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है और भाषा की यही विशेषता अनुवाद कार्य को श्रमसाध्य बनाती है। भारत में अभी यह संगठित उद्योग नहीं है लेकिन अनुवाद को उसका वास्तविक महत्व दिलाने के लिए अनेक देशों के अनुवादक संघर्षरत हैं। अनुवाद और अनुवादकों की इस दशा को देखते हुए प्रसिद्ध कवि और गीतकार प्रदीप जी के गीत के बोल यहाँ बरबस याद हो आते हैं कि अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ रौशनी वालों । ज्ञान और संस्कृति के वाहक – अनुवादक अनुवादकों के साथ विडंबना यह है कि लोग लेखकों को तो याद रखते हैं, लेकिन कोई अनुवादक को याद नहीं रखता। आइज़ेक न्यूटन को कौन नहीं जानता लेकिन क्या हमने कभी उनके अनुवादक का नाम सुना है, शायद नहीं। उनके अनुवादक का नाम एंड्र्यू मोट्टे था जिन्होंने न्यूटन के प्रिंसिपिया मैथमेटिका का अंग्रेजी अनुवाद वर्ष 1929 में किया था।

इस अनूदित कृति को यू.एस. आने में सौ वर्षों से अधिक का समय लग गया। इस बीच इसका डच और जापानी भाषा में अनुवाद किया गया। विज्ञान और दर्शन शास्त्र की दुनिया में तो अनुवाद के महत्व को साहित्य की तुलना में लगभग पूरी तरह नकारा गया था। दरअसल अनुवादक दो भाषाओं को, दो संस्कृतियों और सभ्यताओं को आपस में जोड़ने वाले सेतु होते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि अनुवादकों ने बड़े श्रम से शब्दों को, संस्कृति को, साहित्य को और दूसरी दुनिया को गढ़ते हुए विचारों और संकल्पनाओं को सृजित किया है। पिछले कुछ दशकों से प्रकाशन उद्योग के वैश्वीकरण से अंतर्राष्ट्रीय पाठकों को विश्व के समकालीन लेखन की प्रचुरता का भान हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुवादकों को मान्यता मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज़ यूनाइटेड किंगडम का अंतर्राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार है जो जून 2004 में शुरु किया गया था। वर्ष 2005 से 2015 तक यह पुरस्कार दो वर्षों में एक बार दिया जाता था। वर्ष 2016 से, यह पुरस्कार वार्षिक कर दिया गया । इसमें किसी भी भाषा से अंग्रेजी में अनूदित पुरस्कृत पुस्तक को £50,000 का नकद पुरस्कार दिया जाता है और यह राशि लेखक और अनुवादक दोनों में बराबर बांट दी जाती है। 22 मई 2018 को लंदन में आयोजित मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज़ के पुरस्कार समारोह में मैन ग्रूप के अध्यक्ष जोनाथन सोरेल ने अनूदित साहित्य के महत्व को उजागर करते हुए कहा कि क्यों एक पोलिश लेखक की कृति (फ्लाइट्स) के अंग्रेजी अनुवाद को इस वर्ष इस पुरस्कार के लिए चुना गया। सोचिए, ऐसी बेहतरीन कृति जो पोलिश भाषा में लिखी गई है, अनुवाद के बिना दुनिया के सामने नहीं आती, उसके आनंद से वंचित रहती।

फ्लाइट्स की लेखिका ओल्गा टोकरज़ुक ने इस सम्मान और पुरस्कार राशि का आधा हिस्सा पूरी ईमानदारी के साथ अपने अनुवादक जेनीफर क्रॉफ्ट को दिया जो पोलिश, स्पेनिश और यूक्रेनियन भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद करती हैं। अनुवादक को लेखक के समान दर्जा प्रदान किया गया जो सचमुच प्रशंसनीय है। अनुवाद की बात करें तो आपको आश्चर्य होगा कि फ्लाइट्स 2007 में पोलिश भाषा में प्रकाशित हुई थी और इसका अंग्रेजी अनुवाद दुनिया के सामने आने में 11 वर्ष लग गए। यहाँ उल्लेखनीय है कि यह पुरस्कार केवल यू.के. में अनूदित और प्रकाशित पुस्तकों को दिया जाता है यानी दुनिया के दूसरे हिस्सों के बेहतरीन और प्रतिभाशाली अंग्रेजी अनुवादक इसके पात्र नहीं बनते हैं। बुकर और नोबेल जैसे पुरस्कारों से पुरस्कृत किताबों की बिक्री ज़रूर बढ़ती है लेकिन पुरस्कार से पहले कोई भी बड़ा प्रकाशक ऐसे साहित्य को छापने में दिलचस्पी नहीं दिखाता। फ्लाइट्स को भी एक गुमनाम से प्रकाशक ने छापा था। अनुवाद कार्य के महत्व को कभी भी ईमानदारी के साथ नहीं समझा गया और मुट्ठी भर लोगों द्वारा किए जाने वाले इस कार्य को कभी उचित प्रतिफल भी नहीं दिया गया। उम्मीद की किरण ऐसे पुरस्कारों के चलते पाश्चात्य देशों में अनूदित साहित्य के प्रति प्रकाशक थोड़ी-बहुत रुचि दिखाने लगे हैं, लेकिन हमारे देश में अनूदित पुस्तकों और रचनाओं को उतनी इज्ज़त नहीं दी जाती । तकनीकी और प्रौद्योगिकीय अनुवाद के मामले में भी विकसित देश हमसे आगे हैं या यूँ कहें कि उनके विकास की गति अच्छी होने का एक कारण तकनीकी और वैज्ञानिक अनूदित सामग्री है।

वर्ष 2016 का पेन ट्रांसलेट्स अवार्ड ल्यूक लीफग्रेन के अरबी से अंग्रेजी में अनूदित पुस्तक दि प्रेसीडेंट्स गार्डन को दिया गया जिसके अरबी लेखक मुहसिन अल-रमली थे। इसी तरह, ब्रिटेन के लेखक और अनुवादक डेनियल हान द्वारा स्थापित दि ट्रांसलेटर एसोसिएशन भी स्तरीय अनूदित साहित्य को पुरस्कृत करता है। डेनियल कहते हैं – “चूँकि कोई भी व्यक्ति किसी अनुवादक या संपादक को साहित्य का नोबल पुरस्कार नहीं देगा, मैंने अनुवादकों के लिए यह पुरस्कार स्थापित किया।” भारत में भी भारतेंदु से लेकर स्तरीय अनुवाद करने वाले साहित्यकारों की लंबी सूची है। हालांकि भारतीय साहित्यकारों की मूल रचनाओं को जो प्रसिद्धि मिली उतनी उनके स्तरीय अनुवाद को नहीं मिली। अब वेबसाइट, इंटरनेट और यूनिकोड के ज़माने में हालत बदलती दिख रही है। अनुवादकों को मान्यता देने की पहल में साहित्य अकादमी का प्रयास वास्तव में सराहनीय है। भारत में मौलिक साहित्य लेखन को प्रोत्साहित करने वाली प्रतिष्ठित संस्था साहित्य अकादमी ने इसके द्वारा मान्यताप्राप्त 24 भाषाओं में उत्कृष्ट अनुवाद कार्य के लिए वर्ष 1989 में वार्षिक अनुवाद पुरस्कारों की शुरुआत की थी। उत्कृष्ट अनूदित कृति के लिए पहले वर्ष रु. 10,000 की राशि दी गई जो वर्ष 2009 से बढ़ाकर रु. 50,000 वार्षिक कर दी गई है। कुछ बड़े प्रकाशक भी अब अनुदित साहित्य पर ध्यान दे रहे हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस जो वर्षों से अंग्रेजी में अनूदित साहित्य को प्रकाशित करता आ रहा है, ने अब अपनी सूची में हिंदी और बांग्ला भाषाओं के अनुवाद को भी शामिल किया है। इसका एक ताज़ा उदाहरण कन्नड़ लेखक विवेक शानबाग की रचना गचर गोचर का बांग्ला अनुवाद है जिसके अनुवादक अरुनाव सिन्हा हैं । दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए क्रॉसवर्ड बुक अवार्ड और डीएससी पुरस्कार, हाल ही में संस्थापित दि हिंदु पुरस्कार, जेसीबी पुरस्कार अनूदित साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए शुरु किए गए हैं।

इस कारण अब हिंदी सहित भारत के क्षेत्रीय भाषाओं के अनुवादकों में हरकत दिख रही है। टोकरज़ुक कहती हैं कि साहित्य एक जीवंत रचना है जो एक भाषा में महसूस की जाती है, अनुवाद के दर्पण में इसे दूसरी भाषा में इसे दिखाने का प्रयास करना किसी अचंभे से कम नहीं है। अनुवाद – वर्तमान और भविष्य अनुवाद का महत्व तब भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले विभिन्न विषयों के शब्दकोश और संदर्भ साहित्य पर्याप्त संख्या में और आसानी से उपलब्ध नहीं हुआ करते थे। पूर्ववर्ती अनुच्छेदों में हमने अनुवाद कार्य की श्रमसाध्यता की जो बात की थी वह आज विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक साधनों की सुलभता के कारण कम ज़रूर हुई है लेकिन अनुवादक की प्रतिभा और कौशल आज भी उतने ही महत्वपूर्ण बने हुए हैं जितने पहले थे। आज निजी क्षेत्र में अनुवाद के लिए सी.टी.ई. यानी क्लाउड ट्रांसलेशन एनवॉयर्नोंमेंट का ज़माना है, ट्रांसलेशन मेमोरी, कैट टूल इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अनुवाद की प्रमात्रा और गुणता की बात करें तो यह सरकारी क्षेत्रों की तुलना में निजी क्षेत्रों में कहीं अधिक दिखती है। सरकारी क्षेत्र में जहाँ अनुवाद का दायरा प्रशासनिक, वित्त, विधि, बैंकिंग और वैज्ञानिक अनुवाद तक सीमित रहता है, वहीं निजी क्षेत्रों का अनुवाद कार्य इतना अधिक और विविधतापूर्ण है कि अच्छे अनुवादकों में होड़ की स्थिति बनी हुई है। निजी क्षेत्र में अनुवाद कार्य असंगठित होने के बावजूद करोड़ो का उद्योग है और फ्रीलांस अनुवादक अपनी विशेषज्ञता और क्षमता के अनुसार धनार्जन करते हैं। फ़िल्म और टीवी चैनलों में अनुवाद, डब्बिंग, सब-टाइटलिंग आदि के कार्य परियोजना आधार पर दिए जाते हैं और आकर्षक आमदनी के कारण भाषा विशेषज्ञों को अधिक आकर्षिक करते हैं। हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञापनों के जुमले घर-दफ्तर में इस कदर जुंबा पे चढ़ जाते हैं, लोकप्रिय हो जाते हैं कि किसी को ध्यान ही नहीं रहता कि इसकी मूल भाषा कुछ और थी और ये बोल किसी भाषाविद् और कुशल अनुवादक के दिमाग की उपज हैं। कुल मिलाकर, अनुवाद उद्योग का वर्तमान अच्छे अनुवादकों के लिए अच्छा है और भविष्य भाषा तकनीक के साथ गति बनाए रखने वालों के लिए बहुत अच्छा होगा। इस क्षेत्र में रोजगार की बात करें तो अच्छे अनुवादकों की मांग बढ़ रही है । स्रोत और लक्षित दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने वालों के लिए आज शासकीय क्षेत्रों के अलावा निजी क्षेत्रों के प्रकाशन गृह, फ़िल्म जगत, अखबार और पत्रिकाओं यानी प्रिंट मीडिया में अनुवाद, प्रूफ रीडिंग, डबिंग, सब-टाइटलिंग, कटेंट राइटिंग, प्रतिलेखन, सृजनात्मक लेखन आदि के कार्य उपलब्ध हैं जो अनुवाद कौशल रखने वालों के लिए अच्छे संकेत हैं।

सरकारी क्षेत्र में अनुवाद – गुणता जाँच की आवश्यकता सरकारी क्षेत्र में अनुवादकों की स्थिति कार्यालयों की कार्य-प्रकृति और परिवेश के अनुसार अलग-अलग होती है। सरकारी दफ्तरों में अनुवाद कार्य भारत सरकार की राजभाषा नीति का हिस्सा होता है। चूँकि अब भी ज्यादातर कार्यालयों में मूल रूप से अंग्रेजी में ही काम किया जाता है, अनुवादकों की ज़रूरत बनी रहती है। यदि कार्यालय में विशेषकर उच्चाधिकारियों की ओर से यदि इस ओर अनुकूल माहौल पैदा किया जाता है, तो अनुवादकों की पूछ-परख होती है और उन्हें अनुवाद के लिए सामग्री समय पर दी जाती है। दूसरी ओर, किसी कारणवश यदि कार्यालय में राजभाषा के प्रति अनुकूल माहौल नहीं होता है तो अनुवादकों की स्थिति दयनीय भी बन जाती है। पूर्णकालिक पद होने के बावजूद अनुवादकों को कई दिनों में एकाध बार बमुश्किल अनुवाद काम मिलता है। अनुवाद कौशल नैसर्गिक होने के साथ-साथ लगातार अभ्यास द्वारा अर्जित किया जाता है। यदि अनुवाद कार्य न के बराबर या कभी-कभार मिलता है तो स्वाभाविक है अनुवादक की गति और सटीकता दोनों प्रभावित होंगे। अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा जो भी अनुवाद कार्य किया जा रहा है, उसकी सटीकता और गुणता की जाँच करने की वर्तमान में कोई प्रणाली मौजूद नहीं है। होता यह है कि किए गए अनुवाद कार्य का पुनरीक्षण राजभाषा अधिकारी द्वारा एक बार कर लिया जाता है और यदि दस्तावेज अधिक महत्वपूर्ण न हो तो पुनरीक्षण की भी ज़रूरत नहीं समझी जाती ।

अनुवाद का पुनरीक्षण या गुणता जाँच बहुत गंभीर और श्रमसाध्य कार्य होता है। सचाई यह है कि हिंदी में आए कागज़-पत्रों को बिना पढ़े राजभाषा अनुभाग या हिंदी प्रकोष्ठ को भेज दिया जाता है। यह राजभाषा अधिकारी या अनुवादक की जिम्मेदारी मान ली जाती है कि वे इसका अर्थ-निर्वचन करें, संबंधित विभाग को बताएँ या अगर राजभाषा संबंधी है तो आगे की कार्रवाई सुनिश्चित करें। इस अस्वस्थ मानसिकता से निकलना होगा कि हिंदी पाठ पढ़ता कौन है। यदि सरकार अनूदित हिंदी दस्तावेजों को पढ़ने की व्यवस्था करे या गुणता जाँच की कोई प्रणाली तय करे तो यह विचारधारा बदलने में मदद मिलेगी कि किया गया हिंदी अनुवाद न सिर्फ पढ़ा जाता है, बल्कि उसकी गुणता जाँच भी होती है। वार्षिक प्रतिवेदन राज्यसभा के पटल पर रखे जाते हैं, वेबसाइट तो पूरी दुनिया देख सकती है, धारा 3(3) के दस्तावेजों का महत्व कितना होता है, कहने की ज़रूरत नही, गुणता जाँच की पहल ऐसे ही दस्तावेजों से करनी चाहिए। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार, अनुवाद के महत्व, हिंदी के सरलीकरण जैसे विषयों के लिए राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार को इस ओर कदम उठाना होगा।

यदि अनुवाद गुणता जाँच प्रभाग स्थापित किया जाए और यह प्रभाग सरकारी कार्यालयों/उपक्रमों के केवल यादृच्छिक दस्तावेजों की गुणता जाँच करना शुरु करे, तो धीरे-धीरे लोगों को हिंदी भाषा और हिंदी अनुवाद का महत्व समझ आएगा, गुणता में उल्लेखनीय सुधार होगा और इस दोयम दर्जे के समझे जाने वाले महत्वपूर्ण कार्य को अपनी सही जगह मिल पाएगी ।

रचयिता:श्रीनिवास राव
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