माँ भारती से

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पुत्र- 

माँ भारती यह मुझे बता दे, है कौन पूत तुझे सबसे प्यारा?

कोटि-कोटि इन सुवनों में, है कौन तेरे आँखों का तारा?

माँ भारती-

प्रश्न सरल है मगर  इसका,  उत्तर देना आसान नहीं,

सुनो ध्यान से तुझे कदाचित्, मेरे अतीत का ज्ञान नहीं?

लाचार हिमालय मूक खड़ा था, विंध्य पे दुश्वारी थी, 

धू-धू दक्कन धधक रहा था, सह्याद्रि की अब बारी थी.

मेरे अस्तित्व पे संकट था, सनातन संस्कृति थी खतरे में,

मुगलों की खौफ, बन अफीम बह रहा था लहू के कतरों में.

इस विकट घड़ी में कफ़न बाँध, निकला था शेर शिवा बलवान; 

तुलजा का भक्त वह वीर शिवाजी, है मेरा  प्रिय पुत्र-महान्.

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कतारबद्ध खड़े कायर ज्यों, मुकुट उतार चरणों में रखने,

कुल-ललनाओं को रख डोली में, गए थे दिल्ली हरम को भरने.

कदर्य कार्य था जिसे मूर्खों ने, मस्तक ऊँचा करनेवाला समझा.

 वीरहीन हो चुकी थी राजपुताना, मेरे मानस में उठी थी झंझा.

अरावली की बीहड़ों से, तभी एक महाराणा था निकला, 

दिखा जौहर हल्दीघाटी में, गरुड़ समान सर्पों को निगला. 

मेरी आँचल में सोता था, मेरी तलहथ में खाता था, 

राग भैरवी में गीत अहर्निश, वो स्वाभिमान के गाता था .

मादरे-वतन की आन की खातिर, जिसने मिटना स्वीकारा था. 

मनसबदारी की हेम-जंजीरों में, बंधना न जिसे गंवारा था. 

आँखे मेरी भर आती है, करते ही याद जिसका बलिदान.

अद्वितीय वीर वह महराणा प्रताप, है मेरा प्रिय पुत्र-महान्.

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चिंगारी पर रही थी ठंडी,  जब महावीर दुर्मद बुंदेलों की;

बढ़ी आग सी खलल झाँसी में, बेवजह फिरंगी सरखेलों की.

झाँसी के अस्तित्व पे संकट था, राजपद पे मंडराता खतरा था.

हड़प की नीति प्रवर्तक डलहौजी के, कारण ही यह झगड़ा था.

आक्रोश व्याप्त था जन-जन में, पर लाचारी का रोना था. 

सूरतहाल ऐसी थी कि विप्लव का उदय नही होना था.

ऐसे में एक अदम्य सिंहनी, लक्ष्मीबाई बनके जागी थी.

बन चामुंडा, ले खड्गहस्त, फिरंगी के पीछे भागी थी.

टूट पड़ी थी बनके बिजली, शत्रुदलों पे अकेली वो.

करने तांडव मृत्यु का भीषण, अपनी जान पर खेली वो.

छुड़ा के छक्के अल्काटों के, नीलों के, ह्युरोजों  के,

लिख गयी वो इतिहास नया, 57  की ग़दर की मौजों पे.

रौद्रता की तासीर हो कैसी, उस दिन महारूद्र को ज्ञान हुआ.

मर्दानगी की तेवर हो कैसी, ये मर्दों को अभिज्ञान हुआ.

हृदय-वीणा बज उठती है, मेरी करते ही जिसका संज्ञान. 

ललना वह लक्ष्मी झांसी की, है मेरे सौ पुत्र समान.

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ग़दर की मौज समेटे गंगा, कह रही थी उस दिन आरा में. 

तरुनाई का उबाल हो जिसमें, वह कूदे मेरी जलधारा में.

आगे नही आ रहा था कोई, वीर भूमा मगध की धरती से. 

बुढ़ापे ने फिर तीखे लहजे में, पूछा था जवानी चढ़ती से.

क्या तू केवल रति के बासंती-वसनों की ही अमानत है?

जीते जी जननी पे आंच आये तो, तुझपे थू है! लानत है! 

कवच, वार्धक्य का ओढ़े यह सुन, वीर कुंवर सिंह जागा था.

सुन दहाड़ जिसकी जगदीशपुर से रातों-रात फिरंगी भागा था.

लगी हाथ गोली में तो सहर्ष, माँ गंगा को भेंट किया, 

और वीरगति पाने से पहले, गोरों को मटियामेट किया. 

उमर नही ढलती उनकी, इरादे जिनकी चट्टानी हैं, 

वतन पे मिटना शौक है जिनका, जो हठी, स्वाभिमानी हैं. 

उमर अस्सी में की थी जिसने, महासमर को महाप्रयाण.

मगध का लाल वह वीर कुंवर सिंह, है मेरा प्रिय पुत्र-महान्.

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बह रही थी लिए गंध बारूदी, मलय समीर कनारा में.

रह-रह ज्वार उठता था भीषण, कावेरी की धारा में.

खफा चल रहे थे फिरंगी बेहद, शेर टीपू-सुलतान से.

टोह रहे थे जंग का मौका, खींच शमशीरें म्यान से.

जयचंदों ने इस छल में भी, गोरों का हाथ बंटाया था.

भाइयों ने ही भेद बताकर, सगे भाई को हरवाया था.

लड़ा ठाठ से अंतिम दम तक वह, फिरंगी से, बेईमानों से, 

शहीदों की जज्बा नही नापी जाती, हार-जीत के पैमानों से.

स्वतत्रंता के वट-वृक्ष को सींचा, निज प्राणों का दे महादान.

परमवीर वह टीपू सुल्तान, है मेरा प्रिय पुत्र महान्.

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मेरा पुत्र है वीर भगत, सुभाष, सुखदेव, राजगुरु चंद्रशेखर.

उधम मचाता, उधम सिंह और खुदीराम सा प्रलयंकर. 

गांधी, पटेल, जवाहर भी, शुमार हैं मेरे लालों में;

मेरा ही रुधिर बहा आमरण, लाल, बाल और पालों में.

जननी- जाया का मोह त्याग, है डटा जो सीमा पर बलवान.

वह हर जांबाज सिपाही हिन्द का, है मेरा प्रिय पुत्र-महान्.

                                               – कृष्ण कुमार चौधरी 

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