रहस्यों की राजधानी, संस्कारधानी: जबलपुर

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गोंड़ शासकों की कर्मस्थली रही जबलपुर का प्राचीनतम ज्ञात नाम गोंडवाना था. बाद में जाबाली ऋषि के नाम पर जाबालिपत्तन  कहलाया जिसे अंग्रजों ने जब्बलपोर  कहा जो बिगड़ते सुधारते आजजबलपुर के नाम से जाना और पहचाना जाता है. आचार्य विनोबा भावे ने इसका नामकरण संस्कारधानी किया. यह मुंबई- हावड़ा रेलवे पर इटारसी-इलाहाबाद (प्रयागराज) के मध्य एक बड़ा स्टेशन है. साथ ही दिल्ली, मुंबई के लिए नियमित उड़ानें उपलब्ध हैं. 

इस शहर में आरम्भ से ही शक्ति पूजन की परंपरा रही है, तंत्र-मन्त्र-साधना का स्थान होने के साथ-साथ माँ नर्मदा तट पर पल्लवित जबलपुर में आज भी प्रतिवर्ष क्वांर माह में काली तथा नव-दुर्गा के पूजन का प्रचलन है. फिर दशहरे पर विशाल शोभा यात्रा, माँ की प्रतिमाओं का विसर्जन, एक अध्यात्मिक परंपरा के रूप में प्रचलित है; जिसमे न केवल स्थानीय बल्कि आसपास के लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं. अष्टमी,नवमी, दशमी को शहर रात्रि जागरण करता है. आप आधी रात को भी वाहन से निकलने का दुस्साहस नहीं कर पाएंगे. यहाँ एक से बढ़कर एक प्राचीन शिव -शक्ति से सम्बंधित रहस्यमय धार्मिक स्थान पाये जाते हैं. नाना रहस्यमय स्थानों में से मात्र तीन स्थलों का वर्णन ही संभव हो पा रहा है.  

स्थानीय विज्ञान महाविद्यालय के भूगर्भशास्त्री प्रोफेसर के अनुसार- जबलपुर और उसके आसपास जो पहाड़ियां हैं, वे सभी ग्रेनाईट की चट्टानें हैं. उनकी पहचान स्वयं है जो करोडो वर्षों से टिकी हुई हैं. ये मैग्मा के जमने से बनी हैं. इनमे से एक विशाल चट्टान पर गौंड़ शासक मदन शाह ने सन ११०० में एक किला  बनवाया था, जो वास्तुकला का अद्भुत नमूना है. यद्यपि नाम इसे मदनमहल किला का दिया गया है, लेकिन जो जानकारी मिलती है उसके आधार पर यह कहा जाता है कि यह सेना की निरीक्षण चौकी थी/है. 

मदनमहल किला

यह चार मंजिला इमारत पहाड़ी के उच्चतम बिंदु पर ज़मीन से लगभग ५०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित गोलाकार विशाल पत्थरों पर निर्मित है. सामने की ओर मेहराबदार द्वार हैं. ऊपर की दो मंजिलों में कमरे की व्यवस्था है, जिनमे से एक में तलघर है. भवन में सुरक्षा मुंडेर युक्त खुला प्रांगण, शौचालय आदि की व्यवस्था है. अलंकृत द्वार एवं कंगूरे राजसी उपयोग की ओर संकेत भी करते हैं. इस भवन के ऊपरी भाग से दूर-दूर तक विहंगम दृश्य का अवलोकन तथा निरीक्षण किया जा सकता है. सामने हाथीखाना, अश्वशाला एवं बावली(छोटा सरोवर) है. इस सम्पूर्ण व्यवस्था को घेरते हुए द्वारयुक्त सुरक्षा प्राचीर के अवशेष आज  भी दीखते हैं. किले के निचले हिस्से में कई सुरंगें थीं जो दुश्मनों के आक्रमण के समय उपयोगी सिद्ध होती रहीं हैं. एक सुरंग जबलपुर में नर्मदा तट पर स्थित शिव-शक्ति मंदिर जिसे चौंसठ योगिनी मंदिर कहते हैं तक, अन्य मंडला ( सड़क से वर्तमान दूरी लगभग १०० कि.मी.) तक जाती थीं. इमारत की बनावट में अनेक छोटे-छोटे कमरे तत्कालीन सैन्य आवास थे. अब बीच में आंगन और दो कमरे बचे हैं. फ़िलहाल खंडहर हो चुके भवन में परिवार का मुख्य कक्ष, हाथी-घोड़ों के अस्तबल, छोटा सा जलाशय, बैरक ही दृष्टिगोचर होते हैं. छत की छपाई में सुन्दर चित्रकारी है. छत फलक् युक्त वर्गाकार स्तंभों पर आधारित है, जिससे तत्कालीन राजसी वैभव का आभास होता है. गौंड़ शासकों का राज्य गढ़ा-मंडला कहलाता था. गढ़ा आज जबलपुर का एक मोहल्ला है जिसमे कहीं कहीं गौंड़ कालीन भग्नावशेष दिखाई देते हैं.

किले की पूर्व में स्थित पहाड़ी पर गौंड़ कालीन शारदा देवी का मंदिर है. इसमें रानी दुर्गावती पूजन करने आती थीं. वर्तमान में भी यह मंदिर है जिसमे झंडा अर्पण करने की परंपरा आज भी कायम है. श्रावण माह के तीसरे सोमवार को प्रतिवर्ष मेला भी आयोजित किया जाता है. 

गौंड़ शासकों के राजसी वैभव को लेकर एक लोकोक्ति आज भी प्रचलन में है- “ मदनमहल की छाँव में, दो टोंगों के बीच, जमा गड़ी नौ लाख की दो सोने की ईंट.” इस आधार पर कुछ तत्वदर्शियों ने खोजबीन की, खुदाई भी करवाई लेकिन कोई सोने की ईंट नहीं मिली. न ही वर्तमान में कोई सुरंग दिखाई देती है. तथापि चौंसठ योगिनी मंदिर भेडाघाट में  रानी दुर्गावती की मंदिर यात्रा के सम्बन्ध में एक शिलालेख आज भी देखा जा सकता है. तथापि अभी तक इसकी सुरंगें, एक विशाल चट्टान पर निर्मित इमारत का विगत हजारों वर्षों से टिके रहना सभी कुछ रहस्य के गर्त में है.

संतुलन शिला (BALANCING ROCK):

प्रागैतिहासिक पृथ्वी की संरचना के समय मदनमहल की पहाड़ियां और चट्टानें गोंडवाना ट्रैक के नाम से जानी जाती हैं. पुरातत्वविदों के अनुसार ये संरचना हिमालय से भी पुरानी है. संतुलन शिला का इस ट्रैक पर होना ही इस बात का सबूत है कि यह इलाका लाखों साल पुराना है और अपने मूल रूप में विद्यमान है.

मदनमहल किले से उतरते ही सड़क के दूसरी ओर एक ग्रेनाइट की चट्टान है, जो लगभग पांच करोड़ साल पुरानी बताई जाती है. भूगर्भशास्त्र के अनुसार एक ग्रेनाइट की चट्टान को बनने में लगभग एक लाख वर्ष लगते हैं, जिसके प्रमुखतः दो कारण हो सकते हैं. पहला– धरती की उत्पत्ति के समय ही कई बार चट्टानें धरती के अन्दर चली जाती हैं, जो पिघलकर आग्नेय चट्टानों का रूप ले लेती हैं और बाहर आ जाती हैं. दूसरा– लावा पृथ्वी से ऊपर आने का प्रयास करता है, लेकिन आ नहीं पाता और बाद में ठंडा होकर जमना शुरू हो जाता है. ये चट्टानें उसी प्रकृति की हैं. इनमे कालांतर में दरारें बन जाती हैं, जिनको संधि कहा जाता है. इनमे दो ब्लॉक्स आपस में जुड़े होते हैं जो दूर से देखने पर संतुलन शिला नज़र आते हैं लेकिन वह एक ही चट्टान होती है, यही इनकी विशेषता भी है. दो पत्थरों के बीच लाखों वर्षों तक हवा और पानी की ठोकरों से पैदा कटाव से संतुलन शिला का निर्माण होता है. इस युगकारी प्रक्रिया के दौरान, यदि ऊपर वाली शिला असुन्तिलित अवस्था में आ जाये तो गिर जाती है. किन्तु चमत्कार तभी कहलाता है जब बहुत अधिक कटाव के बावजूद ऊपर वाली भारी भरकम शिला अपने स्थान पर स्थिर रह जाती है.

दीर्घ गोलाकार यह शिला आश्चर्यजनक ढंग से एक विशाल चट्टान के ऊपर अपने गुरुत्व केंद्र पर टिकी है. यह भूतात्विक कारणों से अस्तित्व में आया है जिसमे मानव का कोई योगदान नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है कि चट्टानी पहाड़ी के अस्तित्व में आने के पश्चात् यहाँ दीर्घकालिक क्षरण एवं विघटन जैसी क्रियाएं निरंतर होती रहीं, फलस्वरूप चट्टानों से चिपके हुए घुलनशील एवं प्रथक होने वाले पदार्थों के विलग होने से यह कठोर शिला अपने गुरुत्व केंद्र पर अस्तित्व में आई. इसकी यही विशेषता है कि इसकी विशालता, भार,कठोरता एवं सटीक गुरुत्व केंद्र होने के कारण यह आज भी अपनी मूल अवस्था में बनी हुई है.

जबलपुर में पाई जाने वाली संतुलन शिला इसी प्रकार की है, जो लगभग ४० टन वजनी है. यह दूसरी चट्टान पर अंदाज़न एक फुट कि परिधि पर सदियों से विद्यमान है. हालाँकि ढूँढने पर, इसकी तुलना में छोटी-छोटी कई चट्टानें मिल सकती हैं जो आगे चलकर कालांतर में संतुलन शिला का रूप ले सकती हैं. उल्लेखनीय है कि दिनांक २२/०५/१९९७ को जबलपुर में ६.२ रिक्टर पैमाने का भूकंप आया था, जो इस शिला का बाल भी बांका न कर पाया. भूगर्भशास्त्रियों के ऊपर लिखे निष्कर्षों, अनुमानों, अवलोकनों के बावजूद संतुलन शिला, प्रकृति का अद्भुत रहस्य तथा चमत्कार है जिसे देखने दूर दूर से लोगबाग आते हैं. इसको देखकर ऐसा महसूस हो सकता है कि आप हाथ के एक मामूली धक्के से शिला को हिला देंगे, परन्तु ऐसा कर पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है.

इस के विषय में खोजबीन के दौरान, संतुलन शिला के  दूसरी ओर नयागांव स्थित विद्युत् कंपनी के मानव संसाधन विकास संसथान के पीछे पहाड़ी में नज़रों से दूर एक पत्तीनुमा आकार की काफी विशालकाय बैलेंसिंग रॉक भी मिली जो फोटो में दृष्टव्य है. इसका उल्लेख गजेटियर में है जो आज से सैकड़ों वर्षों पूर्व खोजी गई थी. इसका वज़न लगभग १५ टन है. यह संतुलन शिला नयागांव,रामपुर, जबलपुर की ठाकुरताल पहाड़ी के जंगलों के बीच है, जिसे संरक्षित किया जा चुका है. वर्तमान में यह वन विभाग के आधीन है.

चौंसठ योगिनी मंदिर

विश्व विख्यात पर्यटक स्थल भेड़ाघाट व धुआंधार जल प्रपात के नज़दीक एक ऊंची पहाड़ी पर लगभग ५० मीटर की ऊँचाई पर त्रिभुजीकोणाकार योगिनिओं की खंडित मूर्तियों वाला एक मंदिर स्थापित है. इसको चौंसठ योगिनी मंदिर या गोल मठ के नाम से जाना जाता है. यह शहर से लगभग २२ कि.मी. दूर है. पहाड़ी शिखर होने के कारण यहाँ से काफी बड़े भूभाग व बलखाती नर्मदा को निहारा जा सकता है. १० वीं सदी में त्रिपुरी के कलचुरी शासक लक्ष्मण राज एवं युवराज देव द्वितीय ने अपने राज्य के विस्तार तथा उत्कर्ष के लिए योगिनियों का आशीर्वाद लेने के उद्देश्य से बनवाया था. मठों के महंत पाशुपत सम्प्रदाय के शैव होते थे जो अधिकारी कहलाते थे. इस पंथ के प्रवर्तक दुर्वासा ऋषि को माना जाता है. ६४ योगिनी मठ में ६४ प्रतिमाओं के स्थापना सामान्य रूप से करवाई जाती है लेकिन राजाओं के विशेष प्रयोजन हेतु ८१ प्रतिमा की स्थापना का विधान है. हाल के अनुसंधानों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इन योगिनी मंदिरों कि संरचना दो प्रकार की होती थी. जब कोई शासक अपने राज्य कि सीमाओं में वृद्धि अथवा अपने स्वास्थ लाभ के लिए बनवाता था तो ८१ योगिनिओं के मंदिर बनते थे. जब सामान्य जनता अपने स्वयं के उत्कर्ष या स्वास्थ कामना के लिए मंदिर निर्माण करती थी तो ६४ योगिनियों के होते थे.

प्राप्त प्रमाणों के अनुसार गोलकी मठ के प्रथम महंत सद्भाव सिन्धु माने जाते हैं. ये काला मुख शैव शाखा के थे. ६४ योगिनी देवालय मध्यप्रदेश, उड़ीसा में अधिक हैं. मंदिर निर्माण या वास्तु कला के पांच मौलिक रूप हैं- वैराज, कैलाश, वृत , पुष्पक, मानिक, अष्टभुज , इनमे से खजुराहो का देवालय आयताकार है, शेष सभी वृत्ताकार निर्मित हैं. योगिनी के माध्यम से योगी को सिद्ध करने का विधान है. ऐसी किंवदंती है की मूलतः मंदिर में माँ दुर्गा की स्थापना की गई थी. मान्यता ये भी है कि यह महर्षि भृगु की जन्मस्थली है, जहाँ उनके प्रताप से प्रभावित होकर शासकों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था. इसमें ६४ नहीं वरन ८१ खंडित प्रतिमाएं हैं. मंदिर त्रिभुजाकार कोणों पर आधारित है जिसके प्रत्येक कोण पर एक योगिनी की मूर्ति है. अध्यात्म के अनुसार भी तीन का बहुत महत्व है जैसे: त्रिदेव-ब्रम्हा,विष्णु,महेश. तीन लोक-स्वर्ग,पृथ्वी,नरक. तीन गुण- सतो,रजो, तमो. आदि. ८१ भी ३ से विभाजित है.

तंत्र साधना में योगिनियाँ बहुत महत्व रखती हैं. योगिनी के माध्यम से योगी को सिद्ध करने का विधान है. ये आठ महा सिद्धियाँ अणिमा, महिमा,गरिमा, लधिमा,प्राकम्या, ईशित्व, वशित्व, कामावशायिता हैं. योगिनी साधना में योगी कि अंतिम स्थिति महायुती या त्रिदंडी योगी की होती है. तांत्रिक अपनी तंत्र साधना के लिए इन्हीं योगिनियो को सिद्ध करके उनसे वांछित काम करवाते थे. ये खंडित मूर्तियाँ आज भी अत्यंत प्रभावशाली हैं, जो तत्कालीन मूर्ति कला के उत्कृष्ट नमूने हैं. योगिनी शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों तथा सन्दर्भों में किया जाता है. अधिकांश लोगों द्वारा योगिनी को योगी की सहयोगी या उसकी तांत्रिक साधना कि अन्यान्य प्रक्रियाओं के लिए एक उपकरण के रूप में माना जाता है. योगिनी का दूसरा अर्थ एकदम भिन्न है- जिस तरह एक योगी अपने शरीर पर सम्पूर्ण नियंत्रण स्थापित करके प्रत्येक क्षण होने वाली दैहिक क्रियाओं जैसे: श्वास-प्रश्वास, ह्रदय गति, एवं अन्य शारीरिक अवयवों को नियंत्रित कर सकता है वोही नियंत्रण क्षमता योगिनी भी प्राप्त कर सकती है.

यह तंत्र साधना का केंद्र हुआ करता था. दूर-दूर से तांत्रिक साधना के लिए और योगिनियों को सिद्ध करने के लिए आया करते थे. योगिनी तंत्र कि उपासना पद्धति ७ वीं शताब्दी से १३ वीं शताब्दी तक प्रचलन में रही. मंदिर के चारों ओर चौरासी स्तंभों पर वृत्ताकार दालान है, दो प्रवेश द्वार हैं जिनमे से एक बार में एक व्यक्ति निकल सकता है, दस फुट ऊंची गोलाई में पत्थरों से निर्मित चारदीवारी है. औरंगजेब की आज्ञा पर उसकी सेना ने इन सभी मूर्तियों को खंडित कर दिया था. एक अन्य मान्यता के अनुसार भोंसले के ज़माने में अमीर खान पिंडारी ने इस इलाके में लूटमार की. उसने भेड़ाघाट स्थित चौंसठ योगिनी कि कलात्मक मूर्तियों को खंडित किया था, आज भी वे उसी खंडित अवस्था में हैं. चारदीवारी के अन्दर खुला प्रांगण है जिसके बीचोंबीच डेढ़-दो फुट ऊंचा एवं करीब ८०-१०० फुट लम्बा चबूतरा है. इस चबूतरे के दक्षिण कोने में मंदिर है जिसके सबसे भीतरी कक्ष में शंकर-पार्वती की विवाह वेश में नंदी पर सवार शिव-पार्वती वाली प्रतिमा है जो देश में एक मात्र है. इस मंदिर के समक्ष बड़ा सा बरामदा है, सामने चबूतरे पर एक शिवलिंग स्थापित हैं जहाँ भक्तगण पूजा पाठ कर सकते हैं. दिए गए चित्र में यही मंदिर द्रष्टव्य है.

मंदिर की गोल चारदीवारी के भीतर, अंदरूनी ओर ८१ योगिनियों की विभिन्न मुद्राओं में पत्थर तराश कर मूर्तियाँ स्थापित की गईं थीं, जो उत्कृष्ट कला का नमूना है, हालाँकि वर्तमान में सभी खंडित हैं. ये सभी बहनें मानी जाती थीं और तपस्विनियाँ थीं. इनको महाराक्षसों ने मौत के घाट उतार दिया था. राक्षसों का संहार करने स्वयं माँ दुर्गा को आना पड़ा था. अतः यहाँ पर सर्वप्रथम माँ दुर्गा की प्रतिमा कलचुरी शासकों द्वारा दुर्गा मंदिर तथा योगिनियों की प्रस्तर प्रतिमा का निर्माण किया गया था. कालांतर में दुर्गा कि जगह शिव-पार्वती की मूर्ति प्रतिस्थापित की गई. कहा जाता है कि १२वीं शताब्दी में रानी गोसल देवी, जो शैव थीं, ने गौरीशंकर मंदिर बनवाया जो आज भी है. विश्वविद्यालय का दर्ज़ा प्राप्त यह मठ पंचांग व काल-गणना का केंद्र था. ज्योतिष का अध्ययन करने दुनिया भर के विद्यार्थी आते थे. गोलकी मठ के अंतर्गत गणित, ज्योतिष, संस्कृत साहित्य, तंत्र विज्ञान आदि पढ़ाये जाते रहे थे. इनमे से तंत्र साधना केंद्र चौंसठ योगिनी मंदिर अब भी मौजूद है. बाकी शाखाओं को संचालित करने वाले भवन अब अस्तित्व में नहीं हैं.

प्राचीन तंत्र शास्त्र में ६४ योगिनियाँ बताई जाती हैं, जो आद्य शक्ति माँ काली की अलग-अलग कलाएं हैं. इनमे दस महाविद्यायें तथा सिद्ध्विद्यायें भी शामिल हैं. तंत्र के अनुसार घोर नमक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माँ आद्यशक्ति ने ६४ रूप धारण किये थे , जो कालांतर में चौंसठ योगिनियाँ कहलाईं. तंत्र शास्त्र में किसी भी महाविद्या का पूजन आरम्भ करने के पूर्व चौंसठ योगिनियों को सिद्ध करने का विधान बताया गया है. इन्हें सिद्ध करने के बाद विश्व में कोई काम नहीं जो साधक नहीं कर सकता अर्थात साधक स्वयं ईश्वरमय हो जाता है. तंत्र में चौंसठ योगिनियों की साधना द्वारा मुख्यतः षड्कर्म किये जाते हैं. ये सभी अलौकिक शक्तियों से संपन्न होने के कारण साधक को मनोवांछित वरदान देने में सक्षम हैं. इनको मातृका कहा जाता है. उनकी आराधना के द्वारा साधक विभिन्न प्रकार की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर चमत्कार दिखाने में सक्षम होते हैं. इन सभी बातों पर वर्तमान विज्ञान युग में विश्वास करना कठिन है.

यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ कि मदनमहल किला एवं संतुलन शिला मेरे निवास से मात्र २ – २.५ कि.मी. कि दूरी पर स्थित हैं. आज कल के माहौल और निर्जन स्थान हो जाने के कारण असामाजिक तत्वों एवं नशेड़ियों के शरण स्थल बन गए हैं, परिणामस्वरूप आवागमन काफी कम है. यद्यपि शारदा मंदिर जाने वाले भक्तगण फिर भी हैं. सम्बंधित विभाग इस ओर ध्यान नहीं देते जिससे ये सभी लगभग उपेक्षित हैं. यही कारण है कि जबलपुर की प्रसिद्धि नर्मदा किनारे संगमरमरी चट्टानों भेड़ाघाट और धुआंधार की अधिक है, जबकि नगर में अनेकानेक दर्शनीय, रहस्यमयी, रोमांचक स्थान हैं.

हर्षवर्धन व्यास , गुप्तेश्वर, जबलपुर (म.प्र.)

चेतावनी: लेखक ऐसे किसी भी प्रयास,पूजा, तंत्र पर ना विश्वास करता है और न अनुशंसा करता है, न कोई सहयोग कर सकता है, जो ईश्वर बना या मिला सकते हैं. यदि किसी पाठक को इन पर अमल करके कुछ भी हानि होती है तो उसका वह स्वयं ज़िम्मेदार होगा.यह मंदिर संबंधी जानकारी मात्र है.

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