हे मातृभूमि!, हे भारतवर्ष!, हे आर्यावर्त! मैं तुम्हारी पावन भूमि को ह्रदय की अतल गहराईयों से नमन करता हूँ. हे मातृभूमि!, मेरे लिए तुम महज एक राष्ट्र नही जिसे विश्व-मानचित्र पर इंडिया/भारत नाम से जाना जाता है. मेरे लिए तुम एक निर्जीव भौगौलिक सीमा मात्र भी नही, जो तीन ओर से सागर व एक ओर से हिमालय की अभिरक्षा में है. हे मातृभूमि!, मेरे लिए तुम इस वसुंधरा पर स्वर्ग कि संकल्पना हो. तुम्हारी विस्तृत सीमायें, मुझे ममतामयी आँचल की तरह प्रतीत होती है जिसकी छाँव, दूर-दूर तक फैली हुई है. वात्सल्य की तलाश मे मैं, कश्मीर, हिमाचल, दोआब, विन्ध्य, कलिंग, कामरूप, कच्छ, कनारा, कन्याकुमारी आदि कहीं भी जाऊं, मुझे एक जैसी ममता व सुरक्षा मिलती है.
हे मातृभूमि!, प्रकृति ने तुम्हें न जाने कितनी अनूठी प्राकृतिक विविधताओं से नवाजा है. इतनी विविधता किसी अन्य राष्ट्र को दुर्लभ है. ऐसा प्रतीत होता है- तुम्हारी युगों की तपस्या का फल देने को प्रकृति विवश हुआ हो .ऋतुओं की इन्द्रधनुषी छटा देखकर ऐसा लगता है मानो, कुदरत जीवन की उत्कर्ष-लीला देखने हेतु यहीं ठहरने का मन बना चूका हो.
हे मातृभूमि!, पर्वतराज हिमालय स्वयं जिसका मुकुट हो, विन्ध्य जिसका ह्रदय कवच हो, सह्याद्री और पूर्वीघाट जिसकी शक्तिशाली जानु हो, समुद्र तीन ओर से जिसके चरण पखार रहे हों वह भूमि कैसे नहीं अतिविशिष्ट होगी.
हे मातृभूमि!, मनुष्य क्या देवता भी जहां बार-बार जन्म लेने को लालायित रहते हैं,जो अनगिनत साधकों, तपस्वियों व ऋषियों की तपोभूमि रही हो, उस भूमि पर जन्म लेना निश्चित रूप से गर्व की बात है.
हे मातृभूमि!, जिसके ह्रदय-प्रदेश से स्वयं पावन गंगा प्रवाहित होती हो वह भूमि कैसे नही वन्दनीय कहलाये. हे माँ! सैकड़ों पर्वतीय व प्रायद्वीपीय नदियों का उद्गम व प्रवाही मार्ग बन तुमने अपनी ममता व विशालता का जो परिचय दिया है वह वर्णन के परे है. हे माँ! ये सदानीरा नदियाँ चिरकाल से मानव समेत असंख्य प्राणियों के जीवन का अवलम्ब बनी हुई हैं.
हे माँ! तुम निस्संदेह धरती की सबसे अमूल्य भू-भाग हो, सूर्य की जितनी सौर उर्जा तुम्हें प्राप्त होती है, अन्य किसी राष्ट्र को नही. शरद अपना रौद्र रूप तुम्हारे दशांश से अधिक भाग पर दिखा नही पाता. ग्रीष्म-ऋतू में तुम्हारी एक संकेत पर समुद्र गंभीर पुरुषार्थ करता है और मानसून को जन्म दे, मेघों को अपना दूत बनाकर भेजता है. ऐसा वृष्टिपात किसी अन्य राष्ट्र को नसीब कहाँ. पर्वतीय, समतलीय व समुद्रतटीय स्थलों का इतना विशिष्ट संतुलन अन्यत्र दुर्लभ है. ये संतुलन मुझे सत्व, रज, एवं तमो गुण का तुममें, सम्यक संतुलन होने का बोध कराता है.
हे माँ! ये तुम्हारी ममता व सहिष्णुता का ही जादू था कि तुम्हारी धर्मभूमि पर एकसाथ विभिन्न मतों, पथों, संप्रदायों का अभ्युदय उनके सह-अस्तित्व व सह विकास का कारण बना न कि प्रतिद्वंदता व शत्रुता का.
हे माँ! विभिन्न भाषाओँ, बोलियों के अभ्युदय की तुम साक्षी रही हो. यद्यपि उनमे बाह्य भिन्नता नजर आती हैं, फिर भी आंतरिक समानता है. यह समानता उनके उद्गम, वाचिक और शाब्दिक बनावट के स्तर पर साफ़ झलकती है.
हे माँ! तुम्हारे संतानों की वेश-भूषा, खान-पान में भले आंशिक या बुनियादी अंतर हो; किन्तु, सोच, मानसिकता, प्रकृति में गहरी समानता है. उनपे चढ़े भारतीयता के रंग को दूर से ही पहचाना जा सकता है. जैसे हजारों गायों के बीच खड़ी धेनु माँ, अपने बछड़े द्वारा सहजता से पहचान लिया जाता है, उसी प्रकार असंख्यों गैर भारतीयों के बीच खड़े किसी भारतीय को एक भारतीय के द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता है.
हे माँ! तुम्हारे ह्रदय की विशालता और उदारता का कोई जोड़ नही. शक, कुषाण, पहलव, तुर्क, अफगान मुग़ल आदि आक्रांता बनकर यहाँ आये, तुम्हारे परिवेश में घुल-मिलकर अंततः भारतीय हो गए. तुम्हें अपना वतन समझा, वतन से मुहब्बत की और यहीं के होकर रह गए. ये घुलनशीलता, भेदभाव रहित ह्रदय किसी साध्वी का ही हो सकता है.
हे माँ! जिस प्रकार शरद काल में पत्रहीन तरु अत्यंत दीन दीखता है; किन्तु, अपना धैर्य और प्राण-शक्ति बचाए रखता है तथा वसंत आते ही रक्तिम हरित कोपलों का श्रृंगार कर वह यौवन से सुरभित हो उठता है. उसी प्रकार संक्रमणकालीन समय में तुमने अद्भूत धैर्य व जिजीविषा दिखा, अपनी संस्कृति और प्राणशक्ति की रक्षा की है. यही वजह है कि सदियों की दासता का दंश झेलकर भी हमारा राष्ट्र, वर्तमान वैश्विक महकमे में ऊंचा और सम्मानित स्थान रखता है तथा आर्थिक-विकास, बौद्धिकता, अंतरिक्ष, व्यापार, शान्ति, विश्व-निर्माण आदि क्षेत्रों में निरंतर अपनी साख व विश्वसनीयता बनाए हुए है.
हे माँ ! तुम्हारी संस्कृति वह दर्पण है जिसके अवलोकन मात्र से मुझ अल्प-मति को भी अपनी भूमिका का सहज भान हो जाता है. जहाँ लोक-कल्याण के निमित्त कोई दधीचि सहर्ष अपना देह-दान कर देता हो; राजसी सुख को त्यागकर कोई सिद्दार्थ सत्य की खोज में महाभिनिष्क्रमण करता हो, युद्ध और रक्तपात से द्रवित, शोक-संविग्न सम्राट शान्ति-धर्मा अशोक बन जाता हो, नृप-निर्माता और दो-दो चक्रवर्ती सम्राटों का गुरु होकर भी कोई कौटिल्य राज्य-सुख से स्वयं को वंचित रख कुटी का आश्रय ले अपने नैतिक व बौद्धिक बल की रक्षा करता हो. वैभव व प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचकर भी कोई नगरवधु(आम्रपाली) सत्य व मुक्ति की खोज में बुद्ध की शरणागत होती हो, स्वाधीनता के रक्षार्थ जहां दुर्गावती और लक्ष्मीबाई जैसी विरांगनाएं अजेय शत्रुओं से दो-दो हाथ कर उनके दांत खट्टे करती हों, स्वाभिमान व संप्रभुता से किसी भी कीमत पर समझौता न करने की प्रतिज्ञा ले कोई महाराणा जीवन- पर्यंत अरावली की बीहड़ों में संघर्ष करता हुआ अपने प्रण की सफल रक्षा करता हो, स्वाधीनता के निमित्त आहूत यज्ञकुंड में जहां खुदीराम, चंद्रशेखर, भगतसिंह जैसे सैकड़ों क्रन्तिकारी युवक हँसते हुए अपने प्राणों की आहुति देता हो उस देश में जन्म लेने मात्र से इतना तो सहज ज्ञान प्राप्त हो ही जाता है कि जीवन का मतलब महज क्रियाशील भोग नही, राजसी वैभव नही, कृत्रिम ठाट-बाट नही, अपितु ,राष्ट्र-निर्माण के उद्देश्य से प्रेरित आत्म- निर्माण है. आत्म चेतना की वह अलख जलाना है जो विश्व क्षितिज पर फैले अँधियारे को मिटा सकें. धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्रेरित पुरुषार्थ है जिसका उद्देश्य महज व्यष्टिकरण नही अपितु ‘वशुधैव कुटुंबकम’ के भाव से भरा समष्टिकरण है.
हे मातृभूमि! विश्व-मानचित्र पर जब मैं अन्य विकसित राष्ट्र को देखता हूँ और यदा-कदा भ्रमण कर उनके उद्भव, संस्कृति, प्रकृति, लोकाचार, इतिहास, व प्रगति से रू-ब-रू हो तुम्हारे सापेक्ष अध्ययन करता हूँ, तो भी मेरा मन किसी द्वन्द अथवा सम्मोहन का शिकार नही होता. यदद्पि, उनकी समृद्धि व भौतिक प्रगति क्षण भर के लिए मन को रिझाती है, किन्तु, तुम्हारे अनन्य प्रेम में बंधे मेरे मन को वो हर नही पाती.
परराष्ट्र: बहुमत मम, यदद्पि समृधि माधुर्ये:
भारत बद्धं न तु, तावन्मे मनो हरति.
हे मातृभूमि! मैं धन्य हूँ कि तेरी भू-खंड पर मेरा जन्म हुआ, यहाँ की पंचभूतों से मेरा भौतिक शरीर निर्मित हुआ. मेरे चेतन, अचेतन मन में तेरा ही वास है. ईश्वर से करबद्ध प्रार्थना है कि मेरा सूक्ष्म-शरीर सदा तेरी ही सुरभि से सुवासित रहे, आत्मा का वास स्थान तेरी ही पावन भूमि बने और यह सौभाग्य जन्म-जन्मांतर तक प्राप्त हो.
कृष्ण कुमार चौधरी