मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा !

कवि: बृजलाला रोहण

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मेरी औकात नहीं तुम्हें पाने की !

हैसियत नहीं हथियाने की !

शायद मेरी अंतरात्मा तुम्हें पुकारती हो !

सिवा तुम मुझे चाहो या न चाहो !

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा । मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

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शायद तुम जमाने से डरती होगी !

मतलबी दुनिया के रवैये से कतरती होगी !

पर सच बताऊँ मेरी भी जमाने से कोई खास नहीं जमती !

सिर्फ तुम्हें पाने के लिए जमाने से भी भीड़ जाऊँगा ।

सितम सहकर तेरी अब मैं सुकून पा न पाऊँगा !

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

.

तुम्हें सुखी रखने के साधन भी नहीं मेरे पास !

न कोई आशियाना है !

न कहीं कोई ठिकाना है !

पर गर तेरा साथ मिले तो वो भी जुटा लाऊँगा ।

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

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मिथ्या वादों से ,दिखावे की फरियादों से मैं खुद को बचाना चाहूँगा !

चाँद- तारे तोड़ नहीं सकता !

पर तेरे खातिर खुद चाँद- सितारे बन जाऊँगा ।

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

.

दुनिया से इतर, जमाने से दूर!

न कोई होगी व्यर्थ की उलझन!

होगी प्रकृति संग हमारे प्रेम की प्रसंग भरपूर।

देखे गए हमारे सपने को मिलकर हकीकत बनाना चाहूँगा।

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

.

तुम्हें मुझपर अब भी यकीं नहीं !

कोई बात नहीं प्रिये !

तुम्हारी चाहत में तुम्हारी हर इम्तिहान से गुजरना चाहूँगा!

परिणाम भले ही भरोसेमंद न पाओ !

मगर तेरी भावना से कभी खेल न पाऊँगा !

निष्ठापूर्वक तेरी मूल्यांकन स्वीकार करूँगा ,

मैं ! तेरी मूल्यों से कभी मजाक कर न पाऊँगा ।

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा ।

.

तुम्हारे दिल में भले ही दूसरे का दस्तक पड़ जाये !

पर तेरी दिल में पड़ी दस्तक को तुझसे दूर कर न पाऊँगा !

मुस्कान को तेरी मंजिल समझकर मैं वहीं समाप्त हो जाऊँगा ।

मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा । मैं फिर भी तुम्हें चाहूँगा —–।

कवि: बृजलाला रोहण

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