कैद थी अपनी जिम्मेदारियों से,
जब संभलना चाह खुद को नीचे पाया
इन समाज के बीमारियों से,
बहुत गिन चुकी घड़ियां
उडूंगी अब तोड़कर हर बेड़ियां
क्योंकि अब आज़ाद हूं मैं |
बहुत जल चुकी थी इन तानो के धूप से,
सोचते थे क्या ही आगे निकलेंगी हम मर्दो से,
उन्हे क्या मालूम था हम शुरू से वाकिफ है दर्दों से,
अगर हम सवार सकते है तो बिगाड़ भी सकते है अनेकों रूप से,
क्योंकि अब आज़ाद हूं मैं |
सीमित नहीं रह गई अब कोई ख्वाहिश,
रोक ना सकेंगी अब कोई बंदिश,
अंधेरों में बहुत जी लिया है,
उजालों में रहना है अब
भीख में बहुत जी लिया है
मुट्ठी में करना है यह जहान सब,
क्योंकि अब आज़ाद हूं मैं
क्योंकि अब आज़ाद हूं मैं||
By अविनाश सोनकर
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