हर लम्हें इंसानियत तोड़ रही है,
दम यहाँ
कभी चीखती लड़कियों की आवाज़ दब
जाती है यहाँ, तो कभी किसी की दहेज़ की
तराजू में तौली जाती है बेटियाँ यहाँ,
हाँ, मगर सब चुप है यहाँ
क्या करें इंसानियत दम तोड़ रही है,
इंसान नहीं
इंसानियत की और क्या दास्तां सुनाऊ मैं
आँख अक्सों से भर जाते हैं, और फिर कागजों पर बिखर जाते हैं
जब मीलों चलते देखती हूं मजदूरों को यहाँ
तो सोचती हूं क्या इंसानियत भी चलती है इनके साथ, शायद चलती तो यूँ पटरियों में पड़े ना होते….
लेकिन इंसानियत कैसे मर सकती है यहाँ,
ये तो गाँधी, कलाम, टेरेसा………. का देश है,
अन्नदाता दम तोड़ देते हैं यहाँ, लेकिन क्या करे सफ़ेद लिबास पहने वज़ीर है यहाँ, इंसानियत की चादर ओढ़े नहीं……
मेरे अंदर तो इंसानियत ज़िंदा है,
क्या आपके अंदर भी है……..?
इंसानियत……
कबि परिचिति: आलिया फ़िरदौस