भारत एक गंगा- जमुनी संस्कृति वाला देश है, जिसमें विविध धर्म, वर्ग और जाति के लोग निवास करते हैं. यही इसकी विविधता में एकता का परिचायक है. भारतीय समाज कबीर की बुनी हुई चदरिया है, जिसके भीतर विभिन्न धागों का ताना बाना है. भीतर की इसी बुनावट में उसका सौंदर्य है. तथापि राजनैतिक असहिष्णुता कबीर की चादर के कुछ धागे निकालने का प्रयास करते हैं. लेकिन इस देश में धर्म निरपेक्ष शासन व्यवस्था के अंतर्गत सभी धर्मों को समान आदर प्राप्त है. प्रशासन किसी भी धर्म के क्रिया कलापों में हस्तक्षेप नहीं करता है. यह आज की शासन व्यवस्था न होकर प्राचीन काल से ही प्रचालन में है. जब भारत में आर्यों का निवास था, वे वैदिक शासन व्यवस्था और संस्कृति के अनुपालक रहे हैं. यही वैदिक आचार संहिता भारतीय संस्कृति का द्योतक है. यह चलन उस काल से आज तक स्थिर है, जिसमें कोई परिवर्तन न हो सका और वह जीवन जीने का तरीका बन गया, जीवन पद्धति बन गई.
इस जीवन पद्धति को धर्म अर्थात धारण करने योग्य कहा गया. इसे सनातन धर्म का नाम देकर सबके लिए और सदा करने योग्य पाया गया. इसे मनु स्मृति में भली भांति परिभाषित किया गया और इसके अंतर्गत आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण के लिए आवश्यक कर्म दर्शाए गये हैं:-
धृतिःक्षमादमोस्तेय्मशौचमिन्द्रियनिग्रहः धी: विद्यासत्यमक्रोधोदशकंधर्मलक्षणं / मनुस्मृति६-९२ /
इसे यूँ समझा जा सकता है जिसे कहीं भी, कभी भी, कोई भी पालन करने में सक्षम और समर्थ होता है. अर्थात धृतिः – कठिनाई के समय अधीर न होना , क्षमा, दम- मनोकामनाओं पर पूर्ण नियंत्रण अर्थात आदर्श जीवन, अस्तेय – चोरी न करना, शुचिता- मन, शरीर और जगह की शुद्धता , इन्द्रिय निग्रह – त्याग, धी:- बुद्धि को तीक्ष्ण और शक्तिशाली बनाना, विद्या, सत्य – सदा सच का आचरण तथा अक्रोध – किसी पर क्रोधित न होना. ये समस्त कार्य सबके करने योग्य, हमेशा करने लायक होते हैं ताकि समाज में भद्र जनों की उत्पत्ति हो सके.
ऊपर परिभाषित समस्त कार्य भारतीय संस्कृति के अविभाज्य अंग हैं, जिन्हें मानव मात्र के कल्याण की कामना से परिभाषित किया जाता रहा है. इनका सम्बन्ध किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या जाति से नहीं है. आप और हम सभी जानते हैं कि सच बोलना सभी के लिए, सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य है. उसी तरह मन की कामनाओं पर नियंत्रण करके आदर्श जीवन व्यतीत कर भद्र इन्सान कहलाने में विश्व में किसी भी मानव को कोई हानि नहीं हो सकती है. जहाँ तक इन्द्रिय निग्रह का सवाल है तो इस बारे में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि पांचों ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, कान, नाक,जीभ त्वचा) और पांचों कर्मेन्द्रियों ( वाणी, पांव, हाथ, गुदा, लिंग) का आपके नियंत्रण में रहना अति-आवश्यक होता है ताकि सामाजिक ढांचा न चरमराये और उससे उत्पन्न त्याग की महिमा का वर्णन शब्दातीत हो उठता है.
उपरोक्त आदर्श आचार संहिता का आधार वैदिक विचार धारा से ओत प्रोत भारतीय संस्कृति ही है. संस्कृति उस विचार सारणी को कहा जाता है जो संस्कारों को जन्म देती है. तत्पश्चात करणीय कर्म यानि आदर्श सामाजिक आचार संहिता का निर्माण करती है. यही तो संस्कृति और सभ्यता कहलाती है. संस्कृति को सुन्दर भावपूर्ण व्यवहार उत्पन्न करने वाली होना चाहिए. अतः संस्कृति उसी विचारधारा का नाम है जो सुन्दर संस्कार और आचार व्यवहार की सृष्टि करे क्योंकि उपरोक्त सूत्र एक जीवन पद्धति का निर्माण करते हैं, उसका निर्वहन करते हैं तब समय के साथ उसका विनष्टीकरण नहीं होता. ये सुन्दर संस्कार और आचार व्यवहार व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी गमन करते चलते हैं.
सर्वप्रथम उस वैदिक आचार संहिता के अंतर्गत सत्य की विवेचना करने का प्रयास करेंगे. यह सामाजिकता का तकाज़ा है कि हम सदा ही सत्य बोलें और सत्य का ही आचरण करें यानि जैसे हम भीतर से हैं , वही व्यवहार हम सामने वाले से भी करते हुए चलें. जो जैसा है उसे वैसा ही कहना और जैसा आपका आचरण है, उसे वैसा ही प्रकट करना, सत्याचरण के अंतर्गत आता है. हम अपने इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम, श्री कृष्ण, युधिष्ठिर , हरिश्चंद्र से लेकर महात्मा गाँधी तक अपने जीवन में सदा सत्य का आचरण करते रहे. एक कथा के अनुसार युधिष्ठिर का रथ महाभारत के युद्ध में ज़मीन से ऊपर चलता था लेकिन युद्ध में अपने गुरु द्रोणाचार्य को “ नरो वा कुंजरो वा “ कहते ही ज़मीन से आ लगा. यह थी सत्याचरण की ताकत . महान दार्शनिक हैनरी डेविड थोरो का कथन भी विचारणीय है कि प्रेम, धन और यश की अपेक्षा मुझे सत्य चाहिए.
अब आदर्श जीवन पद्धति के अंतर्गत दम और अस्तेय की विवेचना करना समीचीन होगा. मान लीजिये किसी निर्जन स्थान पर एक बहुमूल्य आभूषण पड़ा है. हमें मालूम है कि वह हमारा नहीं है, इस कारण उसको उठा लेने की मन में इच्छा भी न लाना है दम अर्थात आदर्श जीवन चर्या का असली उदाहरण है. कहने का मतलब यह कि हम अपने मन की कामनाओं को अपने नियंत्रण में रख पाने में सफल हो गये. तथापि इस आदर्श सोच पर कलयुग के वर्तमान काल में अमल करना कठिनतर होता जा रहा है, जो आज की सामाजिक, राजनैतिक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है. परन्तु इस आदर्श को अमली जामा पहनने से ही हम भारतीय संस्कृति के आदर्श की श्रेष्ठता सिद्ध करने में सफल हो सकते हैं.
इसी आदर्श जीवन पद्धति जुड़ा अस्तेय यानि अचौर्य भी है, जो वस्तु अपनी नहीं है उसे न लेना. आज सुबह- सुबह हमारे बगीचे से एक अनजान व्यक्ति को बिना पूछे फूल तोड़ते देखकर, पूछा- क्या आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं? उनका उत्तर था जी हाँ ! ये फूल उनके लिए ही ले जा रहा हूँ. इस पर मैने कहा – आप ईश्वर पर विश्वास भी करते हैं और बगैर पूछे फूल तोड़कर उनको चढाते हैं. आप खुद विचार कर के देखें कि उस सर्वव्यापी परमात्मा ने आपको फूल की चोरी करते हुए भी देखा है और उसी फूल को उनको समर्पित करते हुए भी. जब पुण्य लाभ की बारी आएगी तो वह सर्वव्यापी उक्त लाभ चोरी कर फूल चढाने वाले को देगा या उसे देगा जिसने फूल का पौधा लगाकर पालन पोषण किया है? वह अनजाना व्यक्ति सर झुकाकर चलता बना. शायद चोरी करने की ग्लानि मन में अवश्य हुई होगी. कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर के काम में भी पहले चोरी फिर पूजा, मन की शुद्धता जो हमारी वैदिक आचार संहिता का अंश है- उसका क्या हश्र होगा?
मानव को अपनी पांचो कर्मेन्द्रियों ( वाणी, पांव, हाथ, गुदा, लिंग) और पांचों ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, कान, नाक,जीभ त्वचा) की अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना ही सच्चा त्याग का स्वरुप होता है. प्राचीन युग से ही हमारे ग्रंथों में दान और त्याग के साथ ही परोपकार की महिमा का वर्णन भरपूर मिलता है. रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इसे रेखांकित करते हुए निम्न चौपाई सकड़ों वर्षों पूर्व समाज के हित में लिखी थी :-
परहितसरसीधरमनहींभाई / परपीड़ासमनहींअधमाई /
हमारी संस्कृति में दूसरा उदाहरण दानवीर कर्ण का मिलता है. उनका जन्म कैसे हुआ, फिर नदी में बहाए गये और लालन पालन एक सारथी के घर हुआ. दुर्योधन की मित्रता ने उनको राजा और महारथी योद्धा बनाया. महाभारत के युद्ध से पूर्व , जानते बूझते ब्राह्मण वेश में आये इंद्र को उनने अपने जन्म से प्राप्त कवच और कुण्डल बिना हिचकिचाए दान कर दिए, जो उनके जनक भास्कर ने कर्ण की रक्षार्थ प्रदान किये थे. त्याग की इस मूर्ति को शत शत नमन.
उपरोक्त से स्पष्ट है कि सामाजिक रूप से भद्र व्यक्ति कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है जो भारतीय संस्कृति की वैदिक आचार संहिता के अनुरूप सत्य, आदर्श और त्याग की प्रतिमूर्ति होने के साथ साथ अपने उद्देश्य के प्रति गंभीर हो, जो अपनी भावनाओं को नियंत्रण करने में सक्षम हो, जिसका आचरण सत्य के साथ आनंदप्रद हो. वह अपने मित्रों और सहयोगियों के बीच गंभीरता और आत्म नियंत्रण का निर्वाह कर सके. कुटुंब में आनंदप्रद आचरण के साथ सत्य , आदर्श और त्याग का निःसंकोच पालन कर पाये तभी वह न सिर्फ भद्र कहलाने का अधिकारी होगा बल्कि दुनिया में भारतीय संस्कृति का परचम अलग ही फहराता दिखाई पड़ेगा.
संक्षेप में अगर हम कहना चाहें तो भारतीय संस्कृति, वैदिक आचार संहिता से प्रेरित संस्कृति है, आचार –व्यवहार है, जिसके अंतर्गत सनातन विचार व्यवहार हमेशा, सर्वत्र तथा सभी मानव मात्र के पालन करने योग्य हैं . यह सभी मनु महाराज द्वारा बताये गये दस मूल व्यवहार—धीरज, क्षमा, मनोकामनाओं पर नियंत्रण, अचौर्य, मन- शरीर की शुद्धि, इन्द्रियों पर नियंत्रण, बुद्धिमत्ता,विद्या, सत्य एवं अक्रोध—सम्मिलित हैं.सरल भाषा में कहा जाये तो भारतीय संस्कृति में सत्य, आदर्श और त्याग का अर्थ सारांश में – आत्मनःप्रतिकुलानिपरेशांनसमाचरेत अर्थात जो व्यवहार आपको अपने अनुकूल न लगे , वह किसी भी दूसरे के प्रति आचरण में न लायें.
अतः हमें राम, कृष्ण, गाँधी, बुद्ध जैसे महामानवों का सम्मान सुरक्षित रखते हुए, उनके बताये गये रास्तों पर नैतिक और सामाजिक सोपान तय करना चाहिए. हजारों वर्षों में जिस सारगर्भित साहित्य का निर्माण हुआ है, उसका अध्ययन, मनन एवं चिंतन करके उसके सार और हितकारी स्वरुप में वैदिक आचार संहिता के उन बुनियादी लक्षणों के आधार पर भारतीय चरित्र का निर्माण कर सकें, तभी हम दुनिया के सारे मानवों से एक अलग व्यक्तित्व का निर्माण कर सकेंगे जो पूर्णतः भारतीय संस्कृति पर आधारित होगा.
आपने भी धर्म और सम्प्रदाय का मिश्रण किया है विचार व् विषय आज के लिए आवश्यक हैं
धर्म
धर्म सनातन है यानी जिसका आदि और अंत नहीं है l ये दस कर्म हैं जो न तो कभी नों हुए न ग्यारह l जिसका कोई मार्गदर्शक है न ईश्वर न भगवान न गुरु सतगुरु न मसीहा न पैगम्बर न ऋषि मुनि न ही इष्ट l
सारे दस कर्म जो पालन करता है वह धार्मिक है जो नही करता है वह अधार्मिक है l इसमें छुट नहीं होती है, देव,दानव मानव सभी को जल, थल ,नभ में पालन करना अनिवार्य है l
धर्म बड़ा कठिन होता है और सर्व श्रेष्ठ है l
संप्रदाय, पंथ, मत, मज़हब,रिलिजन श्रेष्ठ हैं पर सर्व श्रेष्ठ नहीं l इनके लिए आस्था, श्रध्दा,विश्वास,भक्ति,कारण(स्वार्थ,चाहना,मांग)होती है,तर्क बुद्धि विवेक का निषेध होता हैl
धर्म में आस्था,श्रध्दा,विश्वास,भक्ति,कारण(स्वार्थ),चाहना,मांग का निषेध होता हैl
धर्म के दस कर्म हैं १-सत्य बोलना,२-क्रोधना न करना,३-विद्धया-निरंतर ज्ञान प्राप्त करते रहना,४-बुद्धि को तीक्षण करते रहना,५-शुचिता -अपना औए निवास की सफाई करते रहना,६-क्षमा,७-इंद्री निग्रहः,८-अस्तेय-चोरी न करना,९-धृति-धैर्य,१०-दम-मन की इच्छाओ पर नियन्त्रण करना l
इसमें से सभी दस कर्मो को पूर्ण से रूप से पालन करने वाला धार्मिक होता है दस में से मात्र एक का पालन नही करने से या होने से आधर्मिक हो जाता है यह एक बहुत ही क्षीण अन्तर होता है धार्मिकता और आधार्मिकता मे l संप्रदाय, पंथ, मत, मज़हब,रिलिजन की प्रभुता स्थापित करने के लिए धर्म को साथ में जोड़ देते हैं वास्तव में दोनों में ज़मीं आसमान का अंतर हैl
धर्म का पालन करने से निर्लिप्तता की प्राप्ति होती है यानी न सुख में सुखी न दुःख में दुखी l
सारगर्भित एवं पठनीय
बहुत ही सार्थक और प्रासंगिक आलेख है!! भाई हर्षवर्धन आप बहुत अच्छा लिखते हैं, ये तो मालूम था ! लेकिन उपरोक्त आलेख में तो अपार जानकारियाँ हैं!
कृपया फिर कुछ लिखें तो बताने की कृपा करें!
साधुवाद के साथ!!
[…] Harsh Wardhan Vyas (*) […]