जहाँ खुशियाँ आती है आसमान में ,
आनंद और किल्लोल की सुनाई देती है बुलंद चीख ।
तिल और गुड़ की बनती है अनोखी संघिनी ,
जब आती है “ मकरसंक्रान्ति ” ।।
हर साल १४ जनवरी को पूरा भारतवर्ष मकरसंक्रान्ति का त्योहार धूम – धाम और हर्षोल्लास से मनाता है । यह त्योहार सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं , पर समग्र विश्व के अधिकांश देश इसे मनाते है ।
मकरसंक्रान्ति के नाम में ही उसका सम्पूर्ण सार समाविष्ट है । इसदिन सूर्यदेव कर्क राशि से मकर राशि की ओर संक्रमण ( प्रवेश ) करते है । दूसरी तरह से कहे तो इसदिन सूर्यदेव दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करते है । इसीलिए इसे उत्तरायण भी कहा जाता है ।
हम सब इससे ज्ञात है की ‘ संसार जरूरत के नियम पर चलता है । – सर्दियों मे जिस सूरज का हमें इन्तजार रहेता है , उसी सूरज का गर्मियों में हम तिरस्कार भी करते है । ’ लोगों की मान्यताओं के मुजब कई लोग सूर्यदेव की आराधना करते है की कब सूर्यदेव प्रसन्न होकर उन्हें गर्मी का अनुभव करायें । और मकरसंक्रान्ति के दिन से गर्मी का आगमन शुरू हो जाता है । मकरसंक्रान्ति के दिन रात छोटी और दिन लंबा होता है । मानो सूरज के तेज ने अंधकार पर विजय प्राप्त कर लिया हो । यह हमारे लिए प्रेरणारूप है , प्रेरक है । मनुष्य का जीवन भी इसी तरह प्रकाश और अंधकार के श्वेत – श्याम रंगों से घिरा हुआ होता है । जिसमें हमें अंधकार को चीरकर प्रकाश के पथ की ओर संचार करना होता है । क्योंकि प्रकाश में जागरूकता और चैतन्य है , जबकि अंधकार में सुषुप्ति और प्रमाद होते हैं ।
यह तो हम धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से मकरसंक्रान्ति का अर्थ समजे । लेकिन अब व्यावहारिक रूप से मकरसंक्रान्ति को समजते है ।
मकरसंक्रान्ति के दिन सभी छोटे – बड़े , युवा – बूढ़े सभी छत पर चढ़कर पतंग उड़ाने लगते है । सभी नये – नये कपड़े पहनकर पतंग उड़ाने लगते है । और साथ में ऊँधियु , लाडु का स्वाद भी लेते है ।
“ नाह – धोकर फ्रेश होकर
आँखों में चश्मा और सिर पे टोपी लगाकर ,
एक हाथ में फिरकी और एक हाथ में पतंग उड़ाकर ,
मुँह में तिलगुड़ का स्वाद लेकर ,
मनाते है हम खुशी से उत्तरायण । ”
बड़ी सुबह लोग स्नान कर फ्रेश होकर नये कपड़े पहन लेते है । फिरकी और पतंग लेकर छत पर चढ़ जाते है । आँखों में धूप से बचने के लिए चश्मा तो माथे पे टोपी लगाते है । और सुबह से ही हमें ‘ ए लपेट ….. ’ की आवाजें सुनाई देने लगती है , तो दूसरी तरफ डीजे , संगीत का शोर होता है । समग्र आकाश पतंगों से भर जाता है । चारों तरफ खुशियों का माहोल होता है ।
लेकिन क्या किसीने ये सोचा है की हमारी ये दो पल की खुशी किसी की पूरी जिंदगी को खत्म कर सकती है । आकाश में उड़ते उन पंछियों की , उन बच्चों की जो रास्ते से गुजर रहे थे , उस मासूम बच्चे की जो पतंग के लिए यहाँ – वहाँ दौड़ता है ।
‘ सव्वे जीवावी इच्छति जीविऊ न मरिज़्जिउ ’ ।।
अर्थात् की संसार का हर एक जीव जीवित रहेना चाहता है । फिर वो पशु हो , पंछी हो या फिर मनुष्य । सरकार ने चाईनीज दोरी और तुक्कल पर प्रतिबंध लगाया है । क्योंकि ये चाईनीज दोरी से कई मासूम पंछी और मनुष्यों की मृत्यु हुई है । एक पंछी जो शाम को अपने बच्चों के लिए दानें लेकर वापस आ ही रहा होता है की उसकी गरदन पर दोरी आ जाती है और वो तड़प – तड़पकर वहीं पर अपना दम तोड़ देता है । एक बच्चा या बुजुर्ग मोटरसाइकिल पे अपने परिवार को कई दिन के बाद मिलने के लिए जा ही रहा होता है की पतंग की तेज दोरी उसके गले को चीरकर निकल जाती है और वह उसी जगह अपने प्राण त्याग देता है । दोनों की आँखों में परिवार की चाहत के आँसू है तो जीवित रहने की लालसा भी है । पर क्या करे ? इसमें किसका दोष है ? हमारा , उनका या तो इस त्योहार का ?
इसमें दोष है हमारी मानसिकता का , हमारी सोच का और हमारी लापरवाही का । त्योहार के जश्न और आनंद में हम ये तो भूल ही जाते है की हमारी पतंग से कोई पंछी बेरहमी से मर सकता है , कोई बेटा अपने माँ – बाप से दूर हो सकता है । इसमें दोष है तो केवल हमारी सतर्कता का । ‘ जिस त्योहार को मनाने में हमें आनंद होता है , उसी त्योहार की अखबार में खबरें सुनकर बाद में अफसोस भी होता है । सतर्कता ऐसी रखें की आकाश में उड़ रहा हर एक परिंदा दोरी में ना फंस जाए और अगर गलती से फंस भी जाए तो उसे अपने प्राण ना खोने पड़े । क्योंकि हमारी सरकार ने करूणा अभियान जारी किया है । जिससे हर एक पंछी को नया जीवन मिला है । रास्ते पे दौड़ रहे बच्चे को पतंग और उसकी जिंदगी की अहेमियत भी समजानी होगी । शायद आपकी एक प्रेरणा से या आपके एक वाक्य से किसीको नया जीवन मिल जाए ।
“ आनंद – किल्लोल की ये बुलंद आवाज
कहीं न बन जाए अबोल पंछियों की फफड़ाट
याद रखना हमेंशा अपने मन में
हर त्योहार ऐसे मनाना की
जिससे ना हो किसीको नुकसान । ”
मकरसंक्रान्ति का त्योहार सिर्फ पतंग उड़ाकर आनंद ही नहीं , पर जीवन में एक नई रोशनी भी लाता है । रोशनी नये रिश्तों की ।
लोग तिलगुड़ , लाडु , उँधियु , कचरीयुं आदि वानगी बनाकर एकदूसरे को खिलाते है । तिल की स्निग्धता और गुड़ की मिठाश का आनंद लेते हुए एक नये संबंध को जोड़ता है यह त्योहार । अगर संबंधों की द्रष्टि से मकरसंक्रान्ति का अर्थ समजे तो ‘ जो जीवन के कंकास , क्लेश और कड़वाश को दूर कर स्नेह और मिठाश की संक्रान्ति करें , उसे ही सही नजरिए से कहे मकरसंक्रान्ति । ’
“ जब चारों तरफ हो संगीत की सीरम ,
आँखों पे हो काले चश्में की चमक ,
जब हाथ में हो गुलाबी फिरकी और
आकाश में हो रंगबेरंगी पतंग ,
उसे ही कहे मकरसंक्रान्ति की असली रॉनक । ”
इसदिन लोग दान और पुण्यार्थ के महिमा को अपनाते है । दरिद्रनारायणों या भिक्षुकों को नहीं पर अबोल – निर्दोष पशुओं को घासचारा , पंछियों को विपुल मात्रा में दानें , श्वान के लिए लाडु और पाँजरापोल में भी दान करते है । पूर्वे तो भुदेवों को तिल के लाडु में सोने या चांदी का सिक्का छुपाकर गुप्तदान भी करते थे । साधु – संतों को दक्षिणा देते है । इस तरह खुशियों और नई रोशनी से यह त्योहार लोग मनाते है ।
अगर कोई भी त्योहार सच्चे मन से मनाओं तो ही उसका आनंद मिलता है । किसी के दबाव में आकर त्योहार मनाने से आनंद नहीं मिलता । मन हो तो हर दिन , हर प्रहर और हर क्षण त्योहार है ।
“ हर एक क्षण को मनाइए खूब आनंद से ,
यादों को रखिए बहुत संभालके ,
बचपन हो या बुढ़ापा ,
ये लम्हा दोबारा नहीं आता । ”
By JIGAR DINESHBHAI CHAVDA, Gujarat