खाली सीट

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भैया जयपुर की ट्रेन कोन से प्लेटफॉर्म पर आएगी ? मैंने इन्क्वायरी काउंटर पर पुछा प्लेटफार्म न. 4 – उसने उत्तर दिया …

मैंने घड़ी की ओर देखा तो ट्रेन के समय में केवल 5 मिनट बचे थे..मै भागते हुए प्लेटफार्म नंबर चार पर पहुंचा तो देखा कि ट्रेन आ चुकी थी, मै तुरंत ही अपने कोच S7 की ओर बढ़ा और  अपनी सीट खोजने लगा ,20  नं. सीट पर पहुंच कर अपना सामान रखा और खिड़की से बाहर की ओर झांकने लगा….आज प्लेटफार्म पर भीड़ सामान्य  से कुछ ज्यादा थी ..कई अनजान चेहरे और कुछ चिर – परिचित आवाज.. चाय और नाश्ते वालों की…|||

टिकट….टीटी ने मेरा ध्यान अंदर की ओर खींचा….नया चेहरा पर वहीं पुरानी आवाज..टिकट बताओ ..टी.टी. को टिकट दिखा कर मै वापस बाहर की ओर देखने लगा |

ट्रेन रतलाम प्लेटफॉर्म से निकल चुकी थी, घड़ी की ओर देखा तो रात के पौने ग्यारह बज रहे थे..आस पास नजर घुमाई तो हर कोई सोने की तैयारी कर रहा था | 
मेरी नजर सामने की सीट की ओर गयी ….. वो सीट खाली थी | खैर… मै भी सोने की कोशिश करने लगा पर ना जाने क्यों, न चाहते हुए भी मेरा ध्यान बार-बार  सामने खाली पड़ी सीट की ओर जा रहा था.. जिंदगी के सफ़र में भी तो यही होता है..जिंदगी का जो कोना खाली रह जाता है, बार-2  ध्यान उसी की ओर जाता है | 

कुछ दरवाजों पर पर्दे रहना जरूरी है…पर कोई एक झरोखा ऐसा होता है जो हमेशा  खुला रहता है, जिससे आप अंदर झांक सकते हैं……. |

मै अपने अतीत में खोने लगा… मेरे साथ भी तो यही होता आया है हमेशा से…!!! जब कोई ख्वाहिश अधूरी रह जाती है, तो मेरा मन भी बार-बार जिंदगी के उस खाली कोने की तरफ जाता है परंतु उसमें मेरी भी क्या गलती है ..??? यह इंसानी फितरत है, जब बचपन में भी कोई एक दांत टूट जाता था तो जुबान बार-बार उसी खाली जगह पर ही तो जाया करती थी …|||

मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबने  लगा…

मैं अपने अतीत को कुरेदना नहीं चाहता पर ना जाने क्यों ..जिंदगी के खाली पड़े हिस्से एक-एक कर सामने आने लगे…पीछे छूट चुके सपने ओर कुछ अपने एक एक कर याद आने लगे…. जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रही, बिल्कुल इस ट्रेन की तरह बिना रुके…. अनवरत…

इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में आप चाहे कितना भी आगे बढ़ जाओ बिताई हुई जिंदगी के कुछ किस्से हमेशा साथ होते है… जिंदगी कई बार एक ऐसे मोड़ पर आ के खड़ी हो जाती है मानो सब कुछ थम सा गया हो |   

ट्रेन भी रुक गयी थी, शायद बाहर कोई स्टेशन आया था… हमारी जिंदगी भी तो कई बार रुक जाती है लगता है मानो सब कुछ थम सा गया हो…..

परंतु यह वक्त का रहम है कि चाहे परिस्थितियां  कितनी भी विपरीत क्यों ना हो एक निश्चित समय के बाद जिंदगी अपनी रफ्तार से पुनः है चलने लगती है… ट्रेन भी चलने लगी अपनी अगली मंजिल की ओर…. सोचते सोचते ना जाने कब में मुझे नींद आ गई…पता ही नहीं चला | जब आंख खुली तो ट्रेन अजमेर जंक्शन पर खड़ी थी, घड़ी की ओर देखा तो सुबह के 6:30 बज चुके  थे… जयपुर अब ज्यादा दूर नहीं था , मैंने चाय वाले से चाय ली और कप से उठते गर्म धुए को महसूस करने लगा तभी अचानक मेरी नजर सामने की सीट पर गयी..परन्तु… अब वो सीट खाली नहीं थी | एक बूढ़े चाचा बैठे थे | ढलती उम्र और चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के बावजूद उनकी आँखों की चमक कम नहीं हुई थी |

आप जयपुर जा रहे है ? – मैंने पूछा

हाँ बेटा – उन्होंने बड़ी ख़ुशी से जवाब दिया |

जब मैंने जयपुर जाने का कारण पूछा तो उन्होंने जवाब दिया – “जिंदगी के कुछ खाली कोनो में रंग भरने जा रहा हु”

मै आश्चर्य के साथ उनके चेहरे पर आते-जाते  भावो को पढ़ने की नाकाम कोशिश करने लगा | पास रखी पानी की बोतल से दो घूंट पानी पी कर उन्होंने बताना शुरू किया की किस तरह उनके बेटे ने धोखे से उनकी सारी संपत्ति अपने नाम करवा ली और उनको परेशान करने लगा | जिंदगी बोझ सी  लगने लगी थी – बोलते हुए उनकी आँख से दो आंसू लुढ़क कर गालो पर आ गए | आंसू पुछते हुए वे आगे बोले की एक दिन उनके पड़ोस में रहने वाला विजय उनसे मिलने आया, विजय के पिता का देहांत बचपन में ही हो चूका था, बड़ी कठिनाई से मेहनत-मजदूरी कर के उसने अपनी पढ़ाई को जारी रखा और अब वो एक जयपुर में किसी अच्छी कम्पनी में जॉब करता है | जब विजय ने मेरी ये हालत देखी तो उसने मुझसे कहा की चाचा आप मेरे साथ जयपुर चलो, मै हमेशा ही एक पिता के प्यार को तरसा हु, आपके आने से मेरी ये कमी पूरी हो जाएगी, आज मै उसी के पास जयपुर जा रहा हु|  थोड़ा रुक कर वे बोले- मुझे मेरा खालीपन भरने का बहाना मिल गया, मेरे जज्बातोको उनका असली हक़दार मिल गया |

मै खिड़की से बाहर की ऒर देखने लगा, इस एक घंटे में मुझे समझ आ गया था की 

“जिंदगी का कोई खाली कोना तब तक ही खाली रहता है जब तक की उसे उसका असली हक़दार नहीं मिल जाता”

अंशुल मूणत रतलाम

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