भारत मे अनुशासन है या नहीं

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ऐसा माना जाता है कि भारतीय कानून के आदि पुरुष भगवान मनु महाराज यानि मानवों के पूर्वज रहे हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार ईसा पूर्व बाइसवीं शताब्दी में हिंदुस्तान में पहली बार कानून, नियम, अधिनियम, उपनियम का उपयोग आरंभ हुआ। इतने प्राचीन चलन का उल्लंघन करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं मालूम पड़ता है, जब तक किसी के जीवन-मृत्यु का सवाल न उपस्थित हो। उल्लेखनीय है कि मनु के बनाए गए नियम, कानूनों मे स्थान, समय और परिस्थिति के अनुसार बहुतेरे फेर-बदल किए गए। वर्तमान काल में हमारा संविधान का कानून ही सर्वोपरि ग्राह्य एवं सर्वमान्य है; तथापि उसमें भी सौ से ज्यादा संशोधन किए जा चुके हैं। इससे यह पता चलताहै कि एक सर्वमान्य नियम-कायदों के समूह का निर्माण लगभग असंभव प्रक्रिया है। कानून निर्माण को एक सतत प्रक्रिया माना जाना ही श्रेयस्कर है।

       जिसको पहली बार कानून ( ला) शब्द सूझा होगा, वह व्यक्ति तो अद्भुत और महान होगा। कानून व्यवस्था का मतलब ही अनुशासन होता है। बाद में भारतीय मनिषियों ने कानून के दायरे में सिमटकर रहने का उपदेश दिया होगा। उनने ही समझाया होगा कि इस दायरे में तब तक सिमटते रहो जब तक कि मौत अपने आगोश में न लेले। तदनुसार संतोष इसका आधार बना होगा तथा सिमटना इसकी आत्मा। तब कहीं जाकर अनुशासन एवं विभिन्न आकार प्रकार के कानूनों, नियंत्रणों के दायरे बने; क्योंकि मानवीय जीवन में मौत और कानून अटल,चिरंतन तथा अवश्यंभावी वस्तुएं मानीजाती हैं।

       एक बात को हमेशा याद रखना होगा कि यदि आप सिमटना नहीं चाहते हो तो सोने व खोने के अलावा क्या शेष रह जाता है? जब सब कुछ स्वप्नवस्था में आ गया तो कैसा अनुशासन, कौन स कानून, कैसी सजा, कैसा इंसाफ बल्कि सोये रहने का अनुशासन, नियम-उपनियम पलटे चलो। अतः असंतोष कि अभीप्सा जगाना ही मानव मात्र का उद्देश्य होना चाहिए जिसमें गति है, विश्लेषण है, विकास है, परिवर्तन है और क्रांति भी है। विश्वास नहीं विचार चाहिए। वैज्ञानिक चिंतन की आवश्यकता होती है ताकि इस संसार के अनंत विस्तार को विश्वास तथा  अनुशासन से जीता जा सके। विकास, प्रगति और अन्वेषण तभी संभव होपाएंगे जब असंतोष की छटपटाहट होगी क्योंकि यह सर्वमान्य तथ्य है कि आवश्यकता ही आविष्कार कि जननी होती है।

       न्याय भारतीय दर्शन का एक अंश है, एक प्रणाली है जिसमें वस्तु तत्व का निर्णय करने के लिये सभी प्रमाणों, तथ्यों का उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक कानून कि परिभाषा एक नैतिक सिद्धांत के रूप में है जो मानवीय आंतरिक नैतिक मूल्यों पर केंद्रित होती है और मानवीय कार्यों एवं मानसिकता को सकरात्मकता के साथ नियंत्रण में रखती है।

       कानूनी यथार्थवाद न्यायशास्त्र के एक सिद्धांत के अंतर्गत आता है, जिसका तर्क यह है कि वास्तव में दुनिया उसी कानून का व्यवहार करती है, जो वह निर्धारित करती है कि कानून क्या है? वही कानून जिसमें शक्ति है, बल है जिसके कारण सांसद, विधायक, न्यायधीश, कार्यकारी अधिकारी इस बल का व्यवहार करते हैं. सच तो यह है कि वे सभी किसी न किसी कानून के दायरे में बंधे हुए होते हैं।

       यदि किसी बहुत ही अच्छे कार्य के लिए कानून का उल्लंघन किया जाता है तो सरकार-राज्य-पुलिस को सजा देने की प्रक्रिया की बजाय  कानून तोड़ने वाले की बात मान लेना ही श्रेयस्कर होना चाहिए। सदा किसी देश-समाज के लिए ऐसे नियम कायदे बनाए जाते हैं ताकि उसके नागरिकों, उस समाज के सदस्यों के क्रिया कलापों को नियंत्रित किया जा सके, उसको ही कानून कहा जाता है। उक्त नियम कार्डों का पालन करने में हो सकता है कि कतिपय लोगों को सजा का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि सभी कानून सभी के लिए न्यायपूर्ण, तर्कसंगत नहीं हो सकते हैं। न ही वे सम्पूर्ण मानवता के लिए फायदेमंद तथा सही हो सकते हैं। कोई कानून समाज के एक समूह के लिए लाभप्रद और सटीक हैं तो वे ही कानून समाज के किसी दूसरे समूह के लिए नुकसानदेह तथा गलत भी हो सकते हैं। समाज के जिस समूह के लिए वे गलत व हानिप्रद हैं, उक्त समूह उस कानून का उल्लंघन अपने हिसाब से, स्वविवेकानुसार करता है; क्योंकि प्रत्येक कानून कि अपनी एक अलग राजनैतिक, सामाजिक, दार्शनिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है। यही कारण है कि समस्त कानून समाज के सभी तबकों, समूहों के ऊपर एक समान न्यायपूर्ण ढंग से नहीं लागू किए जा सकते हैं.

       यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कानूनो द्वारा शांति और व्यवस्था कायम की जाती  है, ताकि मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो। तथापि यह हमेशा तर्कसंगत नहीं होता है; जैसे: कोई अल्पसंख्यक के प्रति असहनशील हो सकता है तो कोई किसी क्रांति का आगाज कर सकता है, या कोई मानवाढूकारों का उल्लंघन करता है आदि,आदि। हालांकि की ऐसे मामलात भी होते हैं, जैसे : मनुष्य के  जीवन-मृत्यु का संकट आसन्न हो तो कानून कि परवाह करने से बेहतर होगा; उस संकट को निबटने, दूर करने का उपाय तथा प्रयास किया जाए। मोटे तौर पर यह स्वीकार कर लिया जाता है कि व्यक्ति नैतिक व तार्किक दृष्टिकोण से सही हो कि उसने कानून क्यों तोड़ा? इस बावत उसकी भावनाएं शुद्ध एवं न्यायपूर्ण होना आवश्यक होता है। उसके द्वारा कानून का उल्लंघन अच्छे नैतिक और कोई वृहत उद्देश्य को लेकर किया गया हो तो वह क्षम्य हो जाता है। भारत में महात्मा गांधी और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला तत्कालीन ब्रिटिश कानूनो को तोड़ने वाले ज्वलंत प्रतिनिधि नाम हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा एक बड़े और महान उद्देश्य – स्वतंत्रता प्राप्ति – के लिए किया। यहाँ पर मार्टिन लूथर किंग जूनियर का एक कथं उल्लेखनीय है-“ अत्याचारी, दमनकर्ता अपने आप स्वतंत्रता उपहार में नहीं दे देता है बल्कि जो दबे कुचले परतंत्र लोग हैं, उनको ही आगे बढ़कर स्वतंत्रता माँगनी और छीननी पड़ती है”।

       कानून मे अपने अनुपालन कि एक नैतिक बाध्यता तथा प्रतिबद्धता अंतर्निहित होती है। इसी कारण एवं इसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करनेहेतु मजबूर होते हैंजिनको वह अन्यायपूर्ण लगता है या तर्कसंगत महसूस नहीं होता है। राजनैतिक व्यवस्था चाहे वो लोकतान्त्रिक हो अथवा अधिनायकवादी उसे कानून कि किसी न किसी संहिता के अंतर्गत चलना सभी का धर्म हो जाता है। प्लेटो का कथं है-“ नागरिकों कि कर्तव्य भावना ही राज्य का न्याय सिद्धान्त होता है। राज्य से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है”। प्लेटो न्याय को मनुष्य कि आत्मा का  एक अनिवार्य गुण मानता है। मानव एवं राज्य में साम्य दिखने के लिए यह प्रतिपादित करता है कि राज्य व्यक्ति का एक वृहद रूप है। अतः राज्य के गुण तथा व्यक्ति के गुण आपस में मिलते जुलते हैं, जिनमें तीन गुण प्रमुख हैं- तृष्णा (Apetite), शौर्य(Spirit ) तथा विवेक (Reason).

       दुनिया में न्याय और शांति का साम्राज्य स्थापित करना, वह भी बगैर किसी कानून के; लगभग असंभव स प्रतीत होता है। कानून का वजूद देश के नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने, उनके मूलभूत अधिकारों के संरक्षण के लिए है, किन्तु प्राचीन काल से यह देखने में आ रहा है कि कानूनों में निरंतर बदलाव होते रहते हैं या तो नए कानून बनाए जा रहे होते हैं या पुराने कानूनों का पुनर्नविकरण किया जाता रहेगा अथवा कतिपय पुराने कानूनों को हटाया जाता रहेगा। आमजन सनातन काल से इस बात के लिए संघर्षरत होने के साथ-साथ प्रयास मे लगे रहते हैं कि कानूनों का एक पक्का, अटल समूह का निर्माण कर दिया जाए जिसका शत-प्रतिशत अनुपालन देश के सारे समूह कर सकें। लेकिन अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है और भविष्य मे ऐसा हो सकने के आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं। कानूनों का एक पहलू यदि किसी समाज के एक तबके के लिए अनुकूल बं जाता है तो उसी समाज के किसी अन्य समूह के प्रतिकूल बन बैठता है। यानि कुल मिलकर पुराने कानूनों के नवीनीकरण कि प्रक्रिया कभी थम ही नहीं पट्टी और न बंद हो सकती है। इसी वजह से यह ज्वलंत प्रश्न खडा  हो जाता है कि किसी कानून को तोड़ना या उसका उल्लंघन करना- यदि वह हमारे अनुकूल नहीं है – क्या उचित है?हालांकि यह एक अत्यंत गूढ दृष्टिकोण है जिस पर हरेक व्यक्ति के विचार पहलू हो सकते हैं।

By: Harsh Wardhan Vyas

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